यशोदा श्रीवास्तव
लोकसभा चुनाव की तिथि के नजदीक आते ही सरकारों को जनता की याद इस कदर आती है कि कई एक जनसभाओं में हुक्मरानों को रुआंसा हुआ तक देखा जाता।
वे अक्सर यह कहते हुए रुआंसे हो उठते हैं कि देश के 140 करोड़ जनता के लिए वे किस कदर मरते जीते हैं। जनता भी क्या खूब है, वह अपनी प्यारी सरकार पर सिर्फ एक झूठी आंसू पर फिर और बार बार जान छिड़कने को आतुर हो जाती है। सरकारों की ऐसी घड़ियाली आंसू नया नहीं है।
जनता पर ऐसी दरिया दिली कई दशकों की सरकारें दिखाती आई है। यह केवल अभी की सरकार की बात नहीं है। अभी के मामले में सिर्फ यह कहना है कि दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है,मानव सभ्यता और उसका ज्ञान कहां से कहां पहुंच गया लेकिन हाय री जनता इतने वर्षों के हर क्षेत्र में लगातार बदलाव के बाद वह खुद को नहीं बदल पाई। सरकार को वह अपना प्यारा सा नन्हा सा गोल मटोल बच्चा ही समझती है जिससे बार बार प्यार करने से भी जी नहीं भरता।
भले ही यह अभी का मामला न हो लेकिन मंहगाई, बेरोजगारी से जनता और युवा परेशान हैं। युवकों की परेशानी का आलम यह है कि परीक्षा के बाद उसे भरोसा नहीं रहता कि नौकरी मिल ही जाएगी। पेपर लीक से वह हताहत है। पेट्रोल डीजल और रसोई गैस की मंहगाई चरम पर है। खाद्य तेल और मसालों के दाम कई कई गुना बढ़ गए। राशन जिसे मुफ्त मिल रहा वे अन्य सामानों की मंहगाई से त्रस्त हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार इससे अवगत नहीं है लेकिन कहना मुश्किल है कि वह जनता की ऐसी दुर्दशा से चिंतित रहती है या आनंदित होती है।
रूसी शासक स्टालिन के बारे में कहा जाता है कि वह बहुत क्रूर शासक था। एक बार वह अपने कैबिनेट मीटिंग में एक मुर्गा लेकर पंहुचा, अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों के सामन वह मुर्गे का पंख नोच कर फेंकने लगा। मुर्गा तड़प रहा था। स्टालिन मंत्रिमंडल के सहयोगी हतप्रभ थे कि यह क्या चल रहा है? उधर स्टालिन जब मुर्गे का सारा पंख नोच चुका तो उसे तड़पता हुआ जमीन पर रख दिया। थोड़ी देर बाद मुर्गे के सामने दाना फेंकने लगा। मुर्गा दाना चुनते चुनते स्टालिन के पैर पर आकर लेट गया। तब स्टालिन अपने मंत्रियों से कहा देखिए,यह जनता है। स्टालिन के बारे में कइयों से ऐसा सुनकर यह कहना मुश्किल है कि ऐसा सिर्फ रूस में था या विश्व के कुछ और देशों की जनता की भी हालत ऐसी ही है?
गैस सिलेंडर की मंहगाई से जनता अभी कुछ रोज पहले से ही परेशान नहीं थी। मंहगाई की यह मार कई सालों से थी लेकिन हमारी सरकार को कुछ रोज पहले ही याद आया और उसने सौ रुपए दाम घटा दिए। मुमकिन है एक दो रोज में पेट्रोल डीजल के भी दाम कम हो। इतना ही नहीं हमारे प्रधानमंत्री लगातार प्रदेशों के दौरे पर हैं।
खास बात यह है कि वे जहां जाते हैं वहां अरबों की योजनाओं की सौगात देते हैं। सवाल यह है कि सरकार इस तरह की लोकलुभावन सौगातों की याद चुनाव के एन वक्त ही क्यों आती है? क्या उसे इस बात का पक्का यकीन होता है कि ऐसा करने से ही जनता उसे वोट देगी। वोट तो पूरे शासन काल में किए गए विकास कार्यों से भी मांगा जा सकता है लेकिन कुछ हुआ हो तब न! हैरत है कि सत्ता रूढ़ दल के शीर्ष नेता कश्मीर में समाप्त की गई अनुच्छेद 370 और राम मंदिर को ही सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं। वे रोजगार और मंहगाई पर मुंह ही नहीं खोलते।
आज भी संसद में बहुत सारे सांसद मौजूद हैं जो कई बार से जीत रहे हैं लेकिन यदि उनके क्षेत्र में घूम कर उनकी उपलब्धि के बारे में जानें तो पता चलेगा कि वे तो कुछ किए ही नहीं फिर भी जीतते चले आ रहे हैं। यूपी का पूर्वी हिस्सा कभी चीनी का कटोरा के नाम से मशहूर था। यहां दो दर्जन से अधिक चीनी मिलें थी जिसकी वजह से पूरा क्षेत्र समृद्धि और खुशहाल था। अब एक एक कर सभी चीनी मिलें बंद हैं। चीनी मिलों के बंद होने से यहां गन्ना की खेती समाप्त हो गई।
बेरोज़गारी बढ़ा और गांव के गांव विपन्न होते गए। किसी जनप्रतिनिधि ने चीनी मिलों के चलने पर जोर नहीं दिया। सुन कर बहुत अच्छा लगता है कि यूपी में दुनिया भर के उद्दोगपति भारी निवेश करने को आतुर हैं तो क्या इसमें एक भी ऐसा उद्दोग नहीं जिस श्रेणी में चीनी मिल आता है और जिससे युवा और किसान दोनों खुशहाल हों। अफसोस कि इस ओर न तो प्रदेश सरकार का ध्यान आ रहा और न ही केंद्र सरकार का। विकास के नाम पर लंबी चौड़ी सड़कें तो है लेकिन इससे उजड़े हुए परिवार भी हैं जिसकी संख्या हजारों में है। हम एक ओर पांचवें अर्थव्यवस्था का दावा करते हैं वहीं दूसरी ओर 80 करोड़ को मुफ्त राशन पर गर्व भी करते हैं। दावे और हकीकत में इतना अंतर्विरोध पहले कभी नहीं देखा गया।