Wednesday - 30 October 2024 - 10:09 AM

EARTH DAY : सभ्यता की दृष्टि सर्वाधिक दरिद्र है, वह विभेद का उत्सव मनाती है

डॉ श्रीश पाठक 

हमारी देह में भीतर-बाहर अरबों जीव पल रहे। वे हमारे अस्तित्व से अनभिज्ञ होंगे या सम्भवतः  उन्हें एहसास भी हो। हमारी यह देह उनके लिए किसी ब्रह्माण्ड से कम नहीं।

यह पूरा ब्रह्माण्ड इतना अधिक विशाल है कि यह हमारे कल्पना के अनंत से भी कई गुना अनंत है। कई संतों ने कल्पना की है कि हम उस नेति-नेति अस्तित्व के एक अंश हैं। हम उसके विशाल देह के एक अंश हो सकते हैं।

अस्तित्व की सूक्ष्म यात्रा करें और कोशिकाओं के पार जाने की कोशिश जो दृश्य रचती है वह इस अनंत आकाश के वृहद् अंतरिक्ष यात्रा के सदृश जान पड़ती है।

इतना तय लगता है कि न तो हम अकेले हैं और न ही हमारी चेतना का निर्माण किसी आइसोलेशन में महज हमारे ईगो पर आधारित है। सबकुछ अन्तर्सम्बद्ध (INTERCONNECTED) है।

हम कुछ-कुछ उस अँगूठे की तरह हैं जो उपयोगिता के आधार पर स्वयं को सबसे शक्तिशाली मानने लग जाये और उसे कभी पता ही न चले कि दरअसल वह, राम का अँगूठा है और वह राम के बिना नहीं है और राम भी उस जैसों के बिना नहीं है।

यह पृथ्वी हमारी केवल माँ नहीं है जिसने हमें जना है। बल्कि हम इसके गर्भ में ही हैं और वहीं हैं। इस गर्भ के माध्यम से हमारा तार पृथ्वी के प्रत्येक तंतुओं से सम्बद्ध है। हाथी इसे समझता है। प्रकृति के ढेरों जानवर, पादप इसे समझते हैं। हाथी, अल्ट्रूइज्म को मानता है। स्वार्थ, जाना ही नहीं इसने। जब कोई दो, अलग हैं ही नहीं तो स्वार्थ की गुंजायश ही कितनी।

मूढ़ हम इसे समझें या न समझें; पृथ्वी का ख्याल रखना वॉलनटरी नहीं है। एक इंसान के तौर पर पिछली दो-तीन शताब्दियों ने होमो सेपियंस को यह घमंड दे दिया है कि वह इस जगत का सबसे काबिल प्राणी है। यहीं से विनाश शुरू हुआ, हम अपने गर्भ को नुकसान पहुँचाने लगे और यह मूर्खतापूर्वक जारी है।

सभ्यता की दृष्टि सर्वाधिक दरिद्र है, वह विभेद का उत्सव मनाती है और बहुधा वह वाह्य प्रगति को सब कुछ मानती है। संस्कृति, को स्वार्थ की हवस से उपजे बाजार ने सुखा दिया। धर्म, महज रिचुअल्स का कंकाल बन डरावना बनता गया और अब हम अपने गर्भ को ही नोचते जा रहे।

जागना होगा, प्रत्येक ईगो छोड़ना होगा, इस अनंत अस्तित्व से जुड़े अपने सभी तारों को पहचानना होगा, महसूस करना होगा और एक बार फिर बूँद का सागर बनना होगा। पृथ्वी का ख्याल तभी रखा जा सकता है जब ‘सब-कुछ’ को अपना ‘सब-कुछ’ ही समझा जाय और महसूस किया जाय।

उलटबाँसी कहने वाले संत कबका कह गए:

जोई जोई पिंडा, सोई ब्रह्मंडा!

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