शबाहत हुसैन विजेता
लखनऊ है तो महज़ गुम्बद-ओ-मीनार नहीं.
सिर्फ एक शहर नहीं कूचा-ओ-बाज़ार नहीं.
इसके दामन मोहब्बत के फूल खिलते हैं,
इसकी गलियों में फरिश्तों के पते मिलते हैं.
हिन्दुस्तानी साहित्य में महज़ यही वो चार लाइनें हैं जो शहर-ए-लखनऊ की पहचान करा देती हैं. लखनऊ की पहचान को सिर्फ चार लाइनों में बाँध देने वाले शायर के मेयार का अंदाजा लगाना इतना आसान नहीं है.
यह खूबसूरत लाइनें जिस सूरमा के कलम से निकली थीं थीं उनका नाम है योगेश प्रवीन पांडेगंज गल्ला मंडी के पीछे पतली सी गली है जिसमें बसा है गौस नगर.
यह लखनऊ का आम सा मोहल्ला है लेकिन इस गली ने दो नायाब हीरे दिए कृष्ण बिहारी नूर और डॉ. योगेश प्रवीन. हिन्दू बाहुल्य इलाके में बसे यह दोनों हीरे उर्दू के शानदार विश्वविद्यालय थे. 18 साल पहले नूर साहब चले गए और आज योगेश जी.
योगेश प्रवीन तो अभी रुकना चाहते थे. अभी तो उन्हें बहुत कुछ पढ़ाना था मगर घर वालों की दो घंटे मिन्नतें उनके दरवाजे तक एम्बूलेंस नहीं पहुंचा पाईं.
जब तक वह डॉक्टर के सामने पहुंचे साँसें साथ छोड़कर जा चुकी थीं. बंद गले का कोट पहने मुस्कुराते योगेश प्रवीन शहर के हर खास प्रोग्राम में मिल जाते थे. उनसे जब भी मिलना हो वो तैयार ही मिलते थे.
योगेश प्रवीन चलता-फिरता लखनऊ थे. वह लखनऊ का इनसाइक्लोपीडिया थे. वह सभी के दोस्त थे. उनकी किसी से दुश्मनी नहीं थी. उनके पास हजारों किस्से थे.
उनके ज़ेहन में लखनऊ का पूरा इतिहास था. तारीखें उन्हें ऐसे याद रहती थीं जैसे कि रटी हों. लखनऊ से जुड़े किसी भी मुद्दे पर उनसे जब कहा उन्होंने लिख दिया. उन्होंने जितना कुछ किया उसके बदले उन्हें सरकार ने पद्मश्री दिया.
अभी इस बात को 48 घंटे नहीं हुए हैं कि आईएएस एसोसियेशन के अध्यक्ष का परिवार एम्बूलेंस के लिए मिन्नतें करता नज़र आ रहा था और आज योगेश प्रवीन का परिवार मिन्नतें करता नज़र आया.
आखिर सरकार कौन से मोड में चल रही है. मुख्तार अंसारी को पंजाब की रोपड़ जेल से यूपी लाने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक दौड़ जाती है वह अपने स्वास्थ्य विभाग की एम्बूलेंस भी मरीजों तक नहीं पहुंचा पाती.
बंगाल की रैलियों में योगी बाबा दावे कर रहे हैं कि टीएमसी और कांग्रेस के गुंडे गले में तख्ती डालकर घूमेंगे. गुंडे या तो सुधर जायेंगे या फिर सूबा छोड़कर भाग जायेंगे.
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सरकार चलाने का मतलब क्या सिर्फ गुंडागर्दी खत्म करना भर होता है. या फिर इसके सिवाय भी कुछ होता है. मतलब साफ़ है कि अब जहां-जहाँ अप सरकार बनायेंगे वहां एम्बूलेंस नहीं पहुंचेगी सिर्फ गुंडे अपने घर वापस लौटेंगे.
दूसरे प्रदेशों में स्टार प्रचारक बनकर जा रहे थे तो वहां बताते कि हमारे प्रदेश में पांच मिनट में एम्बूलेंस पहुँच जाती है. हमारे प्रदेश में डॉक्टर एक फोन काल की दूरी पर है.
जिन अपराधियों के मेडिकल कालेजों पर आपने बुलडोजर चलवाए हैं उन पर सरकारी कब्ज़ा कर लिया होता तो वह सभी कोविड अस्पताल बन गए होते. अपराधियों के फार्महाउस नुमा मकान गिरवाये गए हैं वह होते तो शानदार अस्पतालों में बदल गए होते.
सरकार नफरत की राजनीति करे और मर जाएँ योगेश प्रवीन. ये नहीं चलेगा बाबाजी. पद्मश्री योगेश प्रवीन को कोई छू भी सके ऐसा कोई दूर-दूर तक नहीं है.
हजारों शायरों ने उनसे फायदा लिया, सरकार ने भी लिया होता तो शायद उत्तर प्रदेश बुलंदियों को छू रहा होता. कुछ हज़ार लोगों के मर जाने से यूँ तो वाकई कुछ नहीं होता लेकिन एक योगेश प्रवीन के मरने से एक सदी का नुकसान होता है.
कोरोना वायरस का नया अवतार हवा में घुल गया है. अब किसी के सम्पर्क में आने की भी ज़रूरत नहीं, बगैर मास्क अकेले घूमने से भी पकड़ ले रहा है.
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यह सरकार की ज़िम्मेदारी है कि सफाई के इंतजाम तेज़ करे. हवा में दवा डलवाए. एम्बूलेंस का ज़िम्मा किसी ज़िम्मेदार को तय करे. एम्बूलेंस चलाने वाले भी हजारों की वसूली कर रहे हैं उन पर भी नज़र रखी जाए.
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बंगाल चुनाव फिर आ जाएगा. यूपी का पंचायत चुनाव भी टाला जाना चाहिए. हाईकोर्ट जिद करे तो सरकार को इनकार की नीति अपनानी चाहिए. लोगों की जान बचाने के लिए हाईकोर्ट की मानहानि नहीं होगी. हाईकोर्ट फिर भी न माने तो सरकार पंचायत चुनाव की बागडोर जज साहब के हाथों सौंप दे.
योगी बाबा संत हो, संत रहो, राजनीति में मिसाल बनो, पिछले एक महीने में कोरोना ने जो नुक्सान किये हैं उसकी भरपाई करने पड़ोसी राज्य नहीं आएंगे.
सत्ता आनी-जानी है मगर योगेश प्रवीन जैसे लोग कभी-कभी ही पैदा हो पाते हैं. माफ़ करियेगा योगेश जी, हम आपको बचा नहीं पाए. हालात ऐसे हो गए कि डर रहा है लखनऊ, देख कैसे धीरे-धीरे मर रहा है लखनऊ.