Monday - 28 October 2024 - 8:06 AM

फिलहाल जा नहीं रही योगी सरकार

यशोदा श्रीवास्तव

यूपी विधानसभा के सभी सात चरणों के चुनाव सम्पन्न हो जाने के बाद एक्जिट पोल की तमाम एजेंसियों के आकलन भी आ गए. इसमें कुछ के गलत हो सकते हैं और कुछ के सच के करीब तक हो सकते हैं. प.बंगाल विधानसभा चुनाव के बाद एक्जिट पोल भरोसे लायक नहीं रहा. अंतिम दौर में वाराणसी, आजमगढ़, मऊ, मीरजापुर सहित अन्य जिलों के जिन 54 सीटों के लिए चुनाव हुआ है, उनमें से अधिकतम बैकवर्ड बाहुल्य चुनाव क्षेत्र हैं जहां भी 2017 में सर्वाधिक 46 सीटें बीजेपी के कब्जे में थीं.

इधर भी पश्चिम के चुनावों जैसा ट्रेंड रहा तो बीजेपी अधिकतम दस से पंद्रह सीटें लूज कर सकती है. इससे कम हो सकता है ज्यादा की संभावना तनिक भी नहीं है. मौजूदा विधानसभा में गठबंधन दलों के साथ बीजेपी के 325 विधायक हैं. इस बार के चुनाव परिणाम को लेकर मेरा जो आंकलन है वह यह कि बीजेपी के सूपड़ा साफ जैसी स्थिति पहले चरण से लेकर अंतिम चरण तक कहीं नहीं दिखी. यदि बीजेपी बहुत नुक्सान में रहेगी तो उसके 200 सीटें कहीं नहीं गई. इससे भी कम हुआ तो 175 से कम की गुंजाइश तो कतई नहीं दिखती.

अभी तो मैं बीजेपी के स्वयं के बहुमत के साथ आने की संभावना खारिज नहीं कर रहा फिर भी यदि गए बीते हाल में 175 तक ही सीटें मिल रही हैं तो भी बीजेपी को सरकार बनाने से रोकना मुश्किल होगा क्योंकि लाख कोशिशों के बावजूद मुझे फिलहाल विधानसभा में इससे बड़ा दल उभर कर आता हुआ दूसरी पार्टी नहीं दिख रही.

नतीजा दस मार्च को आएगा इसके पहले आप एक्जिट पोल से लेकर टीवी चैनलों पर सरकार बनाने और सरकार के जाने की बड़े-बड़े दावों व बहस मुबाहिसों का आनंद लीजिए. मेरा मानना है कि इस बार वोटर आंख मूंद कर न तो मौजूदा सरकार को नकारने जा रहा है और न ही किसी अन्य पार्टी को तश्तरी में रखकर सरकार बनाने का अवसर ही देने जा रहा है.

योगी सरकार के खिलाफ मुद्दा था मंहगाई, खासकर खाद्य पदार्थ और पेट्रोल डीजल का. सभी जानते हैं कि यह प्रदेश सरकार के हाथ में नहीं है. इसके अलावा मुझे नहीं लगता कि ऐसा कोई मुद्दा रहा जिससे योगी सरकार को सीधे जिम्मेदार ठहराया जाए. छुट्टा पशु बड़ा मुद्दा था और है भी लेकिन यह योगी सरकार में ही अचानक से आ गया, ऐसा भी नहीं क्योंकि पिछली सरकार में भी छुट्टा पशु खेत और सड़कों में देखे जाते रहे. दूसरा बड़ा मुद्दा था कोरोना की पहली दूसरी व तीसरी जानलेवा लहर, जब लोग हजारों किमी पैदल चलकर अपने घरों तक पंहुचने को मजबूर हुए, गंगा में बहती लाशों का दर्दनाक मंजर, आक्सीजन और दवाओं के अभाव में अपनों को खोने का खौफ और सरकार की लापरवाही से चारों ओर भयाक्रांत सन्नाटा!

ईश्वर प्रदत्त इस घाव पर मरहम लगाने को योगी कुछ न करते सिर्फ वे स्वयं को करुणानिधान और मुस्कराते हुए राम वाले छवि के रूप में प्रस्तुत कर यह कहते कि कोशिश करुंगा कि ईश्वर फिर ऐसा दुःख न दे. उनके इतना ही कहने से कोरोना काल से गुजरे लोग जरूर सकून महसूस किए होते. काश!योगी ऐसा कर पाए होते तो शायद आज यूपी से भाजपा की विदाई की बात न होती. भगवान राम क्षितिज पर वास तक सिर्फ एक बार क्रोधित हुए जब वे समुद्र पर नाराज़ हुए थे. भाजपा की मुश्किल यह है कि उसे राम की यही क्रोध वाली छवि ही पसंद है. संयोग से योगी भी पूरे चुनाव तक बुलडोजर, गर्मी आदि कठोरतम व्यंग्य वाण से ही लोगों को घायल करते रहे.

दरअसल इस बार का विधानसभा चुनाव सरकार की अच्छाई और नाकामी पर लड़ा ही नहीं गया. चुनाव तो पूरी तरह जातीय और धर्म आधारित था. इस बार खास बात यह थी कि बीजेपी का जो धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण का प्रयास था, वह बहुत कम असरकारी हो सका और इसीलिए शायद तीसरे चरण का मतदान आते आते पीएम मोदी को “अपना नमक” खिलाने के नाते वोट की अपील करने को मजबूर होना पड़ा. विपक्षियों के तंज के कारण छठे और अंतिम चरण तक यह भी फुस्स हो गया. यूपी में योगी सरकार के हिस्से तमाम जनहित के काम भी हैं लेकिन इसकी चर्चा न के बराबर ही हुई.

