Monday - 28 October 2024 - 9:33 PM

बड़े अदब से : अथ कुर्सी कथा

प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव

जीरो बिजली बिल करने की सभी आमचीन नामचीन पार्टियों में होड़ सी लगी हुई थी। ऐसी ही एक चुनावी सभा की तैयारियां जोरों पर थीं। पुलिस का बंदोबस्त जबर्दस्त था।

महाराजा टाइप की कुर्सियां मंच पर अगल-अगल बगल में रख दी गयीं। सभा शुरू होने में काफी वक्त बाकी था। थोड़ी देर में कुर्सियों के आसपास मक्खियां भिनकने लगीं।

मंच के सामने भी मक्खियां भिनक रही थीं।… कुर्सियों के पास काफी वक्त था, सो बातचीत शुरू हो गयी, ‘अरे, तुम भी आयी हो! चलो अच्छा है। ट्रक में लदे-लदे पांव सूज गये थे। क्या बात है जी, तुम आजकल दिखायी नहीं दे रही हो! कहां रहती हो?”‘क्या बताऊं बहन, अपनी तो किस्मत ही खराब है। पहले मुझे एक नेताजी ले गये थे बाजार से खरीद कर। तब मैं ताजी-ताजी जवान हुई थी।

चूलें भी टाइट थीं। क्या मखमली कपड़ा पहनाया गया था मुझे। देखने वाला लार टपकाने लगता। उस पर हसीन सा, नर्म सा कुशन। स्पर्श से ही कलेजे को ठंडक पहुंचती।

नेताजी बड़े ही प्यार से मुझे रखते। रोज अगरबत्ती घुमाते। मेरी पूजा करते। दायें-बायें देखकर, झट से पांव भी छू लेते। हर मंगल को गंगाजल छिड़कते।

बहन, एक बात माननी पड़ेगी। नेताजी की पत्नी भले ही बैकलेस पहनती थीं लेकिन मेरी पीठ कभी खुली नहीं रहने दी उन्होंने। हमेशा लकदक सफेद रोयेंदार तौलिया ओढ़ा के रखा।

कभी-कभी तौलिया गिर जाता तो तुरन्त दुरुस्त कर देते।… पर कहते हैं न, तकदीर हमेशा एक जैसी नहीं रहती।…नेताजी के दुर्दिन आ गये। कोई कालाधन संचय योजना में अन्दर गये तो बाहर नहीं आये।

घर वालों ने मुझे मनहूस मानते हुए धक्के देर कर निकाल दिया। नेताजी के एक सगे वाले ने मुझे बाजार में ला बैठाया। अब टेंट हाउस के पास हूं।

आये दिन मेरा सौदा होता है। गंदे-गंदे हाथ मुझे जहां-तहां उठाकर रखते हैं। कभी दिल चाहा तो पोछा वर्ना यूं ही छोड़ दिया। ऐसे-ऐसे लोग मेरे ऊपर आकर लदते हैं कि क्या बताऊं। कभी-कभी तो सारा मेन्यू पता चल जाता है कि किस रेस्टोरेंट का है।”…

‘बहन, लोग भले ही मुझे महाराजा चेयर कहते हैं लेकिन अपना हाल तो महाराजिन से भी बत्तर है। कल की घटना याद कर दिल मुंह में आ जाता है।

एक चुनावी सभा में गयी तो वहां किसी बात पर एक ही पार्टी के दो धड़ों में तू-तू मैं-मैं होने लगी। किसी ने मुझे भी हवा में उछाल दिया। वह तो टेंट हाउस के उस बंदे का भला हो जिसने मुझे अपनी पीठ पर झेल लिया। वह भी भाग रहा था अपनी जान बचाकर। फिर मैंने उसे और एक नेताजी को अपने नीचे छिपा लिया। तभी पुलिस आ गयी। पुलिस के आते ही सभी भाग खड़े हुए। एक पुलिस वाले की नीयत मुझपर खराब हो गयी।

उसने चुपके से एक रिक्शा रोका और  लाद लिया। वह तो मालिक की नजर पड़ गयी। बच गयी वर्ना मैं तो लुट ही जाती। सॉरी बहन, मैं तो अपनी ही दास्तां लेकर बैठ गयी। और सुनाओ, तुम्हारे हाल-चाल कैसे हैं?”

अब तक अपना मुंह खोले दर्द भरी दास्तां सुन रही दूसरी कुर्सी ने लम्बी सांस ली और  धीरे से बोली- ‘यह देखकर कितना खराब लगता है कि हमारी खातिर लोग एक दूसरे के खून के प्यासे बने हुए हैं।

चार टांग की कुर्सी की चाहत में दो टांग वाला इतना अंधा हो गया है कि खून को खून से लड़ा रहा है। एक नेता तो हर इलेक्शन में अलग अलग रंग की टोपी और पटका पहनकर मुझ पर आ बैठता है। हमें भी जाति के बंधन में न चाहते हुए बांधा जा रहा है। हम कहीं सामान्य तो कहीं सुरक्षित हैं।

अभी हमारा सामान्य के साथ सामंजस ठीक से बैठ भी नहीं पाता, सुरक्षित का ठप्पा लगा दिया जाता है। बस नाम के लिए सुरक्षित हैं। हम पर कीचड़ उछाला जाता है। हम पर दाग लगाये जाते हैं।”

…तभी उसकी आंखें टंग गयीं। आवाज घुट गयी। कालाधन खाया पिया नेता अपना आसन कुर्सी पर जमा चुका था। अब कुर्सी के लिए, कुर्सी पर बैठकर, कुर्सी का खेल शुरू होने वाला था।…

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं) 

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