यशोदा श्रीवास्तव
उम्मीद की जानी चाहिए कि पंजाब के नवनियुक्त मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी कैप्टन अमरिंदर सिंह की तरह एक बेहतर और सर्वमान्य मुख्यमंत्री साबित होंगे. कैप्टन के बाद तमाम नामों पर चर्चा हुई लेकिन फैसला तीन बार के विधायक , कैप्टन सरकार में मंत्री और सरकार से बाहर रहते हुए नेता प्रतिपक्ष रह चुके चन्नी के नाम पर आलकमान की मुहर लगी.
चन्नी दलित सिख समुदाय से आते हैं.चुनाव के कुछ माह पहले कांग्रेस ने चन्नी पर दांव लगाया जब पंजाब की राजनीति में शिअद और आम आदमी पार्टी दलित कार्ड खेलने की रणनीति फाइनल कर चुकी थी.
नए मुख्यमंत्री चन्नी आसन्न विधानसभा चुनाव में क्या कुछ कर पाते हैं यह बाद की बात है. अभी फिलहाल कैप्टन के बिना पंजाब में कांग्रेस के हाल पर गौर करें.
पंजाब कांग्रेस के लिए अकेला ऐसा प्रांत है जहां से उसे देश में या देश के अन्य प्रदेशों में सत्ता पक्ष से लड़ने की उर्जा मिलती है. यहां पिछले दो दिनों की घटनाओं को देखें तो शायद स्पष्ट रूप से कुछ भी कह पाना जल्दबाजी होगी. लेकिन यह तय है कि यदि कैप्टन अमरिंदर सिंह कांग्रेस से नजर फेर लिए तो समझो पंजाब कांग्रेस के हाथ से उड़ ही गया.
मुख्यमंत्री पद से स्तीफा दे चुके कैप्टन अमरिंदर सिंह को दूसरे दलों द्वारा कैच करने ही होड़ लग गई लेकिन वे ऐसी गेंद भी नहीं हैं जो आसानी से दूसरे के पाले में चले जांय? हालांकि मीडिया कयासबाजी से भर गई है.आखिर क्यों पंजाब, गुजरात और उत्तराखंड की एक जैसी घटना पर मीडिया की राय एक जैसी नहीं है?
गुजरात और उत्तराखंड में नेतृत्व परिवर्तन को मीडिया मास्टरस्ट्रोक की दृष्टि से देख रहा है जबकि पंजाब की घटना को कांग्रेस में घोर आंतरिक कलह जैसा मान रहा है.पंजाब कांग्रेस में अंतरकलह जगजाहिर है लेकिन गुजरात और उत्तराखंड के अपदस्थ मुख्यमंत्रियों ने तस्तरी में रखकर सत्ता का हस्तांतरण कर दिया हो,ऐसा भी नही है.सत्ता और विपक्ष की राजनीतिक घटनाओं पर अपनी राय जाहिर करते वक्त मीडिया यह भूल जाता है कि यह पब्लिक है सब जानती है.
पंजाब जहां 1984 के सिख दंगो के बाद चार बार कांग्रेस की सरकार बनी हो उस बहादुर और समझदार प्रांत के बारे में एक कैप्टन के हटने पर कयासबाजी ठीक नहीं है.वह भी तब जब हर चुनाव में भाजपा की ओर से पंजाब के जांबाज मतदाताओं को सिख दंगे की याद दिलाने की पुरजोर कोशिश की जाती है.
मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद तकरीबन 89 साल के अमरिंदर सिंह काफी गुस्से में हैं. उनका गुस्सा नवजोत सिंह सिद्धू को लेकर है लेकिन जब वे सिद्धू को पाकपरस्त कहते हैं तो इसकी चोट कांग्रेस आलाकमान को जरूर लगती होगी क्योंकि सिद्धू को पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष कांग्रेस आलाकमान ने ही तो बनाया है.
