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एचआईवी से 2400 मौतों पर भी सरकार संवेदहीन क्यों?

न्यूज डेस्क

33 साल बहुत होते हैं। इतने लंबे समय में कुछ भी बदला जा सकता है। इन सालों में देश की तस्वीर बदल गई लेकिन अभी भी कुछ चीजे ऐसी है जिसको लेकर लोगों की सोच आज भी वैसी है जैसे पहले थी। जी हां, हम एड्स नाम की महामारी की बात कर रहे हैं। देश में एड्स को लेकर जिस तरह से जागरूकता होनी चाहिए वैसी है नहीं। यदि सरकार इस बीमारी को लेकर सचेत होती तो सिर्फ एक राज्य में 11 महीने में 2400 लोगों की मौत न होती।

महाराष्ट्र के स्वास्थ्य मंत्री एकनाथ शिंदे ने विधानसभा में एक प्रश्न के जवाब में 18 जून को बताया कि पिछले साल एक अप्रैल से इस साल फरवरी तक 2460 लोगों की मौत हुई। सरकार ने उन लोगों की जांच की प्रक्रिया रोकी नहीं है जिनमें एचआईवी संक्रमण की आशंका है। इस योजना के लिए आवश्यक वित्तपोषण अब भी जारी है।’ शिंदे ने कहा कि भारतीय राष्ट्रीय एड्स सोसाइटी के बताए कदमों के क्रियान्वयन में कोई देरी नहीं की गई है।

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पूरे देश में हैं एचआईवी के मरीज

एचआईवी संक्रमण से मरने वाले लोगों की संख्या सिर्फ महाराष्ट्र में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में काफी ज्यादा है। स्वास्थ्य मंत्रालय की तत्कालीन राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल द्वारा एक जनवरी 2019 को राज्यसभा में दिए गए एक जवाब के मुताबिक साल 2017 में करीब 87,000 लोगों की मौत एचआईवी संक्रमण की वजह से हुई थी। वहीं, 69,000 से ज्यादा लोगों की मौत एड्स की वजह से हुई।

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अनुमान के मुताबिक साल 2017 में करीब 22,675 गर्भवती महिलाओं को मां से बच्चे के एचआईवी संक्रमण की रोकथाम के लिए एंटीरेट्रोवाइरल थेरेपी की जरूरत पड़ी थी।

1986 में एड्स का मिला पहला मामला

एचआईवी से अब तक दुनिया के लगभग 35 करोड़ लोग प्रभावित हो चुके हैं। भारत में पहले एड्स केस की पुष्टि 1986 में हुई। डॉक्टर सुनीति सोलोमन ने चेन्नई के सेक्स वर्कर्स के बीच एड्स के पहले मरीजों की पहचान की थी।

इस बीमारी के खौफ को इस तरह समझा जा सकता है कि उस समय जबलपुर में 2 देशों के 6 विदेशी छात्रों की जांच के दौरान एचआईवी पॉजिटिव पाया गया, तब इन छात्रों को देश से बाहर निकालने के लिए इनके देशों के उच्चायोग से बात की गई थी।

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उस समय केरल और जबलपुर में कॉलेजों में मेडिकल टेस्ट के दौरान बेहद चौकाने वाले नतीजे आए। जबलपुर में छह छात्रों के ब्लड सैंपल में एड्स के रोगाणु पाए गए। ये छात्र अफ्रीकी देश केन्या से थे। वहीं केरल के क्विलोन में भी जिन 3 विदेशी छात्रों में एड्स के जीवाणु पाए गए, वो भी तंजानिया से थे।

इन दोनों जगहों के एड्स पीड़ित छात्रों के यूनिवर्सिटी से बाहर निकाल दिया गया। केरल के क्विलोन के कलेक्टर ने तो छात्रों की इस्तेमाल की हुई चीजों को खत्म करने तक का आदेश दिया था। एड्स का ऐसा खौफ था कि मरीजों को पुलिस की निगरानी में शहर से बाहर ले जाया गया। विदेशी छात्रों में इस बीमारी पाने के बाद हालात ऐसे थे कि रोगियों से ढंग से कोई बात नहीं करता था।

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कहां से आया वायरस

रिपोर्ट के मुताबिक तेजी से बढ़ती वेश्यावृत्ति, आबादी और दवाखानों में संक्रमित सुइयों का उपयोग संभवत इस वायरस के फैलने का कारण बने। दुनिया भर की नजरों में एचआईवी 1980 के दशक में आया था और करीब साढ़े सात करोड़ लोग एचआईवी से ग्रस्त हैं।

कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार 19वीं सदी की शुरुआत में एचआईवी वायरस पहली बार जानवरों में मिला था। इंसानों में यह चिम्पांजी से आया था। 1959 में कांगों के एक बीमार आदमी के खून का नमूना लिया गया। कई सालों बाद डॉक्टरों को उसमें एचआईवी का वायरस मिला और ऐसा माना गया है कि यह व्यक्ति एचआईवी से संक्रमित पहला व्यक्ति था।

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वैज्ञानिकों ने एचआईवी की उत्पत्ति को चिम्पांजी और सिमियन इम्यूनोडेफिशियेंसी वायरस (SIV) को माना। SIV एक एचआईवी के जैसा ही वायरस है जो कि बंदरों और एप की प्रतिरक्षा प्रणाली को कमजोर करता है। किन्शासा में संभवत: संक्रमित खून के संपर्क में आने से यह मनुष्यों तक पहुंचा। इस वायरस ने चिंपैंजी, गोरिल्ला, बंदर और फिर मनुष्यों को अपने प्रभाव में लिया। कैमरून में एचआईवी-1 सबग्रुप ओ ने लाखों लोगों को संक्रमित किया।


