उत्कर्ष सिन्हा
हैदराबाद के सांसद असददुद्दीन ओवैसी का जब भी यूपी दौरा होता है, उनके पीछे दिल्ली के खबरिया चैनलों के सीनियर रिपोर्टर्स की टीम भी आ जाती है। ओवेसी अखबारों में भले ही जगह न पाएं मगर टीवी के दर्शकों के लिए वे एक बड़ी खबर के तौर पर जरूर पेश किए जाते हैं।
ओवेसी टीवी के ब्ल्यू आईड ब्वाय है और फिर यूपी के विधानसभा चुनावों के मद्दे नजर उनके यूपी दौरे भी खूब हो रहे हैं।
यूपी में अब तक एक सीट भी न जीत पाने वाले ओवेसी में आखिर ऐसा क्या है कि टीवी चैनलों के पर अखिलेश यादव और मायावती से ज्यादा फुटेज उन्हे मिल रही है। आखिर ऐसा कौन सा करिश्मा उनके पास है कि दर्जन भर स्थानीय पार्टियों से ज्यादा महत्वपूर्ण असददुद्दीन ओवैसी हो जाते हैं? आखिर यूपी की राजनीति में वो कौन सा फैक्टर है जो ओवेसी को महत्वपूर्ण बना दे रहा है?
बहुत सारे आखिर क्यों वाले सवाल हैं जिनकी पड़ताल करनी जरूरी है।
पत्रकार कृष्ण कान्त कहते हैं – कुछ लोग कहते हैं कि असददुद्दीन ओवैसी वोटकटवा हैं, बीजेपी की बी टीम हैं. ये सब कहना गलत है। वे या तो बीजेपी के दलाल हैं या फिर खूब तार्किक तकरीरें करने वाले बेवकूफ हैं। दूसरे की संभावना काफी कम है, इसलिए पहले का ही शक मजबूत होता है. इधर यूपी में वे खुलकर मुसलमानों से कह रहे हैं कि “आप सबको एक तरफ आना होगा.” अगर आरएसएस की विचारधारा को आप किसी भी तरह से खतरनाक मानते हैं तो ओवैसी उस वैचारिक खतरे को धार मुहैया कराने के लिए मैदान में कूद पड़े हैं।
यूपी में 18 प्रतिशत वोटर मुस्लिम समुदाय से आते हैं और उनका रुझान बदलता राहत है। आम तौर पर ये भी देखा जाता है कि बहुतायत में ये समुदाय भाजपा को हारने की संभावना रखने वाली उस वक्त की मजबूत पार्टी को वोट देता है।
लेकिन सिर्फ मुसलमानों के वोटों से यूपी में जीत हासिल नहीं होती और ओवेसी ने अब तक कोई ऐसा संदेश नहीं दिया है कि उनकी जीत का समीकरण क्या बनेगा। ओवेसी के भाषणों में सिर्फ मुसलमानों की बात होती है। कुछ समय पहले उन्होंने ओम प्रकाश राजभर के साथ हाँथ मिलाया था मगर वो साथ महीना भर भी नहीं चल सका।
कृष्ण कान्त कहते हैं – “ओवैसी जब खुलकर मुसलमानों से कहते हैं कि “सेकुलर के झूठ में मत फंसो”, “आप सबको एक तरफ आना होगा”, “आपका अपना रहनुमा होना चाहिए”… तब वे साफ तौर पर संदेश दे रहे होते हैं कि बीजेपी विरोधी पार्टियों का पाखंड ही असली सेकुलरिज्म है, जिनमें मुसलमानों को नहीं फंसना है। इसका छुपा संदेश ये भी है कि आपके लिए “मैं बेहतर कम्युनल हूं.” वे मुसलमानों का नरेंद्र मोदी बनने की जुगत में हैं. वे अपनी पार्टी को मुसलमानों की आरएसएस बनाना चाहते हैं।
काफी हद तक यह बात सही भी लगती है। ओवेसी के हालिया चुनावी रिकार्ड को देखे तो करीब करीब हर उस राज्य के चुनावों में अपनी यही लाइन ले कर उतरे हैं, जहां मुस्लिम वोटर अछि संख्या में हैं। बिहार में वे 19 सीटों पर लड़े जहां उन्हे उन 5 सीटों पर तो जीत मिली जहां कांग्रेस के पुराने दिग्गज उनके साथ आ गए थे लेकिन बाकी की 14 सीटों पर उनके प्रत्याशी अपनी जमानत नहीं बच सके, हालाकी उन सीटों पर भाजपा को फायदा जरूर पहुंचा गए। टीवी मीडिया ने 5 सीटों की जीत को खूब उछला, उसके बाद बंगाल के चुनावों में भी वे बहुत जोर शोर से उतरे मगर कोई असर नहीं छोड़ सके।
