यशोदा श्रीवास्तव
अहमदाबाद में संपन्न कांग्रेस वर्किंग कमेटी के दो दिवसीय सम्मेलन में यूं तो कई प्रस्ताव पारित हुए और तमाम विषयों पर चर्चा हुई लेकिन एक जो बड़ी चर्चा हुई वह है पार्टी के भीतर स्लीपर सेल।
इस विषय पर बोलने की शुरूआत राजस्थान की एक पूर्व आदिवासी महिला विधायक ने की तो कानपुर के सांसद प्रत्याशी रहे आलोक शर्मा ने खुलकर इसकी पोस्टमार्टम कर दी। अच्छी बात यह है कि कांग्रेस नेतृत्व ने इसे अच्छा माना और पार्टी अध्यक्ष खड़गे से लेकर सोनिया और राहुल गांधी ने इसका समर्थन करते हुए तालियां भी बजाई।
मुमकिन है स्लीपर सेल अन्य राजनीतिक दलों में भी सक्रीय हों लेकिन उन पर यह असर इसलिए नहीं पड़ता क्योंकि या तो वे सांगठनिक रूप से बहुत मजबूत हैं या फिर ऐसे भी हैं जो ये मानकर चलते हैं कि ऐसा तो चलता रहता है। लेकिन कांग्रेस की मुसीबत यह है कि वह पिछले कई सालों से स्लीपर सेल को ढो रही है।
ठीक है कांग्रेस को दिल्ली की कुर्सी पा लेना आसान नहीं है और अभी वह देश में इक्का दुक्का प्रदेश में ही सरकार में है लेकिन इसके पीछे कुछ प्रतिशत ही सही पार्टी के भीतर जगह बना लिए स्लीपर सेल की भूमिका से इन्कार नहीं किया जा सकता। कांग्रेस के उक्त सम्मेलन में कुछ हारे हुए प्रत्याशियों ने इशारों में ही सही अपनी हार के पीछे स्लीपर सेल की भूमिका का जिक्र किया है।
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अच्छी बात यह है कि राहुल गांधी पार्टी के भीतर के ऐसे आस्तीन के सांपों को पहचान गए। यही वजह है कि वे अपने हर मीटिंगों में स्लीपर सेल का जिक्र करते हुए खुला कहते हैं कि ऐसे लोग पार्टी से बाहर जा सकते हैं। अहमदाबाद के सम्मेलन में राष्ट्रिय अध्यक्ष खड़गे ने भी कहा जो काम नहीं कर रहे वे चले जायें या जो थक गए हैं वे रिटायरमेंट ले लें। राहुल गांधी और खड़गे के इस तरह खुला चेतावनी के बाद अभी तक पार्टी से किसी आस्तीन के सांप के बाहर आने की सूचना नहीं है लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि पार्टी इससे से मुक्त है।
कानपुर के सांसद प्रत्याशी रहे आलोक शर्मा जब कह रहे थे कि पार्टी संगठन का यह हाल है कि पदाधिकारी का चयन ऐसे परिवार के सदस्यों में से करते हैं जिसका सदस्य कांग्रेस में है,कोई भाजपा में और कोई सपा में है। जाहिर है वे बता रहे थे कि यही स्लीपर सेल है। अभी हाल ही पार्टी ने जिलों में जिलाध्यक्षों की सूची जारी की है और इन नवनियुक्त जिलाध्यक्षों से राहुल गांधी ने मुलाकात भी की है।
जिलाध्यक्षों की नियुक्ती पर ध्यान दें तो यूपी में ही ढेर सारे जिलाध्यक्षों का मनोनयन शीर्ष नेताओं की सिफारिश पर हुआ जान पड़ रहा है जिनकी जमीनी भूमिका शून्य ही रहेगी। कुछ तो ऐसे भी हैं जो कुछ माह पहले ही भाजपा से आए और जिलाध्यक्ष बन गए। यूपी में जिलाध्यक्षों के बेतरतीब मनोनयन के पीछे एक कारण यह समझ में आ रहा है कि यहां तमाम जिलों में कांग्रेस के ढंग के नेता ही नहीं है जिनसे राय ली जाय और जो हैं वे बड़े सलीके से स्लीपर सेल की भूमिका निभा रहे हैं।
2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस यूपी में 17 सीट पर ही लड़ी थी क्योंकि यहां सपा से उसका गठबंधन था। इस चुनाव में जहां कांग्रेस लड़ी वहां कांग्रेस के एक से एक पुराने नेता स्लीपर सेल की भूमिका में दिखाई दिए जो घूम तो रहे थे पार्टी प्रत्याशी द्वारा उपलब्ध कराए गए वाहनों में लेकिन वोट भाजपा के लिए मांग रहे थे। यूपी में कम से कम पांच सीटों पर कांग्रेस की हार में पार्टी के स्लीपर सेल की खतरनाक भूमिका रही है।
इनमें महराजगंज,देवरिया,बासगांव,अमरोहा और कानपुर का नाम लिया जा सकता है। इनमें एकाध जगह तो पूरी की पूरी जिला इकाई ही स्लीपर सेल की भूमिका में थीं। मानना पड़ेगा कांग्रेस भी बहुत मजबूत कंधे वाली पार्टी है। लोकसभा चुनाव में एक संसदीय सीट से कांग्रेस का एक सीनीयर नेता टिकट के लिए इसलिए आवेदन नहीं किया क्योंकि उसी के जाति वाले नेता को भाजपा उम्मीदवार बना रही थी। बाद में यह सीट सपा के खाते में चली गई थी जहां कांग्रेस के भितरघात के चलते सपा उम्मीदवार को मामूली वोटों से हार जाना पड़ा था। आखिर यही तो स्लीपर सेल है।
खैर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने देर से ही सही यदि अपने भीतर सक्रीय स्लीपर सेल को पहचान लिया तो यह अच्छी बात है लेकिन उसे इसकी छानबीन जिला स्तर से करनी होगी।
आने वाले कुछ महीनों में नौ प्रदेशों के विधानसभा चुनाव होने हैं। स्लीपर सेल की पहचान के बीच प्रदेशों के ये चुनाव पार्टी के लिए बहुत अहम है। इसी चुनाव में यह भी देखना है कि पार्टी ने अहमदाबाद सम्मेलन में तय किए गए अपनी रणनीति पर कितना अमल कर पाती है। इन चुनावी प्रदेशो में कांग्रेस का संगठन भी एक चुनौती है,क्योंकि पार्टी ने यह भी तय किया है कि प्रत्याशियों के चयन में जिलाध्यक्षों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी।