डॉ. उत्कर्ष सिन्हा
बीते साल की 26 नवंबर को जब दिल्ली के इर्द गिर्द किसानों ने डेरा जमाना शुरू किया था , तब से अब तक 40 दिन बीत चुके हैं। दिल्ली के किनारों पर सिंघू, गाजीपुर और टिकरी बार्डर पर जुटे किसानों की तादाद हर रोज बढ़ रही है।
सरकार की राजनीति और कूटनीति से संघर्ष करते किसानों के इस जमावड़े के सामने फिलहाल मौसम की मार है, शून्य के करीब पहुंचता तापमान है, और आसमान से बरसती बारिश है, मगर किसानों का मनोबल हर दिन ऊंचा होता जा रहा है।
40 दिनों में 60 किसानो की मौत हो चुकी है जिनमे कुछ आत्महत्याएं भी शामिल है। आत्महत्या करने वाले किसानों ने अपने सुसाईड नोट में प्रधानमंत्री को भी संबोधित किया, मगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संवेदना का एक शब्द भी अब तक नहीं बोला है।
वैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह शैली नई नहीं है, बीते कुछ सालों को देखिए तो आपको साफ दिखेगा कि अपने नागरिकों द्वारा उठाए गए सवालों पर वे हमेशा खामोश रहते हैं। उनके मन की बात का कार्यक्रम बदस्तूर चलता है मगर उसमे वे मुद्दे कहीं नहीं होते जिनपर आवाम आवाज उठा रही होती। वे आत्ममुग्धता के साथ अपने चुने हुए विषयों पर घंटों बोलते हैं, व्यवस्था द्वारा चुने गए व्यक्तियों से हंसी मजाक करते हुए सवाल जवाब करते हैं। मगर उन सवालों का जिक्र भी नहीं करते जिसके लिए लाखों लोग उनसे सुनना चाहते हैं।
यही किसान आंदोलन के साथ भी हो रहा है।
आखिर मोदी इतने निश्चिंत दिख रहे हैं तो उसके पीछे उनका विश्वास अपने उस तंत्र पर भी है जिसने बीते 6 सालों में कई जनांदोलनों को या तो बदनाम कर के खत्म करा दिया या फिर चुनावों में मिली जीत के बाद उन मुद्दों को जनता द्वारा खारिज किया हुआ बता दिया। फिलहाल यही उनकी जीत का फार्मूला है।
लेकिन इस बार वह तंत्र शुरू से ही असफल दिख रहा है, किसानों को खालिस्तानी बताना, आंदोलन के पीछे कांग्रेस का हाँथ बताना, कुछ जेबी संगठनों के जरिए किसान बिलों को किसान हितैषी बताना और फिर विदेशी फंडिंग का आरोप, ये सब फिलहाल तो कामयाब होता नहीं दिखाई दे रहा है।
इस बीच सरकार और किसानों के बीच 8 दौर की बातचीत हो चुकी है, मगर नतीजा कुछ नहीं निकला। किसान अपनी मांगों पर अड़ें हुए हैं और सरकार भी अभी सीधा जवाब नहीं दे रही।
तो फिर से वही सवाल – इन किसानों के मौतों पर प्रधानमंत्री मोदी खामोश क्यों हैं? क्या वे इस मामले में खुद नहीं पढ़ना चाहते ? (हालांकि उनके अभियान में तो हमेशा से ही कर छोटी बड़ी चीज के केंद्र में खुद को रखना ही रहा है)
या फिर उनके सलाहकार इस आंदोलन की ताकत को समझने में वाकई चूक गए हैं। इस आदोंलन में वे न तो सांप्रदायिक एंगल खोज पाए और न ही राष्ट्रवाद के तलवार से इसका सर कलम करने का कोई रास्ता अभी तक खोज सके।
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आंदोलन का दायरा भी अब बढ़ने लगा है। पंजाबियों और जाटों का आंदोलन बताए जाने वाले प्रचार भी कुंद पड़ने लगे हैं क्योंकि राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, छतीसगढ़ के साथ साथ तमिलनाडु और दूसरे दक्षिणी राज्यों के किसानो के जत्थे भी पहुचने लगे हैं।
ऐसे में देश तो यही चाहता है कि प्रधानमंत्री इस मसले पर चुप्पी तोड़ें और समाधान का कोई सर्वमान्य फार्मूला निकालें । आखिर वे प्रधानमन्त्री बने हैं तो उसके पीछे इन किसानों का वोट भी तो शामिल है ।