शबाहत हुसैन विजेता
बीमारियां मौत की दहशत को साथ लेकर पैदा होती हैं. वह लोगों के भीतर पलती हैं, बड़ी होती हैं, चलते-फिरते इंसानों को लाशों में बदलती हैं. आंसुओं का सैलाब तैयार करती हैं. धीरे-धीरे लोगों को उन बीमारियों के साथ जीने की आदत पड़ती जाती है. डॉक्टर उन बीमारियों का इलाज ढूंढ लेते हैं. दवाइयां तैयार हो जाती हैं और बीमारियां इसी दुनिया में अपना मुकाम बना लेती हैं.
प्लेग, हैज़ा, बर्ड फ़्लू, स्वाइन फ़्लू और अब कोरोना. हर बीमारी ने बड़ी तादाद में इंसानी जानें ली हैं. हर बीमारी की दवाएं बन गईं और हर बीमारी यहीं बस गई. सबने अपना टाइम तय कर लिया है. अपने टाइम पर बीमारी आती है और टाइम बीत जाता है तो चली भी जाती है. कोरोना आया है. धीरे-धीरे वह अपने बसने के लिए जगह तैयार कर रहा है.
कोरोना ने सुपर पॉवर अमरीका तक को हिलाकर रख दिया. लाखों की तादाद में लोगों की जानें गईं. लाखों की तादाद में लोग अस्पतालों में हैं. रोज़ाना हज़ारों लोग इसका शिकार होते हैं और अस्पताल पहुंचते हैं. कोरोना के साथ जीते-जीते लोगों ने यह समझा है कि किसी भी देश में कोरोना से लड़ाई का रिश्ता उसके रिकवरी रेट से होता है. रिकवरी रेट जैसे-जैसे बढ़ता जाता है वैसे-वैसे यह बीमारी कमज़ोर पड़ती जाती है. भारत की बात करें तो अब करीब 20 हज़ार लोग रोजाना कोरोना से संक्रमित हो रहे हैं लेकिन अच्छी बात यह है कि अब रिकवरी रेट 58 से आगे निकल चुका है. ऐसे में कोरोना से लड़ाई अब उतनी मुश्किल नहीं रही है.
कोरोना के मामले में बीमारी के इलाज से ज्यादा इसके नाम से पैदा होने वाला डर खतरनाक है. कोरोना को लेकर जो गाइडलाइंस जारी की गई हैं वह यह बताती हैं कि यह संक्रामक रोग है. एक इंसान से दूसरे इंसान में यह ट्रांसफर होता है. इससे बचने के लिए बार-बार हाथ धोने, मुंह पर मास्क लगाने और सैनेटाइज़र इस्तेमाल करने की सलाह दी गई है.
थोड़ी सी सावधानियों के साथ ज़िन्दगी बसर करने पर यह बीमारी हमलावर होते हुए भी कुछ बिगाड़ नहीं पाती है लेकिन जिस तरह से सख्ती हो रही है. बंद गाड़ी में अकेला मौजूद शख्स भी मास्क नहीं लगाए है तो उसका भी चालान किया जा रहा है. बगैर मास्क के पैदल जा रहे लोगों का चालान भी हो रहा है. इस तरह की सख्ती ने बहुत से लोगों में शक की बीमारी को भी पैदा कर दिया है.
ऐसे लोगों की भी बड़ी संख्या है जो हर दूसरे शख्स को कोरोना के मरीज़ की शक्ल में देख रहे हैं. ऐसे लोगों के सामने शहर में कहीं भी कोरोना के मरीज़ मिलने की खबर आती है तो वह दहल जाते हैं. यह डर हर तरह के लोगों में है.
लखनऊ के सीनियर जर्नलिस्ट नवल कान्त सिन्हा कोरोना से संक्रमित हुए तो किंग जार्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी के वार्ड में अपना इलाज कराते हुए भी उन्होंने शहर के कई लीडिंग अखबारों में अपने एक्सपीरियंस साझा किये. कोरोना से कैसे बचा जाए यह भी उन्होंने बताया और कैसे लड़ा जाए इस पर भी रौशनी डाली. नवल के इस अंदाज़ पर हर कोई फ़िदा है. आल इण्डिया रेडियो ने उनका इंटरव्यू प्रसारित किया. कोरोना से जंग के दौरान उन्होंने खुद को सच्चा कोरोना वैरियर साबित करते हुए यह बताया कि हज़ारों की तादाद में कोरोना वैरियर के जो सर्टिफिकेट बांटे गए वह दरअसल नवल जैसे लोगों को दिए जाने चाहिए थे.
दूसरी तरफ मोहम्मद अब्बास जैसे जर्नलिस्ट भी हैं जो कोरोना के दौर में रिपोर्टिंग भी कर रहे हैं, देर रात तक खबरें भी लिख रहे हैं लेकिन जब से कोरोना शुरू हुआ तब से लगातार वह दो गज़ दूरी के रूल का सख्ती से पालन कर रहे हैं. तीन महीने से लगातार इस रूल को फालो करते-करते अब हालात यह है कि हर थोड़ी देर बाद सैनेटाइज़र का इस्तेमाल उनकी आदत हो चुकी है. मास्क ऑफिस में भी वह बहुत मुश्किल से उतारते हैं. हाथ तो छोड़िये उनका मोबाइल भी रोज़ाना चार-पांच बार सैनेटाइज़ होता है.
अब्बास के पुराने जर्नलिस्ट दोस्त धीरेन्द्र उनसे रोजाना खुद को बीमार बताते हैं. शहर में कहाँ-कहाँ कोरोना के मरीज़ पाए गए? कहाँ कन्टेनमेंट ज़ोन बने की खबरें उन्हें देते रहते हैं यह खबरें उन्हें बहुत परेशान करती हैं.
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यह सिर्फ इक्जाम्पिल हैं. बड़े लोगों की ऐसी तादाद है जो पिछले तीन महीने से अपने घर से नहीं निकले. उनके घर की सीढियां भी कोई बाहरी चढ़ गया तो उसे घंटों धोते हैं उसके बाद भी डरते हैं कि कोरोना हमला न कर दे.
कोरोना खतरनाक बीमारी है. इससे एहतियात बहुत ज़रूरी है लेकिन डर इतना भी न हो कि मुसीबत बन जाए. जब हैज़ा खत्म हो गया. प्लेग बहुत दिनों तक नहीं ठहर पाया. बर्ड फ़्लू और स्वाइन फ़्लू की उम्र बहुत लम्बी नहीं होती. टीबी का इलाज मिल गया और पूरी तरह से ठीक हो जाने वाला मर्ज़ बन गया तो फिर कोरोना को क्यों रोना. यह भी चला जाएगा. यह मुसीबत की तरह आया है तो इसे जाना भी पड़ेगा. इससे बचने की ज़रूरत है डरने की नहीं. यह आया है तो जाएगा ज़रूर. सिर्फ भरोसा बनाये रखने की ज़रूरत है.