प्रीति सिंह
मजबूत विपक्ष किसी भी देश के अस्तित्व के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। मजबूत विपक्ष को लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था के लिए बेहद जरूरी माना जाता है वह वर्तमान में भारत में नदारद दिख रहा है। 2014 में मोदी के सत्तासीन होने के बाद विपक्ष का जो कमजोर होने का सिलसिला शुरु हुआ वह अभी जारी है। विपक्ष के कमजोर होने का असर लोकतंत्र की काया पर भी दिखा है।
यह सच है कि मोदी के दूसरे कार्यकाल में विपक्ष और अधिक कमजोर हुआ है। ये भी सच है कि विपक्ष को चलाने की जिम्मेदारी सत्ताधारी पार्टी की नहीं हो सकती, लेकिन उसके मिटने से भी लोकतांत्रिक पार्टी का हितसाधन नहीं होता है। मजबूत विरोध के साए में ही मजबूत नेतृत्व पलता है, इसलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को इस बात पर ध्यान देना होगा कि विपक्ष अर्थहीन न हो जाए। विपक्ष कमजोर होगा तो इससे भारत की लोकतांत्रिक प्रतिष्ठा को भी ठेस लगेगी। अगर विपक्ष नहीं रहेगा तो लोकतंत्र भी नहीं रह सकता।
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में उनके सामने कई चुनौतियां है, जिसमें कमजोर विपक्ष को साथ लेकर चलना भी शामिल है। मोदी के पहले कार्यकाल से लेकर दूसरे कार्यकाल के एक साल में ऐसे हालात कई बार सामने आए जब संसद में विपक्ष की बात को सरकार ने कोई वरीयता नहीं दी।
दूर जाने की जरूरत नहीं है। हाल ही में कोरोना महामारी से लडऩे के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और वित्त मंत्री दोनों ने मिलकर जिस 21 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज और आर्थिक सुधार का ऐलान किया उसके लिए संसद की मंजूरी लेना बहुत जरूरी था।
ज्यादातर देशों की सरकारें पैकेज के लिए संसद के पास गई जहां पैकेज को मंजूर किया गया, लेकिन भारत में ऐसा नहीं हुआ। जबकि संविधान साफ कहता है कि सरकार लोकसभा की मंज़ूरी के बगैर सरकारी खजाने का एक रुपया भी खर्च नहीं कर सकती। बजट और वित्त विधेयक के पास होने से सरकार को यही मंज़ूरी मिलती है।
इसीलिए अभी कोई यह नहीं जानता कि 21 लाख करोड़ रुपये के पैकेज में से जो 2 लाख करोड़ रुपये असली राहत पर खर्च हुए हैं, वो 23 मार्च को पारित हुए मौजूदा बजटीय खर्चों के अलावा हैं अथवा इसे अन्य मदों के खर्चों में कटौती करके बनाया जाएगा।
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संसद का बजट सत्र जनवरी में 31 तारीख को शुरू हो गया था, जबो 23 मार्च तक चला। पूरे सत्र के दौरान 23 बैठकों में कुल 109 घंटे और 23 मिनट कामकाज हुआ था, लेकिन इस दौरान दोनों सदनों में कोरोना संकट पर कोई चर्चा नहीं हुई थी, जबकि कोरोना संक्रमण जनवरी महीने में ही भारत में दस्तक दे चुका था। कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने कोरोना महामारी को लेकर सरकार क्या कदम उठाने जा रही है उसको लेकर सवाल किया तो सत्ता पक्ष ने जवाब देेने के बजाए राहुल गांधी का मजाक उड़ाने में लगी रही।
और तो और सत्र का आकस्मिक समापन निर्धारित समय से 10 दिन पहले ही कोरोना संकट के नाम पर कर दिया गया, जबकि संसद को तय कार्यक्रम के मुताबिक तीन अप्रैल तक चलना था।
ऐसी उम्मीद जताई जा रही थी कि सरकार कोरोना संकट से निबटने के लिए आवश्यक कदम उठाने के बाद संसद का एक विशेष संक्षिप्त सत्र आयोजित करेगी और पक्ष-विपक्ष का राय जानेगी,पर ऐसा हुआ नहीं। हालांकि ऐसा करने की कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं है।
संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार एक वर्ष में संसद के तीन सत्र होना अनिवार्य है और किन्हीं दो सत्रों के बीच छह महीने से अधिक का अंतराल नहीं होना चाहिए। बावजूद इसके मानवीय आपदा और लोकतांत्रिक तकाजे के तहत ऐसी अपेक्षा की जा रही थी कि सरकार संवैधानिक प्रावधान या तकनीकी पेंच का सहारा नहीं लेगी और संसद का विशेष सत्र बुलाएगी, लेकिन इस दिशा में सरकार ने न तो अपनी ओर से कोई दिलचस्पी दिखाई और न ही इस बारे में विपक्षी सांसदों की मांग को कोई तवज्जो दी।
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भारत में विपक्ष ट्विटर पर अपनी आवाज बुलंद कर रहा है, जबकि इसी कोरोना काल में दुनिया के तमाम देशों में सांसदों ने अपने-अपने देश की संसद में अपनी जनता की तकलीफों का मुद्दा उठाया है और उठा रहे हैं। उन्होंने अपनी सरकारों से कामकाज का हिसाब लिया है और ले रहे हैं।
इस दिशा में केंद्र सरकार कोई दिलचस्पी नहीं ले रही है। संसद अपनी सक्रिय भूमिका निभाए, इसमें न तो सरकार की दिलचस्पी है और न ही संसद के दोनों सदनों के मुखिया यानी लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति की। यही वजह है कि विभिन्न मंत्रालयों से संबंधित संसदीय समितियों की बैठकें भी नहीं हो पा रही हैं जबकि इन समितियों में सीमित संख्या में ही सदस्य होते हैं।
संसद के प्रति सरकार यानी प्रधानमंत्री की उदासीनता को देखते हुए सत्तारूढ़ दल के सांसदों ने भी अपनी अध्यक्षता वाली संसदीय समितियों की बैठक आयोजित करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। हालांकि जिन विपक्षी सांसदों ने अपनी अध्यक्षता वाली समितियों की बैठक वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए बुलाने की पहल की, उन्हें राज्यसभा और लोकसभा सचिवालय ने रोक दिया।
देश में में विभिन्न मंत्रालयों से संबंधित 24 स्थायी संसदीय समितियां हैं, जिनमें से इस समय 20 समितियों के अध्यक्ष सत्तारूढ़ दल के सांसद हैं।
राज्यसभा में कांग्रेस के उप नेता आनंद शर्मा गृह मंत्रालय सें संबंधित मामलों की संसदीय समिति के अध्यक्ष हैं। पिछले दिनों वे चाहते थे कि समिति की बैठक वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए हो, लेकिन राज्यसभा सचिवालय ने इसके लिए मना कर दिया है।
इसी तरह सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी संसदीय समिति के अध्यक्ष शशि थरूर ने भी अपनी समिति की बैठक वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए कराने की अनुमति मांगी थी, जो लोकसभा सचिवालय से नहीं मिली।
दोनों सदनों के सचिवालयों की ओर से दलील दी गई कि संसदीय समिति की बैठकें गोपनीय होती हैं, लिहाजा वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए बैठक करना नियमों के विरुद्ध है। ऐसे में सवाल उठता है कि जब प्रधानमंत्री देश के सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक कर सकते हैं, पीएम मोदी की पहल पर ही दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के सदस्य देशों के प्रमुखों की वर्चुअल मीटिंग हो सकती है, सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिए मामलों की सुनवाई कर सकते हैं और देश के कैबिनेट सचिव अक्सर राज्यों के मुख्य सचिवों के साथ वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए मीटिंग कर सकते हैं तो तो फिर संसदीय समिति की बैठक वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए क्यों नहीं हो सकती?
नेहरू युग के प्रखर संसदविद और समाजवादी विचारक राम मनोहर लोहिया कहा करते थे, जब सड़क सूनी हो जाए तो संसद बांझ और सरकार निरंकुश हो जाती है।”
आज कमोबेश यही हालत दिख रही है। कमजोर विपक्ष होने की वजह से भारी बहुमत वाली सरकार कई बार संसद को ठेंगे पर रखकर ऐसे मनमाने फैसले करने लगती है, जो कुछ ही समय बाद देश के लिए घातक साबित होते हैं।