डॉ. शिशिर चंद्रा
इस श्लोक से तात्पर्य है कि भाद्र कृष्ण चतुर्दशी (बारिश के मौसम के एकदम शिखर का समय, मध्य अगस्त के आस पास) को जितनी दूर तक गंगा का फैलाव रहता है, उतनी दूर तक गंगा के दोनों तटों का भू-भाग ‘नदी गर्भ’ कहलाता है।
‘नदी गर्भ’ के बाद 150 हाथ की दूरी का भू-भाग ‘नदी तीर’ कहलाता है।
‘नदी तीर’ से एक ग्यूति यानी 2000 धनुष की भूमि को ‘नदी क्षेत्र’ कहा गया है। एक ग्यूति यानी 2000 धनुष यानि 2 मील यानी 1 कोस यानी 3 कीलोमीटर। इस तरह दोनों नदी तीरों से तीन-तीन किलोमीटर की दूरियां ‘नदी क्षेत्र’ हुईं।
अब इस गड़ना को ध्यान में रखते हुए वर्तमान या कुछ समय पूर्व की स्थिति का स्मरण करें जिसमें अखबार या खबरी चैनलों के माध्यम से ये पता चलता है कि बिहार, या अन्य राज्यों में बाढ़ के प्रकोप से भयानक जान माल की छति हुई।
जहां एक ओर, एक राज्य दूसरे राज्य पर और एक देश दूसरे देश पर आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हैं कि उन्होंने अपना पानी छोड़ दिया इस वजह से हमारे यहाँ बाढ़ आ गई, वहीं क्या इस बात की ओर कोई चिंता कर रहा है या सवाल उठा रहा है कि हमने अपने स्वार्थ के लिए ‘नदी छेत्र’ का अतिक्रमण कर लिया है, नदी छेत्र में घुस गए हैं और वहाँ अपना ठिकाना बना लिया है।
आज हर छोटे बड़े शहर में हम छोटी बड़ी नदी के उसके अपने छेत्र में ‘नदी छेत्र’ में अतिक्रमण कर बैठे हैं, और नदी ही क्या, नदियों की सहायक बहने ‘तालाबों’ ‘झीलों’ का भी अतिक्रमण किये जा रहे हैं।
ये सब सहायक थी बारिश के पानी को सुनियोजित तरीके से संजोने के लिए और प्राकृतिक तरीके से भू-गर्भ जल को रिचार्ज करने के लिए। फल स्वरूप अब दो बड़े संकट हमारे सामने: 1-भू-गर्भ जल संकट 2- बाढ़ से जान माल को भारी छति।
जल जंगल जमीन तो ऐसे ही कम होते जा रहे हैं, ऊपर से हाल ही में हीरे की तलाश के लिए छतरपुर के जंगल को चुना गया। दलील ये है कि बक्स्वाहा छेत्र में भारी मात्रा में कीमती हीरे दबे हो सकते हैं और जिनसे काफी लाभ होगा।
ऐसी और भी खबरें अलग अलग स्थानों की हो सकती है जो शायद हमें आपको पता ही न हो न हो। वो चाहे तालाबों को पाटकर ऊँचे भवन, उच्च न्यायालय या एयरपोर्ट ही बना देने का मामला हो या स्थानीय स्तर पर जल स्रोतों, जंगल क्षेत्र आदि का अतिक्रमण कर निजी, औद्योगिक, रीयल स्टेट द्वारा निर्माण या रीवर फ्रंट के नाम पर नदियों के गर्भ का सीमांकन का मामला।
पर सवाल ये है कि विकास की शर्त क्या जंगल को काटना और जल स्रोतों को पाटना है, क्या विकास के नाम पर प्रकृति का दोहन ही विकल्प है।
मै विकास का विरोधी नहीं हूँ, पर इन शर्तो पर विकास का समर्थक भी नहीं, जहां प्रकृति, ऊँचे भवनो और कंक्रीट की चादरों के भेट चढ़ जाए। तो ऐसा क्यों न किया जाये कि विकास का ही परिसीमन कर दिया जाए, क्यों न इसके मानक, समृद्ध प्रकृति के मानक के अनुरूप कर दिया जाए।