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डंके की चोट पर : इसे मैंने आखिर लिख क्यों दिया?

शबाहत हुसैन विजेता

पश्चिम अफ्रीका के एक फुटबाल खिलाड़ी हैं सादियो माने सेनेगल. 27 साल का यह खिलाड़ी छह करोड़ रुपये महीना कमाता है. एक प्रेस कांफ्रेंस में उनके मोबाइल के टूटे हुए स्क्रीन को देखकर एक पत्रकार ने सवाल किया कि आप टूटा हुआ मोबाइल लेकर घूम रहे हैं. सेनेगल ने कहा कि इसे बनवाने का वक्त ही नहीं मिला. पहली फुर्सत में यही काम करुंगा. पत्रकार ने पूछा कि नया मोबाइल क्यों नहीं खरीद लेते तो उन्होंने कहा कि ऐसे एक हज़ार मोबाइल फोन इसी वक्त खरीद सकता हूँ. मैं चाहूँ तो दो जेट प्लेन खरीद लूं, मैं चाहूँ तो दस फरारी गाड़ियाँ खरीद लूं, चाहूँ तो डायमंड की घड़ियां पहनूं लेकिन मुझे आखिर यह सब क्यों चाहिए?

एक उंगली से अपनी आँखों में उतर आयी नमी को पोछते हुए सेनेगल ने कहा कि गरीबी की वजह से मैं पढ़ नहीं पाया. यही वजह है कि जब पैसा होता है तो स्कूल खोल देता हूँ. मैं ढेर सारे स्कूल खोल चुका हूँ ताकि मेरे जैसे किसी गरीब को यह तकलीफ न हो कि गरीबी की वजह से पढ़ नहीं पाया. मैं फ़ुटबाल खेलता था लेकिन मेरे पाँव में जूते नहीं थे. खेलते वक्त रोजाना चोट लगती थी मगर जूते खरीद नहीं सकता था. मेरे पास अच्छे कपड़े नहीं थे, अच्छा खाना नहीं था. आज मेरे पास पैसे हैं तो मैं अपनी कमाई लोगों में बांटना चाहता हूँ.

आईपीएस नवनीत सिकेरा से सेनेगल के बारे में यह जानकारी मिली तो सहसा यकीन नहीं हुआ कि इस दुनिया में आज भी ऐसे लोग हैं.

आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के वाइस प्रेसीडेंट थे मौलाना डॉ. कल्बे सादिक. धार्मिक व्याख्यान के लिए डॉ. कल्बे सादिक दुनिया भर में घूमते थे. मोहर्रम के सवा दो महीने वह अमेरिका और ब्रिटेन में ही रहते थे. यह दोनों देश धार्मिक व्याख्यान के एवज़ में उन्हें खूब पैसा देते थे. उन्होंने बेशुमार पैसा कमाया लेकिन मामूली सा कुर्ता पैजामा और शेरवानी ही उनकी पोशाक बनी रही. विदेशों में उन्होंने ऐसे लोग भी तलाश किये जो एजूकेशन और मेडिकल फैसीलिटीज़ को बेहतर बनाने के लिए पैसा खर्च करते हैं. मौलाना डॉ. कल्बे सादिक ऐसे लोगों के सम्पर्क में आ गए और इसके बाद पैसों की बारिश शुरू हो गई. उनके एकाउंट में बेशुमार पैसा आने लगा लेकिन उनके रहन-सहन में कोई फर्क नहीं आया.

पुराने लखनऊ में मोहर्रम के दौरान अक्सर दंगे हुआ करते थे. इन दंगों में माल का भी नुक्सान होता था और जान का भी लेकिन मौलाना डॉ. कल्बे सादिक ने इन दंगों को लेकर कभी सियासत नहीं की. उनका कहना था कि दंगा जाहिल लोग करते हैं. पढ़े-लिखे लोगों के पास इस तरह के काम के लिए फुर्सत ही नहीं होती. मौलाना ने पुराने लखनऊ के हुसैनाबाद में यूनिटी कालेज शुरू किया. यूनिटी कालेज को दो शिफ्ट में चलाया जाता है. पहली शिफ्ट में वह बच्चे पढ़ते हैं जिनके माँ-बाप के पास स्कूल की फीस देने के लिए पैसे हैं. दूसरी शिफ्ट में वह बच्चे पढ़ते हैं जिनके पास फीस के पैसे नहीं हैं.

इस स्कूल में एडमिशन के लिए किसी वर्ग विशेष का होने की ज़रूरत नहीं है. माँ-बाप गरीब हैं तो बच्चे को यूनिटी स्कूल पढ़ायेगा. मौलाना डॉ. कल्बे सादिक का स्पष्ट कहना था कि एक पीढ़ी को पढ़कर निकलने में 20 साल का वक्त लगेगा. 20 साल के बाद दंगाई खत्म हो जाएंगे. मौलाना कल्बे सादिक ने यह काम कर दिखाया.

स्कूल चलाने के अलावा मौलाना का एक और काम था. किसी गरीब बच्चे ने अगर इंजीनियरिंग या मेडिकल का इंट्रेंस इक्जाम पास कर लिया है लेकिन उसके पास फीस का पैसा नहीं है तो डॉ. कल्बे सादिक अपने स्टाफ से उसकी पूरी पड़ताल कराने के बाद जिस कालेज में एडमिशन होता था वहां सीधे फीस जमा करा देते थे. गरीब लड़कियों की शादी और गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए भी मौलाना खुले हाथ से पैसा बांटते थे.

