धनंजय कुमार
नीतीश कुमार एक बार फिर चर्चा में हैं। नीतीश कुमार को लेकर चर्चाएं तब से चल रही हैं, जबसे नरेंद्र मोदी बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित किए गए।
वह 2014 के लोकसभा के चुनाव से पहले इसी बात बीजेपी से अलग हुए और लोकसभा चुनाव अकेले लड़े। उन्हें गुमान था पिछले 9 साल से बिहार के मुख्यमंत्री हैं।
उनका कामकाज ठीक है और जनता उन्हें चुनेगी, लेकिन हुआ उल्टा। सवर्णवादी बीजेपी के साथ रह गये, मुसलमानों ने लालू जी की पार्टी को छोड़ा नहीं और नीतीश कुमार दोतरफा मारे गये।
लोकसभा में महज दो सीट मिली, नालंदा सीट भी बड़ी मुश्किल से जीत पाए। दूसरी तरफ, नरेंद्र मोदी को देशभर में भारी सपोर्ट मिला; बिहार में भी 22 सीटें मिलीं बीजेपी को और 9 सीटें उनके सहयोगियों रामविलास पासवान और उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी को मिलीं। नीतीश कुमार को समझ में आ गया कि सवर्ण और मुसलमान दोनों उनके साथ नहीं आएंगे।
सवर्णों से वोट लेने के लिए जरूरी था कि नीतीश बीजेपी की शरण में जाएँ, लिहाजा एक साल बाद होनेवाले विधानसभा चुनाव वे लालू के साथ हो लिए। नीतीश-लालू महागठबंधन को भारी बहुमत मिला और बीजेपी महज 53 सीटों पर सिमट गई। नीतीश कुमार की पार्टी जदयू को 71 सीटें मिलीं। जबकि पिछले विधानसभा चुनाव यानी 2010 के चुनाव में बीजेपी को 91 सीटें मिलीं थीं और नीतीश जी की पार्टी को 115 सीटें। तब लालू की पार्टी 22 सीट पर सिमट आई थी। लेकिन 2015 के चुनाव में लालू जी की पार्टी को 80 सीटें मिलीं। इस बार भी सवर्णवादियों ने नीतीश का साथ नहीं दिया, लेकिन मुसलमानों ने नीतीश कुमार को वोट दिया।
बिहार में आज भी चुनाव बिना जातीय समीकरण के लड़ा नहीं जा सकता। नीतीश कुमार जानते हैं जिस जाति से वो आते हैं, उनकी संख्या कम है और कुशवाहा वोट भी मिला दें तो काम भर जीत नहीं मिलेंगी।
हालांकि नीतीश कुमार को लगा था कि काम के बल पर जातियों की सीमा तोड़कर उन्हें वोट मिलेगा। क्योंकि अपराध पर नियंत्रण बनाए रखा था, नीतियाँ बनाते समय महिलाओं के लिए कई सारे काम किए थे।
लेकिन नीतीश कुमार जाति से बिहार चुनाव या कहिए बिहार की राजनीति को उबार नहीं पाए। हालांकि, जातिवादी होने का आरोप उनपर न लगे इसके लिए नीतीश कुमार शुरू से सतर्क रहे।
और यही वजह रही कि मुख्यमंत्री बनने बाद कुर्मी के नाम पर किसी गुंडे या दबंग को उठने नहीं दिया। सबसे दूरी बनाए रखी और सबको सदेश देते रहे कि गुंडई या दबंगई नहीं चलेगी।
जातीय सोच के साथ कहें तो बिहार में पिछले 17 साल से कुर्मी का शासन है, लेकिन कोई आजतक कभी किसी कुर्मी गुंडे या दबंग का नाम नहीं उभरा। जबकि लालू राज में यादव और मुस्लिम गुंडों और दबंगों की धूम रही, या उनसे पहले कांग्रेस राज में सवर्ण गुंडों और दबंगों का बोलवाला रहा। नीतीश राज में नीतीश ने सभी जात के गुंडों और बाहुबलियों पर नियंत्रण रखा। इसीलिए गृहमन्त्रालय सदा अपने ही पास रखा।
नीतीश कुमार ने एक और मामले में हमेशा सतर्कता बरती, वो मामला है सांप्रदायिक सद्भाव का। बीजेपी के कुछ नेताओं ने लगातार कोशिश की बाकी देश की तरह बिहार में भी रामनवमी, दुर्गापूजा, गौहत्या, मंदिर, अजान या तिरंगा को लेकर सांप्रदायिक उन्माद खड़ा किया जा जाए, लेकिन नीतीश कुमार ने हमेशा अपना धर्मनिरपेक्ष स्वभाव बनाए रखा।
और उस मुद्दे को लेकर बीजेपी के साथ लगातार रार ठाने रहे। हालांकि बीजेपी के नेताओं को लगातार इस बात का बुरा भी लगता रहा; 2020 के विधानसभा चुनाव में इसी वजह से चिराग पासवान को नीतीश कुमार के खिलाफ भड़काया और उतारा। और सुनियोजित तरीके से नीतीश कुमार को कमजोर किया गया।
आँकड़े बताते हैं कि बीजेपी के साथ गठबंधन के बाद भी सवर्णवादियों के वोट नीतीश कुमार को नहीं मिले। जहां नीतीश कुमार की पार्टी के उम्मीदवार खड़े थे वहाँ सवर्णवादियों ने पासवान की पार्टी को वोट दिया, ताकि नीतीश औकात में रहें।