इस चुनाव में जातीय अंकगणित का खेल भी गजब का रहा. वोटर इस भ्रमजाल से स्वयं को मुक्त नहीं कर सका और वह अपनी जाति के प्रत्याशी पर फिदा हो गया. सभी राजनीतिक दलों ने बाजी मारने के लिए जातीय अंकगणित पर ज्यादा जोर दिया. भाजपा हो, सपा हो या कांग्रेस, जातीय अंकगणित वाले उम्मीदवारों को इसका फायदा मिला. चुनावी मिजाज भांपने के लिए घूमते टहलते सिद्धार्थनगर जिले के विधानसभा क्षेत्रों तक जाना हुआ. यहां एक विधानसभा क्षेत्र है शोहरत गढ़! इस क्षेत्र से भाजपा अपना दल एस और सपा सुभासपा गठबंधन के उम्मीदवार एकदम अनजान और बाहरी हैं. भाजपा गठबंधन के उम्मीदवार इस चुनाव क्षेत्र से करीब सौ किमी दूर जबकि सपा गठबंधन के उम्मीदवार तीन चार सौ किमी दूर के हैं. इस क्षेत्र में कांग्रेस सहित तीन मजबूत स्थानीय उम्मीदवार भी थे लेकिन वोटरों ने दूर दराज के उम्मीदवारों पर जमकर वोट बरसाए. यहां का चुनाव परिणाम इस हद तक चौंकाने वाला हो सकता है कि भाजपा गठबंधन के अपना दल प्रत्याशी को हराने का मंसूबा रखने वालों की मंशा शायद धरी रह जाए ! हैरत तो यह कि इन दोनों दलों के उम्मीदवारों के पक्ष में उनके समर्थक मतदाताओं का यह समर्पण तब है जब ये अपने चहेते उम्मीदवार का दर्शन तक नहीं कर सके.

दरअसल ऐसे ही तमाम चुनाव क्षेत्रों का राजनीतिक घटनाक्रम और मतदाताओं का मिजाज देख मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी के जैसे नुकसान के कयास लगाए जा रहे हैं,वैसा ही होने की गारंटी फिलहाल मुझे नहीं लग रहा. हां 2017 के मुताबिक 2022 के चुनाव परिणाम इस वजह से जरूर इधर के उधर हो सकते हैं क्योंकि पहले फेज के मतदान को छोड़ शेष फेज में मतदान प्रतिशत डाउन ही हुआ है. बताने की जरूरत नहीं कि 2017 के चुनाव में यूपी में योगी मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं थे फिर भी भाजपा को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ लेकिन उसके मत प्रतिशत पर गौर करें तो पता चलेगा कि भाजपा तबके चुनाव में बहुत अच्छी बढ़त के साथ सत्ता तक नहीं पहुंची थी. वे अधिकतम दस और न्यूनतम एक प्रतिशत अधिक वोट पाकर ही सत्ता में आए.

इस चुनाव में भाजपा की कोशिश यह रही है कि यदि वह अपना मत प्रतिशत न बढ़ा पाए तो 2017 में प्राप्त मत प्रतिशत को बचा जरूर ले. इस जद्दोजहद में चुनाव के आखिरी फेज में प्रधानमंत्री को अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी में तीन दिन तक जमा रहना पड़ा. इस बार बीजेपी की वैसी लहर भी नहीं दिखी जैसी 2017 में थी. यहीं एक सवाल यह भी पैदा होता है कि उस वक्त की सपा की पूर्ण बहुमत की सरकार की ऐसी क्या खामी थी कि 2017 में उसे शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा? इसके जवाब में सपा के ही एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने के आग्रह के साथ कहा कि दरअसल उस वक्त के सपा सरकार में मध्यम वर्ग के जरूरतमंदों की सुनवाई कहीं नहीं होती थी. न तो सरकार में और न ही थानों से लेकर कचहरियों में ही. इस वर्ग का सवर्ण समाज स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहा था जिसका नतीजा था उस वर्ग का सपा से मोहभंग और भाजपा की ओर झुकाव!

भाजपा और खासकर योगी सरकार में भी मध्यम वर्ग के सवर्ण समाज को कुछ खास तवज्जो नहीं मिल सकी. यह सरकार भी गरीब के नाम पर अपने कार्यकर्ताओं तक सिमट कर रह गई. भाजपा सरकार जिस आवास ,शौचालय, मुफ्त अनाज या कथित कर्ज माफी के नाम पर बहुसंख्य वोटरों पर अपना अधिकार जता रही है, यह सुविधाएं भी मध्यम वर्ग के सवर्ण समाज तक नहीं पंहुच सका. कहना न होगा बीजेपी आज यदि अपने 2017 के आंकड़े से पिछड़ रही है तो उसका बड़ा कारण उसकी योजनाओं का सही लोगों तक डिलेवरी न हो पाना भी है जिसका नुकसान सीटों की कमी के तौर पर बीजेपी को उठाना पड़ रहा है.

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