डा. रवीन्द्र अरजरिया
सामाजिक परिवेश में मानवीयता के साथ स्थापित मूल्यों का संरक्षण करना नितांत आवश्यक होता है। लैंगिक विभेद के आधार पर पक्षपात की परंपराओं का सिलसिला समाज के चन्द ठेकेदारों की कलुषित मानसिकता का प्रतीक बनकर उभरा, तो देश में मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक और हलाला जैसी क्रूरतापूर्ण व्यवस्था से निजात दिलाने के लिए संवैधानिक ढंग से चयनित सरकार ने बीडा उठाया। पहले भी सती प्रथा, दहेज प्रथा जैसी कुरीतियों पर कुठाराघात किया जा चुका है।
लोकसभा में एक बार फिर तीन तलाक पर प्रस्ताव लाया गया। हंगामा मचाने वालों ने अपनी दलीलों को सांप्रदायिक रंग में परोसने की कोशिश की। कुतर्कों के आधार पर धार्मिक आजादी के राग अलापे जाने लगे। सरकार के प्रयासों पर विपक्ष के मौथले वार किये गये। दलीलों के नाम पर उत्तेजनात्मक भाषणों की बाढ़ सी आ गई। वोटबैंक की राजनीति करने वालों को नकाब के पीछे की सिसकियां, चीखें और चीत्कार सुनाई नहीं दिया। बेबस निगाहों से राहत की बाट जोह रहीं पर्दानशीं महिलायें, जुल्म की जिन्दगी से बाहर निकलने के लिए बेचैन हैं।
विचार चल ही रहा था कि कालबेल के मधुर स्वर ने अवरोध उत्पन्न कर दिया। गेट पर श्यामबिहारी उपाध्याय मौजूद थे। जब हम लखनऊ विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान विषय से स्नातकोत्तर में अध्ययन कर रहे थे, तब वे हमारे सीनियर थे। स्नातकोत्तर के बाद उन्होंने कानून की पढ़ाई की और वर्तमान में उनकी गिनती देश के जानेमाने विधि विशेषज्ञों में होती है। उनकी अचानक उपस्थिति ने हमें अचम्भित कर दिया। आगे बढ़कर गेट खोला और आत्मिक स्वागत किया। वे भी अपनत्व का पिटारा लुटाने में पीछे नहीं रहे।
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कुशलक्षेम पूछने-बताने के बाद हमने अपने मन में चल रहे विचारों से उन्हें अवगत कराया। संविधान की विभिन्न धाराओं और प्रकरणों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि देश में तुष्टीकरण की जडें बहुत गहराई तक जमी हुईं हैं। वोटबैंक के लालच में कुछ भी कहा, सुना और किया जा रहा है। आश्चर्य तो तब होता है जब गैर मुस्लिम नेताओं के द्वारा मुस्लिम समाज की आन्तरिक व्यवस्था तंत्र पर व्याख्यान दिया जाते हैं, तर्क और सिद्धान्त प्रस्तुत किये जाते हैं और किये जाते हैं अंधविश्वास से जुडी परम्पराओं की पुनर्स्थापना के प्रयास।
वास्तविकता तो यह है कि देश की विभिन्न अदालतों में पति, परिवार और रिश्तेदारों से प्रताडित महिलाओं के ज्यादातर मामले मुस्लिम समाज से ही आते हैं। यह महिलायें अपने भरण पोषण सहित अन्य संरक्षण की दुहाई देतीं हैं। ऐसे में यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि प्रकरण दायर करने वाली महिलाओं को मुस्लिम समाज की आन्तरिक व्यवस्था से राहत नहीं मिली तभी तो वे संवैधानिक दायरे में स्थापित कानून की शरण में पहुंचीं। उनकी बात पूरी होते ही हमने विश्वस्तर पर तलाक, हलाला जैसी मुस्लिम व्यवस्था को रेखांकित करने के लिए कहा।
इस्लामिक देशों की लम्बी फेरिश्त पेश करते हुए उन्होंने कहा कि जब कट्टर इस्लामिक देशों में तलाक और हलाला जैसी कुप्रथाओं पर रोक लगी है तो फिर भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में इतना हंगामा क्यों हो रहा है। प्रगतिशील देशों की श्रंखला में पहुंचने के लिए अनेक मुस्लिम राष्ट्रों ने विकृतियों को दरकिनार किया है, मानवीयता के सूत्र अपनाये हैं और बनाया है आवाम को खुशहाल। अंधविश्वास को तोड़े बिना असम्भव है मानवीयता का शंखनाद।
महिलाओं की वर्तमान स्थिति पर विधि विशेषज्ञ की राय जानने की जागृत होती इच्छा से प्रदर्शित की तो वे मुस्कुराये बिना नहीं रह सके। जिग्यासा को ज्ञान की कुंजी के रूप में परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि वर्तमान दशक में महिलाओं की स्थिति में सुधार हुआ है। शायद ही समाज का कोई क्षेत्र उनकी प्रतिभा से अछूता रहा हो। विकास के तय होते मापदण्डों में उनकी महात्वपूर्ण भागीदारी है परन्तु मुस्लिम समाज की महिलाओं को अभी न तो पूरी तरह से उन्मुक्त आकाश में उडान भरने की छूट मिली है और न ही उनका आत्मविश्वास ही परिपक्व हुआ है।
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पर्दानशीं रहने से लेकर शौहर के हर हुक्म को मानने की बंदिशें आज के साइवर युग में बदनुमा दाग से कम नहीं हैं। स्वाधीनता के मायने लैंगिकता के आधार पर तय होते हैं। विकास, प्रतिष्ठा और भविष्य का निर्धारण करने के सर्वाधिकार पुरुषों के पास ही सुरक्षित हैं। अपवाद के रूप में अनेक कारकों को ढूंढा जा सकता है परन्तु ईमानदारा बात तो यही है कि मुस्लिम समाज की पुरूष मानसिकता में उदारवादिता का नितांत अभाव है।
चर्चा चल ही रही थी कि तभी नौकर ने सेन्टर टेबिल पर चाय एवं स्वल्पाहार की सामग्री सजाना शुरू कर दी। चल रहे वार्तालाप में व्यवधान उत्पन्न हुआ, परन्तु तब तक हमें अपने चिन्तन को दिशा देने की पर्याप्त सामग्री प्राप्त हो चुकी थी। सो सेन्टर टेबिल की ओर रुख किया। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नये मुद्दे के साथ फिर मुलाकात होगी।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है यह लेख उनके निजि विचार है)