- अदालत ने की कोरोना से संबंधित मामलों को ठीक से नहीं संभालने के लिए गुजरात सरकार की आलोचना
- अदालत ने कोरोना के मरीजों की सरकारी अस्पतालों में मृत्यु दर अधिक होने को चिंता का विषय बताया
न्यूज डेस्क
गुजरात उच्च न्यायालय रूपाणी सरकार के कामकाज से खफा है। अदालत ने कोरोना से संबंधित मामलों को ठीक से न संभालने के लिए रूपाणी सरकार की आलोचना की है।
गुजरात उच्च न्यायालय ने कहा है कि गरीब लोग सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए आते हैं लेकिन इसका यह मतलब नहीं लगाया जाना चाहिए कि उनकी जिंदगी की कोई कीमत नहीं है।
अदालत ने कोरोना के मरीजों की सरकारी अस्पतालों में मृत्यु दर अधिक होने को चिंता का विषय बताया और कहा कि सरकार को और अधिक सजग होने की जरूरत है। कोर्ट ने यह भी कहा कि युद्धस्तर पर जरूरतमंदों को सुविधाएं मुहैया कराने की जरूरत है।
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देश में कोरोना प्रभावित राज्यों में गुजरात दूसरे नंबर पर है। पहले स्थान परमहाराष्ट्र है। गुजरात में कोरोना से अब तक कुल 888 मौतें हुई हैं।
पिछले शुक्रवार 22 मई को गुजरात हाईकोर्ट तब सुर्खियों में आया था, जब अहमदाबाद सिविल अस्पताल की ‘काल कोठरी जैसी’ हालत के लिए, उसने कड़े शब्दों में गुजरात सरकार को फटकार लगाई थी।
गुजरात हाईकोर्ट कोरोना वायरस के मामलों पर काफी समय से नजर बनाए हुए हैं। हाईकोर्ट अभी तक वास्तव में 11 आदेश जारी कर चुका है।
गुजरात हाईकोर्ट शायद भारत का पहला हाईकोर्ट था जिसने 13 मार्च को कोरोनावायरस (कोविड-19) वैश्विक महामारी को लेकर ‘एहतियाती उपायोंÓ का स्वत: संज्ञान लिया था, जब गुजरात में पहले केस का पता भी नहीं चला था। तब से ये केस कोर्ट की प्राथमिकता में पहले स्थान पर बना हुआ है।
मुख्य न्यायाधीश विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति जे शास्त्री ने याचिका की पहल की, और अब तक आठ आदेश जारी किए हैं, जिनमें अलग-अलग वर्गों के लोगों को तरह-तरह की राहत दी गई। न्यायमूर्ति जेबी पार्दीवाला और न्यायमूर्ति ईलेश जे वोरा की एक दूसरी बेंच ने, तीन आदेश जारी किए हैं।
इन 11 आदेशों के पीछे हाईकोर्ट ने, अख़बारों में छपे लेखों व खबरों, 15 से अधिक जनहित याचिकाओं, 10 अर्जियों और यहां तक की एक गुमनान चि_ी तक का संज्ञान लिया है।
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कोर्ट की नाराजगी की वजह है डॉक्टर की चिट्ठी?