माना कि सिद्धू कैप्टन साहब को नपसंद हैं फिर भी बहुमुखी प्रतिभा के धनी कैप्टन साहब को अपने ही अध्यक्ष के खिलाफ ऐसी तल्ख टिप्पणी से बचना चाहिए. कैप्टन साहब अभी कांग्रेस में हैं और पूरी इज्ज़त और सम्मान के साथ.
मीडिया के कयासबाजी को इग्नोर करने की जरूरत है. फिर भी मुख्यमंत्री पद गंवाने से आहत कैप्टन साहब यदि कांग्रेस भी छोड़ दें तो पंजाब में क्या बदलाव हो सकता है,इस बाबत कुछ कह देना,लिख देना भी जल्दबाजी होगी क्योंकि पंजाब के सिख राजनीतिक रूप से अपना हीरो बदलते रहते हैं.
पंजाब में विधानसभा चुनाव होने में पांच माह ही शेष है, ऐसे में कांग्रेस नेतृत्व के इस फैसले को साहस भरा कहें या जोखिम भरा,तय कर पाना मुश्किल है. यह भी तय कर पाना मुश्किल है कि अमरिंदर सिंह यदि बगावत पर उतर आते हैं, आम आदमी पार्टी या भाजपा ज्वाइन कर लेते हैं तो क्या सिद्ध और नए मुख्यमंत्री चन्नी उस सुनामी को संभाल सकेंगे या कांग्रेस उसमें बह जाएगी? घोर अस्पष्टता के बीच स्पष्ट बस ये है कि पंजाब का राजनीतिक भविष्य के गर्भ में है.
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पंजाब में जो कुछ हुआ वह अचरज करने वाला तो था लेकिन बिल्कुल अचानक भी नहीं हुआ.मुख्यमंत्री रहते कैप्टन साहब की मोदी भक्ति जगजाहिर है.
कई ऐसे मौके आए जब उन्होंने कांग्रेस की लाइन से अलग हटकर अपनी राय जाहिर की.सेंट्रल विस्टा के बारे में हाल के उनके बयान से कांग्रेस नेतृत्व की खूब किरकिरी हुई. फिरभी यह कहना उपयुक्त नहीं है कि भाजपा नेताओं से अमरिंदर की नजदीकियां कांग्रेस की नाराजगी की वजह रही.
लेकिन पंजाब की राजनीति में उनका”मैं”वाला वहम ताजा घटनाक्रम के लिए कहीं न कहीं एक कारण जरूर बना.कांग्रेस केवल कैप्टन के बयानों से असहज नहीं हुई, नवजोत सिंह सिद्धू ने भी अपने ऊलजुलूल बयानों से कांग्रेस नेतृत्व के समक्ष कम मुश्किलें नहीं खड़ी की.
सिद्धू प्रियंका गांधी के गुडफेथ में हैं. अध्यक्ष पद पर उनकी ताजपोशी प्रियंका की मर्जी पर ही हुई.सिद्धू की कैप्टन से कभी नहीं बनी.नए मुख्यमंत्री चन्नी सिद्धू के खास बताए जाते हैं.
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ऐसे में माना जाना चाहिए कि सिद्धू और चन्नी की जोड़ी पंजाब में कांग्रेस की 70 सीटों को बचाए रखने में कामयाब हो सकेगी.और अगर कुछ भी गड़बड़ हुआ तो तय मानिए इसका असर छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार पर पड़ने से कोई नहीं रोक सकता.
राजस्थान और छत्तीसगढ़ का भी मामला दूरूस्त नहीं दिख रहा.राजस्थान में सचिन पायलट का गुस्सा कभी भी फूट सकता है तो छत्तीसगढ़ में भूपेस बघेल और टीएस सिंहदेव के बिच का मामला सिर्फ शांत कराया गया है.खत्म नहीं हुआ.भगवान न करे कि पंजाब में कुछ गड़बड़ हो वरना आसन्न कई प्रदेशों के चुनाव में कांग्रेस कुछ कर पाएगी,कहना मुश्किल है.