के पी सिंह
गुजरात में एक सप्ताह से भी कम समय में दलित दूल्हों की बारात रोकने के लिए उन पर हमले की चार घटनाएं सामने आ चुकी हैं। गुजरात वह राज्य है जिसे विकास के सबसे सुनहरे मॉडल के रूप में पेश किये जाने की वजह से नरेन्द्र मोदी देश की सत्ता के सिंहासन पर पहुंचने में कामयाब हुए है। एक ऐसा देश जो विश्व गुरू बनने की महत्वाकांक्षा के लिए बेचैन हैं। वह दुनिया को कौन सा पाठ पढ़ाना चाहता है। एक ऐसा देश जो दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति बनने का सपना संजो रहा है उसे यह सोचना पड़ेगा कि बड़प्पन की अनिवार्य शर्त सुसंस्कृत होना है। क्या इस तरह की घटनाएं देश पर जंगलीपन का टीका नहीं लगाती हैं।
गुजरात के पहले उत्तर प्रदेश में भी सांस्कृतिक राष्ट्र के दावेदारों की सरकार आने के बाद अलीगढ़ में इस तरह की बर्बर घटना सामने आ चुकी है। जब दलित दूल्हा भारी पुलिस इंतजाम के बाद घोड़े पर चढ़ने का अरमान पूरा कर पाया था। भारत सरकार के समाज कल्याण आधिकारिता मंत्री थावर चन्द्र गहलोत मध्य प्रदेश से आते हैं। जब मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह सरकार थी अम्बेडकर जयंती के एक आयोजन में इन्हीं स्थितियों को लेकर उनका भाषण बहुत मार्मिक हो गया था। उन्होंने कहा था कि दलित जिस तालाब को खोदते समय उसमें लघु शंका करते हैं उसी तालाब का पानी उन्हें बाद में नहीं पीने दिया जाता। दलित नक्काशी करके जिस भव्य मंदिर को बनाते है उसी में उनका प्रवेश वर्जित हो जाता है।
किसी के प्रति नफरत और हिकारत फैलाना धर्म नहीं कहा जा सकता। आस्था के नाम पर किसी को भी इसका प्रचार करने की छूट नहीं दी जा सकती। लेकिन यह एक ऐसा अनोखा देश है जिसमें ऐसी पुस्तकों के विरोध में कुछ बोलना पाप माना जाता है। लेकिन सच्चाई यह है कि ऐसी पुस्तकों का प्रचार करना ईश्वर के अपमान करने के बराबर है। स्पष्ट है कि पापी वे लोग हैं जो लगातार अपने इन कार्यो से ईश्वर का अपमान करने में लगे हुए है।
भारत जैसे देश की विडम्बना यह है कि यहां पापियों ने ईश्वर को हाईजैक कर रखा है। यहीं वजह है कि आजादी के इतने सालों बाद भी यहां मनुष्यता का सम्मान करने की समझदारी विकसित नहीं हो पायी है। वैसे तो यह किसी एक सरकार के दौर की बात नहीं है लेकिन जिस सरकार में कालनेमियों के वर्चस्व को जाने अनजाने में प्रोत्साहन मिलता है। उसमें राष्ट्रीय गौरव को कलंकित करने वाली ऐसी घटनाएं बढ़ जाती हैं।
सोशल मीडिया आज समाज की मुख्यधारा के चिंतन को प्रतिबिम्बित करने वाले आइने के रूप में स्थापित हो चुकी है। यह संयोग नहीं है कि पिछले चार पांच वर्षो में सोशल मीडिया पर उस दम्भ को लगातार प्रोत्साहित किया जा रहा है जो जाति के आधार पर अन्याय करने के लिए उकसाता है। सोशल मीडिया पर भारतीय होने पर गर्व जताने का ट्रेंड लगातार दर किनार किया जा रहा है। वे प्रतीक और रौल मॉडल सामने लाये जा रहे हैं जिनसे जाति विशेष का गौरव स्थापित हो। यहां तक कि ईश्वर का चेहरा भी जाति विशेष तक सीमित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। क्या ईश्वर के आच्छादन को सीमित करने से बड़ा कोई पाप हो सकता है। क्या पहचान की बड़ी राष्ट्रीय लाइन को जाति की छोटी लाइन से काटना दूरगामी तौर पर देश द्रोह जैसा काम नहीं है।
दुनिया प्राकृतिक न्याय से संचालित होती है। न कि किसी वर्ग की हठधर्मिता से भले ही वह वर्ग कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो। इसीलिए वर्तमान सत्ता संरचना एक कोलाज की तरह नजर आ रही है। जिसमें कई विरोधाभासों के रंग देखने को मिलते हैं।
छदम धार्मिक मान्यताऐं अजीबो गरीब विश्वासों का संचार समाज में करती रही हैं। जाति के आधार पर किसी के लिए यह कहना कि सबेरे उसका मुंह नहीं देखा जाना चाहिए किसी अन्य जाति को नीचा दिखाने के लिए कुछ और कहना। लेकिन वास्तविक धर्म प्राकृतिक न्याय है। जो कहता है कि जाति के आधार पर कोई व्यक्ति न जन्मजात योग्य होता है और न अयोग्य। अगर ऐसे समाज को उसकी योग्यता और क्षमताओं की वजह से उस व्यक्तित्व को अपना मसीहा स्वीकार करना पड़ता है जिसका मुह देखना भी धार्मिक विश्वास के आधार पर वर्जित रखा गया हो तो प्राकृतिक न्याय की विजय को स्वयं सिद्ध मान लेना चाहिए।
बिडंवना यह है कि एक ओर समाज अपने गलत विश्वास के मामले में घुटने भी टेक रहा है। दूसरी ओर वह यह भी वहम पाले हुए है कि देश का यह बदलाव कुछ वर्गो के वर्चस्व की प्रतिगामी व्यवस्था के पुनरूत्थान के लिए। पुण्य की ओर जाने के लिए व्यवस्था के नाम पर पाप की आदतें अगर छोड़ी जा सकें तो किसी वर्ग का जाति के आधार पर मान मर्दन करने की घटनाऐं अपने आप बंद हो जायेगीं।