गुजरात हाईकोर्ट की इस नाराजगी की वजह एक रेजिडेंट डॉक्टर की ओर से लिखा गया पत्र भी बताया जा रहा है। अदालत के स्वत: संज्ञान लेने के बाद गुजरात सरकार ने इस मामले में तत्काल कार्रवाई करने के लिए समय मांगा है।
अदालत ने अहमदाबाद सिविल अस्पताल में काम करने वाले रेजिडेंट डॉक्टर के एक पत्र का हवाला देते हुए अस्पताल की बदतर हालात के लिए सरकार को फटकार लगाई।
इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक कोर्ट के कड़े रुख की मुख्य वजह एक रेजिडेंट डॉक्टर का पत्र था। पत्र में डॉक्टर ने सिविल अस्पताल की बदहाली के बारे में विस्तार से लिखा है।
डॉक्टर ने दावा किया है कि अस्पताल प्रबंधन इस बात को लेकर फिक्रमंद है कि अगर रेजिडेंट डॉक्टर संक्रमण की चपेट में आ गए तो काम कौन करेगा। उनका कहना है कि कोई भी सीनियर डॉक्टर इमर्जेंसी में या फिर मरीजों को देखने दौरे पर नहीं आता।
सभी मरीजों को जूनियर डॉक्टर ही देखते हैं और इसके बावजूद सीनियर डॉक्टर उन्हें कायर और मूर्ख कहते हैं। अस्पताल प्रबंधन की तरफ से उन पर कोई कार्रवाई भी नहीं की जाती है।
पत्र में डॉक्टर ने लिखा है, “हमारे विभाग के आठ डॉक्टरों और मेरे यूनिट के पांच रेजिडेंट डॉक्टरों का कोरोना टेस्ट पॉजिटिव आया है। हमें टेस्ट करवाने को लेकर भला-बुरा कहा गया है। पांच दिनों से 30 रेजिडेंट डॉक्टरों को मैरियट होटल में रखा गया है, वहीं इलाज चल रहा है।”
पत्र में आगे लिखा है,”अस्पताल प्रबंधन की ओर से किसी ने भी हमारी खोज-खबर नहीं ली है। जब मैं कोरोना वायरस से संक्रमित हुआ तब मैं किसी दूसरी ड्यूटी पर था। एलजी अस्पताल और अहमदाबाद के दूसरे 90 फीसदी अस्पताल बंद होने की वजह से हम पर मरीजों का बढ़ती संख्या का दबाव था। इसके बावजूद हमें पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट या फिर एन-95 मास्क नहीं दिया गया। यहां तक कि हमारे पास दस्ताने भी नहीं थे। प्रबंधन दावा कर रहा था कि ये सभी चीजें 1,200 बेड वाले कोविड-19 अस्पताल को भेजा जा चुका है।”
अदालत ने इस पत्र का संज्ञान लेते हुए कहा कि मौजूदा संकट की स्थिति में जो डॉक्टर काम करने के लिए सिविल अस्पताल नहीं आ रहे हैं उनका तुरंत ट्रांसफर किया जाए। ये उचित नहीं है कि सीनियर डॉक्टरों की बजाय अधिकतर काम रेजिडेंट डॉक्टरों को सौंप दिया जाए।
कोर्ट ने कहा कि सरकार को न केवल कोरोना टेस्ट की संख्या बढ़ानी चाहिए बल्कि निजी लैब में टेस्ट कराने वालों को भी टेस्ट का खर्च देना चाहिए। अस्पताल से डिस्टार्ज किए गए सभी मरीजों के लिए टेस्ट बाध्यकारी बनाया जाना चाहिए।
इस मामले में गुजरात सरकार की ओर से सरकारी वकील मनीषा शाह ने सरकार का पक्ष रखते हुए अदालत से कहा कि अहमदाबाद में बढ़ते हुए मामलों को देखते हुए छह मई से सरकार ने युद्धस्तर पर कदम उठाए हैं।
सरकार ने 42 अस्पतालों को आदेश दिया है कि वो कोरोना मरीजों के लिए 50 बेड खाली रखें।
इससे पहले सरकार ने 23 अस्पतालों को (समझौते का मसौदा) एमओयू सौंपा है। चार एमओयू फिलहाल लटके पड़े हैं और आठ अस्पतालों की सरकार के साथ एमओयू पर हस्ताक्षर करने को लेकर कोई दिलचस्पी नहीं है।
क्या कहती है सरकार?
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार स्वास्थ्य विभाग की प्रधान सचिव डॉक्टर जयंती रवि ने इस मामले टिप्पणी करने से ये कहते हुए इनकार कर दिया है कि मामला अभी कोर्ट में है। उन्होंने कहा कि “कोरोना को फैलने से रोकने के लिए हम हरसंभव कोशिश कर रहे हैं, लेकिन ये मामला अभी कोर्ट में हैं और इस पर मैं टिप्पणी नहीं कर सकती। ”
गुजरात के स्वास्थ्य मंत्री और डिप्टी मुख्यमंत्री नितिन पटेल का कहना है कि “कोरोना महामारी के बारे में राज्य सरकार कोई स्वतंत्र निर्णय नहीं ले सकती। हमें आईसीएमआर की गाइडलाइन के अनुसार काम करना होता है और उसी के अनुसार हम काम कर रहे हैं।”
पटेल ने यह भी दावा किया कि सिविल अस्पताल में सभी तरह की सुविधाएं दी जा रही हैं। उन्होंने कहा, “गुजरात में कोरोना मरीजों के लिए हमने 21,000 बेड की व्यवस्था की है। हाई कोर्ट ने पूछा है कि इस काम में कुछ अस्पतालों को क्यों शामिल नहीं किया गया है। हम इन अस्पतालों से बात कर रहे हैं। अगले सप्ताह सरकार कोर्ट के सामने अपना जवाब पेश करेगी।”