न्यूज डेस्क
दुनियाभर में कोरोना वायरस के संकट से सबसे ज्यादा प्रभावित देश अमेरिका में एक लाख छह हजार से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है और 18 लाख 59 हजार से ज्यादा लोग संक्रमित हैं। कोरोना महामारी से जूझते अमेरिका के सामने अश्वेतों के देशव्यापी उग्र प्रदर्शनों से एक नई समस्या खड़ी हो गई है। ना सिर्फ अश्वेत समुदाय के लोग बल्कि श्वेत भी इसे लेकर सड़कों पर हैं।
जॉर्ज फ्लॉयड नाम के एक अश्वेत व्यक्ति की दिनदहाड़े, लबेसड़क पुलिस के हाथों हुई मौत इन प्रदर्शनों की जड़ में है। अमेरिका के 40 शहर हिंसा की आग में झुलस रहे हैं। इसकी आंच वाइट हाउस तक पहुंच गई। वाइट हाउस के पास मामला इतना बिगड़ गया कि सीक्रेट सर्विस एजेंट्स राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को वाइट हाउस में बने सुरक्षात्मक बंकर में लेकर चले गए।
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हालात नियंत्रण से बाहर निकलते देख अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिकी मिलिट्री को उतारने का फैसला किया है। ट्रंप ने कहा कि मैंने इस देश के कानून को सबसे ऊपर रखने की शपथ ली थी और मैं अब बिल्कुल वही करूंगा।
My fellow Americans – My first and highest duty as President is to defend our great Country and the American People. I swore an oath to uphold the laws of our Nation — and that is exactly what I will do… pic.twitter.com/pvFxxi9BTR
— Donald J. Trump (@realDonaldTrump) June 2, 2020
उन्होंने कहा, ‘रविवार रात वॉशिंगटन डीसी में जो कुछ हुआ वह बेहद गलत है। मैं हजारों की संख्या में हथियारों से लैस सेना के जवानों को उतार रहा हूं। इनका काम दंगा, आगजनी, लूट और मासूम लोगों पर हमले की घटनाओं पर लगाम लगाना होगा।’
डोनाल्ड ट्रंप ने हिंसा के पीछे वामपंथी संगठनों को जिम्मेदार ठहराया है जिन्हें आमतौर पर Antifa कहा जाता है। ट्रंप ने आरोप लगाया है कि George के लिए शुरू हुए आंदोलन को हाइजैक कर लिया गया है और अब उन्होंने ऐसे लोगों को आतंकवादी घोषित करने का फैसला किया है।
उन्होंने ने एक ट्वीट में कहा, ”अमेरिका एंटिफा को आतंकवादी संगठन के रूप में घोषित करेगा।” मिनीपोलिस में जॉर्ज फ्लोयड की मौत के बाद देश भर में हिंसक प्रदर्शनों के अचानक बढ़ने का आरोप ट्रंप प्रशासन ने इस वाम चरमपंथी समूह पर लगाया है।
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गौरतलब है कि अमेरिका में फासीवाद के विरोधी लोगों को Antifa (anti-fascists) कहते हैं। अमेरिका में Antifa आंदोलन उग्रवादी, वामपंथी और फासीवादी विरोधी आंदोलन के लिए इस्तेमाल किया जाता है। ये लोग नव-नाजी, नव-फासीवाद, श्वेत सुपीरियॉरिटी और रंगभेद के खिलाफ होते हैं और सरकार के विरोध में खड़े रहते हैं। दक्षिणपंथी कार्यकर्ता या नेताओं को रोकने के लिए चिल्लाना, भगदड़ मचाना और मानव श्रृंखला बनाना इनकी पसंदीदा रणनीति है। हालांकि, जब ये रणनीतियां कामयाब नहीं होता है तब यह हिंसा और आगजनी का सहारा लेते हैं।
एंटीफा के गठन को लेकर कोई आधिकारिक जानकारी नहीं है। इससे जुड़े सदस्य दावा करते हैं कि इसका गठन 1920 और 1930 के दशक में यूरोपीय फासीवादियों का सामना करने के लिए किया गया था। हालांकि एंटीफा की गतिविधियों पर नजर रखने वाले जानकार बताते हैं कि एंटीफा आंदोलन 1980 के दशक में एंटी-रेसिस्ट एक्शन नामक एक समूह के साथ शुरू हुआ था। 2000 तक यह आंदोलन एकदम सुस्त था लेकिन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सत्ता संभालने के बाद इसने रफ्तार पकड़ी है।
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कौन हैं एटिफा के सदस्य?
अमेरिका में एंटीफा के सदस्यों की पहचान करना मुश्किल है, क्योंकि इनमें से अधिकतर लोग पुलिस कार्रवाई के कारण सार्वजनिक खुलासा नहीं करते हैं। इनका कोई आधिकारिक नेता भी नहीं है। कहीं भी जब कोई रंगभेद से संबंधित विरोध प्रदर्शन का मामला आता है तो इसके सदस्य चुपचाप उस स्थान पर आंदोलन करने पहुंच जाते हैं। ये लोग अधिकतर काले कपड़े पहने होते हैं। प्रदर्शन के दौरान एंटीफा के सदस्य हिंसात्मक गतिविधियों में भी शामिल होते हैं।
कोरोना वायरस का प्रकोप फैलना शुरू हुआ तो उसे ‘द ग्रेट इक्वलाइजर’ कहा गया। यानी यह कि वायरस अमीर-गरीब में फर्क नहीं करता। मगर अनुभव ने धीरे-धीरे इस धारणा को गलत साबित किया। इसकी मार भी सबसे ज्यादा अमेरिका के कमजोर तबकों पर ही पड़ी, जिसमें बहुसंख्या अश्वेतों की है। कोरोना से होने वाली मौतों में श्वेत आबादी के मुकाबले अश्वेतों का अनुपात ढाई गुने से भी ज्यादा है।
श्वेतों में मौत का आंकड़ा 20.7 प्रति लाख है जबकि अश्वेत आबादी में यह 50.3 पाया गया है। इसके कई कारण हैं। एक तो ज्यादातर अश्वेत लोगों की जीविका सड़क से ही निकलती है जहां उनके संक्रमित होने की संभावना ज्यादा है।
दूसरे उनके रहन-सहन की स्थिति और खान-पान ऐसा नहीं है कि उनका शरीर बीमारी से पर्याप्त प्रतिरोध कर सके। तीसरे, समय से अस्पताल जाने के लिए जरूरी रकम का इंतजाम वे नहीं कर पाते और इलाज शुरू होने तक देर हो चुकी होती है।
स्वाभाविक है कि महामारी जैसी स्थितियों में शासन से राहत पाने की उम्मीद और जरूरत सबसे ज्यादा इन्हीं में होती है। यह उम्मीद टूटने से उपजी निराशा उन्हें जहां-तहां विरोध की ओर ले जाती है जिसके चलते पुलिस की अतिरिक्त मार भी उनके हिस्से आ जाती है।
किसी भी लोकतांत्रिक समाज में इन परिस्थितियों को निर्णायक रूप में बदलने का उपकरण राजनीति ही हो सकती है। पर दुनिया के कई अन्य देशों की तरह अमेरिका में भी परिस्थितियों का संयोग कुछ ऐसा बना है कि चुनावी राजनीति के एक हिस्से को कमजोर तबकों के तीखे होते संघर्ष में अपना फायदा दिख रहा है।
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संभवतः यही वजह है कि इन प्रदर्शनों के मद्देनजर राष्ट्रपति ट्रंप के शुरुआती बयान ऐसे नहीं रहे जिनसे प्रदर्शनकारियों की आहत भावनाओं को सुकून मिलता। उलटे उनके ट्वीट्स से भावनाएं इतनी भड़क गईं कि प्रदर्शनकारी वाइट हाउस तक आ गए और एहतियातन राष्ट्रपति को वाइट हाउस के एक सुरक्षित बंकर में ले जाना पड़ा।
ट्रंप के राजनीतिक सलाहकारों को ऐसा लग सकता है कि करीब 12 फीसदी अश्वेत आबादी के तीखे होते प्रदर्शनों से आम अमेरिकियों में बढ़ता असुरक्षाबोध उनके वोट बढ़ाएगा, लेकिन एक लोकतांत्रिक समाज में सर्वसमावेशी राजनीति ही अंततः ज्यादा दूर तक जाती है। इसी समझ का संकेत ट्रंप के प्रतिद्वंद्वी और डेमोक्रैटिक प्रत्याशी जोसफ बाइडेन की उस पहल में मिला जिसमें उन्होंने जॉर्ज फ्लॉयड के परिवार से बातचीत की और प्रदर्शनकारियों के साथ वार्ता प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की बात कही। सरकार की ओर से भी ऐसी पहल जरूरी है।