2014 में साइंस जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भी वैज्ञानिकों ने वायरस के जेनेटिक कोड के नमूने का विश्लेषण किया है और इससे यह पता चला है कि इस बिमारी की उत्पत्ति किंशासा शहर, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो की राजधानी से हुई है। कांगो की राजधानी में तेजी से बढ़ती वैश्यावृत्ति आबादी और दवाइयों की दुकानों में संक्रमित सुइयों का उपयोग इत्यादि कुछ कारणों में से हो सकते हैं।

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एड्स की पहचान 1981 में हुई थी। डॉक्टर माइकल गॉटलीब ने लॉस एंजिलिस में पांच मरीजों में एक अलग किस्म का निमोनिया पाया। डॉक्टर ने पाया कि इन सब मरीजों में रोग से लडऩे वाला तंत्र अचानक से कमजोर पड़ गया था। ये पांचों मरीज समलैंगिक थे इसलिए शुरुआत में डॉक्टरों को लगा कि यह बीमारी केवल समलैंगिकों में ही होती है। इसीलिए एड्स को ग्रिड यानी गे रिलेटिड इम्यून डेफिशिएंसी का नाम दिया गया।

फ्रांस में 1983 में लुक मॉन्टेगनियर और फ्रांसोआ सिनूसी ने एलएवी वायरस की खोज की थी और 1984 के आसपास अमेरिका के रॉबर्ट गैलो ने एचटीएलवी 3 वायरस की खोज की थी।

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1985 के आसपास ज्ञात हुआ कि ये दोनों वायरस एक ही हैं। मॉन्टेगनियर और सिनूसी को नोबेल पुरस्कार से 1985 में सम्मानित किया गया। 1986 में पहली बार इस वायरस को एचआईवी यानी Human immunodeficiency virus वायरस का नाम मिला। पूरी दुनिया में इसके बाद एड्स के बारे में लोगो को जागरूक करने के अभियान शुरू हो गए और 1988 से हर साल 1 दिसंबर को वल्र्ड एड्स डे के रूप में मनाया जाता है।

क्या है एचआईवी/एड्स अधिनियम?

ह्यूमन इम्यूनोडिफिसिएंसी वायरस एंड एक्वायर्ड इम्यून डिफिसिएंसी सिंड्रोम (प्रिवेंशन एंड कंट्रोल) बिल, 2017 नाम का यह एक्ट एचआईवी पॉजिटिव समुदाय को कानूनी तौर पर मजबूत बनाने के लिए पास किया गया है। एक्ट के तहत इस समुदाय के लोगों को न्याय का अधिकार दिया जाएगा।

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सरकार को एड्स या एचआईवी संक्रमित मरीजों के साथ सौतेले व्यवहार की वजह से सरकार को ये बिल लाना पड़ा। इस बिल को पिछले साल 12 अप्रैल 2016 को लोकसभा से पास किया गया था। राज्य सभा ने भी 22 मार्च, 2017 को इसे मंजूरी दे दी थी। 2014 में इस बिल को कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद ने सदन में पेश किया था।

भारत में करीब 21.17 लाख लोग एचआईवी से संक्रमित हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक 2015 में करीब 86 हजार नए एचआईवी पीडि़तों का पता चला। इसी साल करीब 68 हजार एचआईवी पीडि़तों की मौत हो गई। लगातार बढ़ रहे पीडि़तों की संख्या और भेदभाव की वजह से इस बिल को एचआईवी के खिलाफ लड़ाई के लिए महत्वपूर्ण कदम माना गया।

क्या है इस बिल में

इस बिल के मुताबिक एचआईवी पीड़ित के साथ भेदभाव करना अपराध माना जाएगा। ऐसा करने वालों को तीन महीने से लेकर दो साल तक की जेल और एक लाख रुपये तक का जुर्माना लगाया जा सकता है। एक्ट में एचआईवी पीड़ित  नाबालिग को परिवार के साथ रहने का अधिकार दिया गया है। यह उसे भेदभाव और नफरत से बचाता है।

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बिल में एचआईवी पॉजिटिव समुदाय के खिलाफ भेदभाव को भी परिभाषित किया गया है। इसमें कहा गया है कि मरीजों को रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रॉपर्टी, किराये पर मकान जैसी सुविधाओं को देने से इनकार करना या किसी तरह का अन्याय करना भेदभाव माना जाएगा। इसके साथ ही किसी को नौकरी, शिक्षा या स्वास्थ्य सुविधा देने से पहले एचआईवी टेस्ट करवाना भी भेदभाव होगा।

किसी भी एचआईवी पॉजिटिव शख्स को उसकी मर्जी के बिना एचआईवी टेस्ट या किसी मेडिकल ट्रीटमेंट के लिए मजबूर नहीं किया जा सकेगा। एक एचआईवी पॉजिटिव व्यक्ति तभी अपना स्टेटस उजागर करने पर मजबूर होगा, जब इसके लिए कोर्ट का ऑर्डर लिया जाएगा। हालांकि, लाइसेंस्ड ब्लड बैंक और मेडिकल रिसर्च के उद्देश्यों के लिए सहमति की जरूरत नहीं होगी, जब तक कि उस व्यक्ति के एचआईवी स्टेटस को सार्वजनिक न किया जाए।

 

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