अब यूपी के चुनावों के पहले वे यहाँ मौजूद हैं। ओवेसी का निशाना कमजोर पड़ चुकी पीस पार्टी है। वे पीस पार्टी के नेताओं को अपने दल में शामिल करने में जुटे हुए हैं। पीस पार्टी के प्रभाव वाले क्षेत्रों में ओवेसी लगातार दौरे कर रहे हैं और उनके दौरों को कवर करने दिल्ली के टीवी मीडिया का वो समूह जिसे आजकल गोदी मीडिया कहा जाने लगा है, उनके साथ चल रहा है।
आश्चर्यजनक रूप से इस बीच टीवी रिपोर्ट्स से समाजवादी पार्टी और उनके मुखिया अखिलेश यादव करीब करीब गायब से दिख रहे हैं, जबकि माना जाता है कि यूपी में भाजपा के मुकाबले समाजवादी पार्टी ही सबसे ज्यादा मजबूती से चुनाव लड़ेगी।
समाजशास्त्री और जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर शफीक अहमद कहते है – “ यूपी में हुए दो लोकसभा और एक विधानसभा चुनावों में सांप्रदायिक आधार पर वोटों का विभाजन देखा गया था, जिसका भरपूर फायदा भाजपा को हुआ। मगर बीते कुछ सालों में आर्थिक रूप से तंग हुआ मध्यवर्ग अब मोहभंग की तरफ जा रहा है, दूसरी ओर समाजवादी पार्टी ने भी संवेदनशील मुद्दों पर प्रतिक्रिया देना बंद कर दिया है,जिसके वजह से प्रतिक्रियावादी बेचैन हैं। ऐसे हालत में ओवेसी को आगे किया गया है जिससे कमजोर पड़ता ध्रुवीकरण चुनावी वक्त में फिर प्रभावी हो सके।
वरिष्ठ पत्रकार ओम दत्त का मानना है कि जिस तरफ से ओवेसी के होर्डिंग्स और कार्यक्रमों में मुसलमानों की भीड़ दिखाई जा रही है वो हिंदुओं के उस समूह को प्रभावित करेगा जो बीते कुछ समय से संप्रदाय आधारित राजनीतिक सोच से अलग हो रहा था।
ओवेसी ने 7 सितंबर को अयोध्या में भी सभा की, जहां मंच से बाबरी मस्जिद का मामला खूब उछाला गया। यूपी की राजनीति में सक्रिय सभी विपक्षी दलों ने जहां इस मामले से किनारा किया हुआ है वहाँ सिर्फ ओवेसी ही इस बात को एक बार फिर उठा कर समाजवादी पार्टी को निशाने पर ले रहे हैं।
कुल मिला कर असदुद्दीन ओवेसी की सारी सक्रियता आक्रामक तरीके से मुस्लिम वोटों को ध्रुवीकृत करने की है और जाहिर है इसकी प्रतिक्रिया में हिन्दू वोटों का एक तबका भी लामबंद होंने की संभावना बढ़ेगी।
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यूपी की करीबन 56 ऐसी सीटें हैं जहां मुस्लिम वोटों में होने वाले विभाजन का फायदा भाजपा को मिलता रहा है और ऐसी सीटों पर यदि ओवेसी 2 हजार वोट भी ले आए तो भाजपा का काम आसान हो जाएगा।
फिलहाल यूपी के छोटे दलोन ने ओवेसी से दूरी बना रखी है और उनका मोर्चा बनने से पहले ही खत्म होता दिखाई दे रहा है, लेकिन उनके दौरों की टीवी कवरेज और ओवेसी के बयान शायद वो काम कर जाएँ जिसकी उम्मीद भाजपा ने लगा रखी है।