मौलाना डॉ. कल्बे सादिक ने कभी इस बात की परवाह नहीं की कि कोई उन्हें क्या कहता है. हुकूमत किसी की भी हो लेकिन वह किसी के दरवाज़े पर कभी नहीं गए. जिस सियासी व्यक्ति को मुलाक़ात करनी हो वह उनके दरवाज़े पर आये. बीमारों को अच्छा इलाज दिलाने के लिए इरा मेडिकल कालेज (अब यूनिवर्सिटी) खोलने में उन्होंने काफी मदद की. अपनी रात-दिन की मेहनत के बदले में किसी ने भी उन्हें कोई सम्मान देना चाहा तो उन्होंने साफ़ इनकार कर दिया.

अखिलेश यादव जब मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने कई धर्मगुरुओं को अपने आवास पर बुलाकर सम्मानित किया था. उस लिस्ट में डॉ. कल्बे सादिक का नाम भी था. उनका नम्बर आया तो वह उठकर गए लेकिन सम्मान लेने से पहले दो मिनट बोलने की इजाजत माँगी. उन्होंने कहा कि मैं दंगों को खत्म करना चाहता हूँ जो सिर्फ शिक्षा के प्रसार से ही रुक सकते हैं. शिक्षा को बढ़ाने के लिए मैं रात-दिन मेहनत कर रहा हूँ. मैं बीमारों का मर्ज़ खत्म करना चाहता हूँ इसलिए मरीजों की ज़िन्दगी बचाने के लिए ज़रूरी मशीनें दुनिया के दूसरे देशों से लाकर मेडिकल कालेज में लगवा रहा हूँ. इन कामों के लिए अगर सम्मान देने के लिए सरकार सोच रही है तो यह काम अभी अधूरे हैं, अधूरे काम का कोई अवार्ड नहीं होता है.

मौलाना ने कहा कि अखिलेश यादव युवा हैं, मुख्यमंत्री हैं. जनता के लिए काम कर रहे हैं. अवार्ड तो उन्हें मिलना चाहिए. इसके बाद मौलाना डॉ. कल्बे सादिक ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के गले में अंगवस्त्रम डाला और ट्रे में रखा मोमेंटो उठाकर अखिलेश यादव को पकड़ा दिया. अवार्ड लेने के बाद अखिलेश ने झुककर डॉ. कल्बे सादिक के पैर छुए और कल्बे सादिक ने अखिलेश को गले से लगा लिया. डॉ. कल्बे सादिक ने जीते जी कोई अवार्ड नहीं लिया. भारत सरकार ने मरणोपरांत उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया.

फिल्मों की कहानियां लिखने वाली सलीम-जावेद की जोड़ी का नाम आपने ज़रूर सुना होगा. सलीम जावेद यानि सलीम खान और जावेद अख्तर. सलीम खान सलमान खान के पिता हैं. सलीम खान के दरवाज़े पर रोजाना सुबह गंभीर बीमारियों के मरीजों की लाइन लगती है. सलीम खान का एक असिस्टेंट दरवाज़े से बाहर निकलता है और सभी मरीजों से बात करते और उनकी परेशानियों को सुनते हुए उनके पर्चे लेता हुआ आगे बढ़ता जाता है.पर्चे जमा होने के बाद यह असिस्टेंट एक-एक पर्चा निकालता जाता है और सम्बंधित अस्पताल के डॉक्टर से बात करता जाता है. मरीज़ की बीमारी और इलाज के बारे में पूरी जानकारी जुटाने के बाद पूरी डीटेल बनाकर सलीम खान को दे देता है. कुछ घंटों बाद सलीम खान अपने असिस्टेंट के साथ घर से बाहर निकलते हैं और मरीजों की लाइन में उनके पास जा-जाकर उनके पर्चे के साथ-साथ सम्बन्धित अस्पताल में जमा होने वाली रकम का चेक बांटते चले जाते हैं.

पश्चिम अफ्रीका के फ़ुटबाल खिलाड़ी सेनेगल की दरियादिली की दास्तान सुनने के बाद अचानक से ज़ेहन में डॉ. कल्बे सादिक और सलीम खान के चेहरे उभरे. इन चेहरों के साथ हज़ारों सवालों ने भी सीधे से हमला बोल दिया.

ग़मों और उलझनों से भरी इस दुनिया में मोहब्बत की बारिश सिर्फ इसी वजह से नहीं होती क्योंकि सादियो माने सेनेगल सिर्फ एक है. डॉ. कल्बे सादिक जैसा कोई दूसरा नहीं है. सलीम खान जैसी दरियादिली मुम्बई में कोई और नहीं दिखाता है.

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पैसा बहुत मुश्किल से आता है. ज़िन्दगी की तमाम ज़रूरतों को पैसा ही पूरा करता है. जेबों में पैसा भरा हो तो ज़िन्दगी स्मूथली चलती है. मगर यह पैसा रहती सांस तक ही साथ रहता है. सांस की डोर टूटते ही पैसा किसी काम का नहीं रह जाता है. पैसा इस दुनिया से उस दुनिया में नहीं जाता. पैसा इहलोक में तो काम आता है मगर परलोक तक नहीं जा पाता. एक फ़ुटबाल खिलाड़ी, एक धर्मगुरु और एक पटकथा लेखक ने इस सच्चाई को समझ लिया तो ज़रूरतमंदों तक मदद पहुँचने लगी है. यही बात धन्ना सेठों, धर्म का व्यापार करने वालों और अन्य बड़े खिलाड़ियों की समझ में भी आ जाये तो यही ज़मीन जन्नत में बदल सकती है.

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