न्यूज डेस्क
किसी जाति को (अनुसूचित जाति) एससी में जोड़ने का हक सिर्फ देश की संसद के पास है। फिर भी उत्तर प्रदेश की वर्तमान और पूर्व की सरकारों ने अति पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की 17 जातियों को एससी में शामिल किए जाने की नाकाम कोशिश की। ऐसे में बड़ा सवाल ये उठता है कि आखिर क्यों बार-बार पिछड़ी जातियों को दलित बनाने की कोशिश हो रही है।
यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने अति पिछड़ा वर्ग में आने वाली 17 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने के प्रस्ताव को पारित करके पूराने मुद्दे को फिर से चर्चा में ला दिया है। वैसे ऐसी पहल करने वाले सीएम योगी प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री नहीं हैं। पूर्व में मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव भी अपनी सरकारों में ऐसी पहल कर चुके हैं, लेकिन यह कोशिश कभी परवान नहीं चढ़ी। दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों के प्रस्ताव केंद्र सरकार खारिज करता रहा है।
हालांकि, इस बार केंद्र और प्रदेश दोनों ही जगह बीजेपी की ही सरकार है। लेकिन इस मसले में केंद्र और राज्य सरकार का बीच विवाद पहले जैसे ही हैं। मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री और राज्यसभा में बीजेपी के नेता थावर चंद्र गहलोत ने योगी सरकार के इस कदम को ‘संवैधानिक प्रक्रिया से परे’ करार दिया और मामला फिर अटक गया।
सवाल है कि यूपी के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव रहे हों, अखिलेश यादव या फिर योगी आदित्यनाथ, इन सभी को मालूम है कि अनुसूचित जाति वर्ग में किसी जाति को शामिल करने का अधिकार उनमें निहित नहीं है। बावजूद इसके वे अपनी ओर से आदेश जारी कर देते हैं लेकिन इसका कोई विधिक महत्व नहीं होता।
किसी भी जाति को अनुसूचित जाति वर्ग का लाभ उसी सूरत में मिल सकता है, जब वह केंद्र सरकार द्वारा जारी सूची में शामिल हो। समाजवादी सरकार में तो सरकार के इस कदम से 17 पिछड़ी जातियां पिछड़ा वर्ग सूची से बाहर हो गईं और उधर उन्हें अनुसूचित जाति वर्ग का लाभ भी नहीं मिल पा रहा था।
यूपी सरकार के कदम पर केंद्र सरकार ने जिस तरह से फौरी प्रतिक्रिया व्यक्त की, उससे न केवल यूपी बल्कि वे राज्य भी ठहर गए हैं, जो इस रास्ते पर चलना चाहते थे। लोकसभा में भले बीजेपी का पूर्ण बहुमत हो लेकिन राज्यसभा में उसे तमाम दूसरे दलों पर निर्भर रहना पड़ता है। इस वजह से फिलहाल किसी बड़े बदलाव की गुंजाइश नहीं दिखती।
दरअसल, पिछड़ा वर्ग की सूची में बेहद ज्यादा प्रतिस्पर्धा है। तमाम पिछड़ी जातियों को लगता है कि उन्हें उनका वाजिब हक नहीं मिल पा रहा। खासतौर से सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में दाखिले में पिछड़ा वर्ग के कोटे में दबदबे वाली जातियां ज्यादा हिस्सा ले जाती हैं।
वहीं, कमजोर पिछड़ी जातियां पीछे रह जाती हैं। अनुसूचित जाति सूची में शामिल जातियों के बीच इतनी कड़ी प्रतिस्पर्धा देखने को नहीं मिलती। ऐसे में पिछड़ा वर्ग में खुद को पिछड़ा महसूस करने वाली जातियों को लगता है कि अनुसूचित जाति में शामिल होने से वह पहले से मौजूद जातियों के मुकाबले ’20’ साबित हो सकती हैं। सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में दाखिले में उन्हें ज्यादा हिस्सा मिल जाएगा। साथ ही संसद, विधानसभाओं और अन्य निकायों में भी आरक्षण का लाभ मिलेगा।
संसद, विधानसभाओं और निकायों में अनुसूचित वर्ग के लिए सीटों का आरक्षण अलग से है जबकि पिछड़ा वर्ग के लिए इस तरह का कोई कोटा नहीं है। इसके अलावा अनुसूचित जाति वर्ग को पिछड़ा वर्ग के मुकाबले संवैधानिक कवच भी ज्यादा है। हालांकि, अनुसूचित जाति की सूची में शामिल होने की प्रक्रिया इतनी आसान नहीं है।
पिछड़ा वर्ग की सूची में राज्य स्तर पर बदलाव का कोई भी हक राज्य सरकार को है लेकिन अनुसूचित जाति वर्ग के मामले में ऐसा नहीं है। यह बदलाव केवल संसद द्वारा ही संभव होता है। यह परिवर्तन तभी होता है, जब केंद्र खुद इसकी जरूरत महसूस करे या फिर राज्य सरकार की तरफ से प्रस्ताव आए और केंद्र परीक्षण के बाद उससे संतुष्ट हो।
यूपी में बार-बार 17 पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की कोशिश सीधे तौर पर वोटबैंक से जुड़ी हुई है। यूं भी यूपी की राजनीति पिछड़ा वर्ग के दबदबे वाली है। पिछड़ा वर्ग में शामिल ये 17 अति पिछड़ी जातियां कुल पिछड़ा वर्ग की करीब-करीब आधी हैं। इस वजह से एकमुश्त वोटबैंक पर पहले एसपी और अब बीजेपी की नजर है।