नीतीश कुमार पिछले 17 साल से भले मुख्यमंत्री हैं, लेकिन यह सवर्णवादियों की मजबूरी है, यही कारण है कि सवर्णवादियों ने कभी भी नीतीश कुमार को किसी बात का श्रेय नहीं दिया और हमेशा मानते रहे कि नीतीश कुमार बीजेपी की वजह से मुख्यमंत्री बने हैं। इसलिए जबतब बीजेपी के नेता को मुख्यमंत्री बनाने की मांग करते रहे/लालसा पालते रहे।
लालू प्रसाद के साथ भी नीतीश कुमार की नहीं निभी, क्योंकि राबड़ी कुनबा और यादवों को लगता रहा कि नीतीश कुमार उनकी मेहरबानी से मुख्यमंत्री बने हैं। इसलिए तेजस्वी नीतीश को हमेशा जलील करते रहे- पलटू चाचा कहते रहे। ऐसा कहते हुए वे भूल गए कि 22 सीट से 80 पर पहुंचाने और राज्य की राजनीति में उन्हें स्थापित करने में नीतीश कुमार की बड़ी भूमिका थी।
पिछले विधानसभा चुनाव में चिराग को विरोध करने दिया, इसके पीछे भी यही रणनीति थी नीतीश की कि तेजस्वी स्थापित हों। नहीं तो नीतीश चाहते तो चिराग को पुचकार कर उनका हिस्सा दे देते और फिर तेजस्वी की पार्टी को 22 के आसपास ला खड़ा करते। हालांकि ये भी सच है कि नीतीश कुमार ने बीजेपी के बढ़ते वर्चस्ववाद को समय पड़ने पर चुनौती देने के ख्याल से ये सब किया।
वह जानते थे कि बीजेपी आगे भी कभी खेल कर सकती है, लेकिन अगर लालू की पार्टी मजबूत रही, तो बीजेपी पर लगाम लगा रहेगा। नीतीश कुमार को कम सीटें आई फिर भी बीजेपी नीतीश कुमार को नेता बनाए रखने को मजबूर है तो इसलिए कि राजद मजबूत हालत में है। राजद अगर कमजोर होता तो आज नीतीश कुमार निबटाए जा चुके होते।
नीतीश कुमार को इसीलिए मैं आज के दौर का सबसे बड़ा राजनीतिज्ञ मानता हूँ; उनको संतुलन बनाना खूब अच्छे से आता है। समाज में जातियों का समीकरण देखें तो यादव-कुर्मी कभी एक नहीं हो सकते।
यादव संख्या में अधिक हैं इसलिए पिछड़ों में कुरमियों को भी वह अपने से नीचे रखना चाहते हैं, जबकि कुर्मी मानते हैं कि वो संख्या में भले कम हैं लेकिन विकास की दौड़ में यादवों से आगे हैं, कम तो बिल्कुल नहीं। कुशवाहा जाति के साथ भी यही बात है। वो भी यादवों से पीड़ित हैं। लिहाजा दोनों जातियाँ यादवों के बजाय सवर्णों के साथ जाना ज्यादा पसंद करती हैं।
हालांकि सवर्णों का व्यवहार कुरमियों और कुशवाहों के साथ भी भेदभाव वाला और अपमानजनक है, लेकिन यादवों के साथ उन्हें ज्यादा असहजता है, क्योंकि संख्या में सवर्ण कम हैं इसलिए सत्ता समीकरण में पिछली जातियों से कुरमियों और कुशवाहों का साथ बर्दाश्त कर लेते हैं। बीजेपी इस बात को जानती है, इसीलिए नीतीश कुमार को वह झेल रही है। वह नीतीश कुमार की पार्टी जदयू पर गिद्ध दृष्टि लगाए है, जानती है नीतीश कुमार के खत्म होने के बाद उनकी पार्टी और उनके वोट बैंक बीजेपी के साथ ही आएंगे। लालू के साथ निबाह नीतीश कुमार तक ही है।
नीतीश कुमार भी यह बात समझते हैं, लेकिन उनकी दिक्कत है, उनकी जाति या समर्थक जातियों में ऐसा एक नेता नहीं है, जो बीजेपी या राजद की चुनौतियों को सत्ता के लिए साध पाए।
लेकिन नीतीश कुमार के पास अब ज्यादा समय नहीं है। इसलिए जरूरी है कि कोई ऐसा नेता चुने जिसे वो गढ़कर अपने जैसा बना सकें। आर सी पी सिंह को गढ़ने की कोशिश की थी, लेकिन आर सी पी सिंह बीजेपी के ‘चिराग’ बन गए। आज यही कारण है कि नीतीश आरसीपी के साथ नहीं है। और यह ये भी बताता है कि नीतीश अपना उत्तरधिकारी तलाश रहे हैं।
और वो उतराधिकारी कोई कुर्मी हो। क्या ये संभव है? नीतीश कुमार अगर ऐसा कर पाए तो ऐतिहासिक नेता माने जाएंगे। आगे यही उनकी चुनौती है। उत्तराधिकारी कौन? बीजेपी या तेजस्वी या कोई कुर्मी नेता। कोई नहीं मिला तो किसी कुशवाहा को आगे बढ़ा सकते हैं, लेकिन फिलहाल कुशवाहा में भी कोई दिखता नहीं।
नीतीश कुमार अगर उत्तरधिकारी तलाश पाने में नाकाम रहे तो संभव है वो अपनी पार्टी कॉंग्रेस को सौंप कर जाएँ। और आखिरी पारी में कांग्रेस के साथ जा खड़े हों। क्योंकि उनके पिता कांग्रेसी थे। कुर्मी जाति भी नीतीश से पहले काँग्रेस के साथ थी। तो सवाल है क्या अगले चुनाव में नीतीश कांग्रेस के साथ जाएंगे? बीजेपी के साथ नहीं होंगे ए तो पक्की बात है।