डॉ. उत्कर्ष सिन्हा
जब जब कोई जाति आधारित समाज अपनी हिस्सेदारी को ले कर चैतन्य हुआ है, तब तब सत्ता के समीकरणों का बदलाव साफ दिखाई देता है।
जैसे जैसे यूपी के विधानसभा के चुनाव करीब आ रहे हैं, जातीय गोलबंदी भी बढ़ती जा रही है। फिलहाल हवा में ब्राहमण कार्ड का शोर है मगर हर नेता को मालूम है कि सत्ता की कुंजी पिछड़ो के पास है।
कुलीन समाज 2017 के चुनावों को भले ही मोदी मैजिक का असर बताते हुए कहता हो कि मोदी के कारण जाति बंधन टूटे मगर राजनीतिक पंडितों के हिसाब से इस जीत का कारण गैर यादव ओबीसी मतों का संग्रहण था जिसने भाजपा के वोट प्रतिशत को अचानक 14 प्रतिशत की उछाल दे दी थी। भाजपा की इस जीत में राजभर, कुर्मी, निषाद और मौर्या समाज के वोटों की बड़ी भूमिका रही।
यूपी में जातीय हिस्सेदारी का नारा नया नहीं है। साथ के दशक में डा. लोहिया के नारे ‘पिछड़ा पाए सौ में साठ’ के नारे को 90 के दशक में काँसीराम ने “जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी” के जरिए इतना आगे बढ़ दिया कि मायावती चार बार मुख्यमंत्री बन गईं।
इस बार भाजपा के सामने अपने पिछले समीकरण को बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है। राजभर गठबंधन से बाहर है और कुर्मी भी एकसाथ नहीं दिखाई दे रहा। इस बीच सूबे की सियासत में निषाद एक बड़े वोट ब्लाक के रूप में उभर रहा है। फिलहाल निषाद समाज के बीच बड़ा नेता बनने की होड़ लगी है।
दलित और ओबीसी राजनीति करने वाले हर दल के सामने आरक्षण हमेशा एक बड़ा सवाल रहता है। ताजा उदाहरण महाराष्ट्र है जहां मराठा आरक्षण खत्म करने के कोर्ट के फैसले ने राजनीति के समंदर में लहरों को ऊंचा उछाल दिया था।
खबर ये है कि संसद के वर्तमान सत्र में मोदी सरकार एक ऐसा बिल लाने की तैयारी में है जिसके जरिए वो एक तीर से कई शिकार करेगी। ये बिल पिछड़ो के आरक्षण की मांग को और मजबूती देगा जिसके जरिए यूपी जैसे बड़े राज्य में भाजपा ओबीसी वोटों के बिखराव को रोकने में कामयाब होगी।
दरअसल मोदी सरकार संविधान के 102 वें संशोधन को बदलने का बिल लाने वाली है, जिसके जरिए हर राज्य अपने अनुसार ओबीसी वर्ग को चिन्हित कर सकेगा। इसके लिए सामाजिक न्याय मंत्रालय ने एक कैबिनेट नोट भी तैयार कर लिया है। इस नोट के अनुसार बनने वाले बिल में यह प्रावधान होगा कि राज्य अपने क्षेत्र में किसी जाति को पिछड़ा वर्ग के अंदर ले सकता है।
5 मई 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने मराठा आरक्षण को असंवैधानिक करार दे दिया था और उसके बाद ही राज्यों द्वारा पिछड़े वर्ग के निर्धारण की शक्तियां भी खत्म हो गई थी। यानि पिछड़े वर्ग में किसी जाति को लेने का फैसला केंद्र और राज्य नहीं बल्कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के पास सुरक्षित हो गया था।
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यह व्यवस्था भी मोदी सरकार ने ही 2018 में की थी। और संविधान के 102वे संशोधन के जरिए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग बनाया गया जिसपर राष्ट्रपति ने संसद की मंजूरी के बाद इस संविधान संशोधन पर हस्ताक्षर कर दिए।
लेकिन इस फैसले के बाद सरकारों के सामने एक राजनीतिक मुश्किल भी खड़ी हो गई। उसके हाँथ से आरक्षण देने की शक्ति निकल गई।
मानसून सत्र में इस बिल को लाने से मोदी सरकार को दो बड़े फायदे होने हैं। पहला इस बिल के पास हो जाने के बाद यूपी की भाजपा सरकार अपने समीकरणों के अनुसार कुछ जातियों को पिछड़े आरक्षण का लाभ दे कर अपने सबसे प्रबल प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी को चित्त कर सकती है और दूसरी तरफ राजभर और निषाद सरीखे वोटों पर जातीय नेताओं का वर्चस्व खत्म कर उन्हे अपने अंदर समेट सकती है।
और दूसरा फायदा यह होगा कि फिलहाल पेगासस जासूसी कांड, किसान आंदोलन और कोरोना की असफलता सहित कई मुद्दे पीछे चले जाएंगे, चुनावी बिसात पर जातीय समीकरण एक बार फिर भारी पड़ेंगे।
नरेंद्र मोदी अपने अचानक लिए फैसलों से हमेशा विपक्ष को मात देते रहे हैं। यदि वे एक बार फिर ऐसा करे तो आश्चर्य नहीं होगा। वैसे भी 5 अगस्त का दिन करीब आ रहा है और बीते कई सालों से यह दिन मोदी के बड़े राजनीतिक दांव लगाने वाले दिन के रूप में पहचान जा रहा है।