सिद्धार्थ कलहंस
हर मरने वाला महान नही होता है। कुछ इंसान भी होते है। महानता का बोझ कभी खुद पर लादा नही उदय सिन्हा ने और न ही किसी अन्य की महानता के बोझ तले दबे।
राजनीति और पत्रकारिता में कोई जूनियर सीनियर नही होता, आपके पीठ पीछे कही गयी बुरी बातें ही आपको पता चलती हैं अच्छी नहीं, पत्रकारिता में थोड़े दिनों की आरामतलबी आपको मैदान से बाहर कर देती है। तमाम फसलफे उदय जी ने अपने अनगिनत शिष्यों को सिखाए। हालांकि किसी को शिष्य कहना उन्हें सख्त नापसंद था।
खुद के सिखाए हुए तमाम लोगों के ऊंची जगहों पर पहुंच जाने के बाद उदय सिन्हा ने कभी उनकी कमियां, पुराने दिन याद नहीं दिलाए बल्कि हमेशा सम्मान दिया व दिलवाया।
महान नही इंसान होने की सभी खूबियां, कमजोरियां उनमें थी। यारबाज थे, नयी उम्र के लोगों के लिए संरक्षक, भाई जैसे, समाज, संस्था के निचले पायदनों पर काम करने वाले लोगों में दिल से घुलने मिलने वाले। इंसान इसलिए कहा कि संपादक रहते हुए अक्सर मित्रों को (चाहे वो राजनीति में हों या किसी अन्य क्षेत्र में) प्रमोट करने से पीछे नही रहते थे।
कभी फर्जी नैतिकता का आवऱण नहीं ओढ़ा। खुल कर कहते थे कि फलां हमारे मित्र हैं जरा इनकी खबर अच्छी लगाओ। गलत के खिलाफ उसी तरह खड़े हो जाते थे जैसे कभी आम इंसान खुद्दारी पर उतर आए। मातहतों पर गुस्सा मां की तरह होता था जो कुछ ही देर में पिघल जाता।
संबंध निभाना इस तरह जानते थे कि बाज दफे अपने ही संस्थान के काबिल लोगों को अनमना देख उनकी दूसरी बेहतर जगह नौकरी लगवाने में मदद कर देते थे। महज औपचारिकता निभाने के लिए नही बल्कि हकीकत में साथ काम करने वालों के घर परिवार तक का हालचाल लेना, मदद कर देना उनकी आदत में शुमार था।
अपनापन इस कदर कि उनके घर दोपहर में या रात में जाने वाले को चाय नही सीधे खाना ही खिलाया जाता था। पारदर्शिता इतनी कि कभी कुछ छिपाया हो याद नहीं।
लखनऊ में ज्यादातर जानने वाले उदय सिन्हा को पहले स्वतंत्र भारत और फिर पायनियर के संपादक के तौर पर जाने। हालांकि उससे पहले उदय जी ने जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) से पढ़कर निकलने के बाद केंद्र सरकार के सूचना विभाग में प्रदर्शनी अधिकारी के पद पर भी काम किया और अंग्रेजी दैनिक दि हिन्दू में घुमंतू संवाददाता (रोविंग कारस्पांडेंट) के पद पर पहली बार उत्तर प्रदेश में सेवाएं दी।
बहुत कम उम्र में गुवाहाटी से प्रकाशित पूर्वांचल प्रहरी के संपादक बन गए और फिर उसी समूह के अंग्रेजी अखबार नार्थ ईस्ट टाइम्स व असमिया समाचार पत्र के भी संपादक बने। डगमगाते दिनों में स्वतंत्र भारत संपादक बन पहुंचे और थापर समूह ने जब इसे बेंच दिया तो पायनियर के अंग्रेज दैनिक के संपादक हुए।
ये उनका स्वर्णिम दौर था। हालांकि इसके बाद वो ज्यादा ऊंचे संस्थानों में बड़े पद और वेतन पर रहे पर खुद का सबसे अच्छा समय पायनियर के संपादक के तौर पर गुजारे गए दिनों को कही कहते थे। पत्रकारिता की नर्सरी तैयार करना मानों उन्हें भाता था। नए लोगों की तलाश हमेशा उनको रहती थी। इस काम में हिन्दू अखबार के पूर्व ब्यूरो चीफ जेपी शुक्ला जी उनका साथ देते थे।
उदय जी को जानने वाले कम ही लोग उनकी कुछ खूबियों से वाकिफ होंगे। आज की पत्रकारिता की सबसे अहम जरुरत को उन्होंने तीन दशक पहले भांप लिया था और अपने सभी शिष्यों को कम से कम दो भाषाओं का पर्याप्त ज्ञान रखने की सलाह देते थे और मेहनत करवाते थे।
हिन्दी अंग्रेजी में बराबर काम कर सकने की खूबी रखने वाले कितने पत्रकार उनकी नर्सरी के ही हैं। इनमें खुद इन पंक्तियों का लेखक, दीपक शर्मा, राजेश नारायण सिंह, वीरेंद्रनाथ भट्ट और न जाने कितने नाम हैं। उदय सिन्हा को अंग्रेजी, हिन्दी, बांग्ला, उड़िया, असमी भाषाएं आती थीं।
हो सकता है और भी आती हों पर मैने इतनी भाषाओं को उन्हें बोलते, पढ़ते देखा सुना। प्रसारण के लिए अद्भुत थी उनकी आवाज कम से कम हिन्दी व अंग्रेजी के लिए। कभी कभार रेडियों पर उन्हें सुनना अमिताभ बच्चन से भी बेहतर लगता था।
महज रस्म निभाने के लिए मातहतों से संबंध नही रखे उदय जी ने बल्कि सुख दुख में हमेशा खड़े हुए। तमाम लोगों की शादियां करवाना, प्रेम संबंधों में आयी अड़चने दूर करना, घरेलू विवाद निपटाना और पता नही क्या क्या।
आज आखिर सफर पर निकल गए हैं उदय जी
तमाम लोग उन्हें याद कर रहे हैं। जाना सबको है ये शाश्वत है। पर इतनी जल्दी कि हर कोई कहें कि यूं जाना भी कोई जाना है उदय जी ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )