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आखिर मुस्लिम क्यों कहते हैं वंदे मातरम को गैर इस्लामी

प्रीति सिंह

वंदे मातरम गीत पर हर बार का विवाद इस बहस को ताजा कर देता है कि देश के मुसलमान इस देशभक्ति के गाने को गाना नहीं चाहते हैं और इसलिए उनकी देशभक्ति संदिग्ध है।

इस सच्चाई को नहीं झुठलाया जा सकता कि अनगिनत शहीद, जिनमें भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकुल्लाह खान शामिल थे- वंदे-मातरम गाते हुए फांसी के फंदों पर झूल गए थे। फिर सवाल उठता है कि वंदे मातरम को लेकर इतना विरोध क्यों?

संसद में वंदेमातरम को लेकर हुआ विवाद

मंगलवार को संभल से चुने गए सपा सांसद शफीकुर्रहमान बर्क ने शपथ लेने के बाद वंदे मातरम को इस्लाम के खिलाफ बताते हुए ऐसे नारे न लगाने की बात कही। रहमान के इस बयान के बाद विपक्षी सांसदों से जोरदार हंगामा किया।

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उर्दू में शपथ लेने के बाद बर्क ने कहा कि भारत का संविधान जिंदाबाद लेकिन जहां तक वंदे मातरम का सवाल है यह इस्लाम के खिलाफ है और हम इसका पालन नहीं कर सकते। सांसद के यह कहते ही सदन में जोर-जोर से शेम-शेम के नारे गूंजने लगे।  शफीकुर्रहमान द्वारा वंदे मातरम को गैर इस्लामी कहने के बाद एक बार फिर बहस छिड़ गई है ।

वंदे मातरम का अर्थ और इतिहास

“वंदे मातरम्” का अर्थ है “माता की वन्दना करता हूँ”। ये पूरा गीत इस तरह है। इसका कई भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है।
बंकिम चंद्र चटर्जी ने जब वंदे मातरम गीत की रचना की, तब वो अंग्रेज सरकार में डिप्टी कलेक्टर थे। अंग्रेज शासकों ने उन्हें ‘राय बहादुर’ और सीआईइ जैसी उपाधियों से भी सम्मानित किया था।

यह गीत उन्होंने 1875 में लिखा जो बांग्ला और संस्कृत में था। बंकिम ने बाद में इस गीत को अपने प्रसिद्ध लेकिन विवादस्पद कृति ‘आनंदमठ’ (1885) में जोड़ दिया।

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इस गीत से जुड़ा एक रोचक सच यह है कि इसमें जिन प्रतीकों और जिन दृश्यों का जिक्र है वे सब बंगाल की धरती से ही संबंधित हैं। इस गीत में बंकिम ने सात करोड़ जनता का भी उल्लेख किया है जो उस समय बंगाल प्रांत (जिस में ओडिशा-बिहार शामिल थे) की कुल आबादी थी। इसी तरह जब अरबिंदो घोष ने इसका अनुवाद किया तो इसे ‘बंगाल का राष्ट्रगीत’ का टाइटल दिया।

“गॉड सेव द किंग” के जवाब में लिखा गया वंदेमातरम

दरअसल 1870-80 के दशक में ब्रिटिश शासकों ने सरकारी समारोहों में ‘गॉड! सेव द क्वीन’ गीत गाया जाना अनिवार्य कर दिया था। अंग्रेजों के इस आदेश से उन दिनों डिप्टी कलेक्टर रहे बंकिमचन्द्र चटर्जी को बहुत ठेस पहुंची। उन्होंने इसके विकल्प के तौर पर 1876 में विकल्प के तौर पर संस्कृत और बांग्ला के मिश्रण से एक नये गीत की रचना की। उसका शीर्षक दिया – ‘वंदे मातरम’।

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मुसलमानों के आपत्ति के कारण

वंदे मातरम को सबसे पहले आजादी के आंदोलनों के दौरान बंगाल में गाया जाता था। धीरे-धीरे ये पूरे देश में लोकप्रिय हो गया। इसे कांग्रेस के अधिवेशनों में भी गाया जाता था लेकिन बाद में इसे लेकर मुस्लिमों को आपत्ति होने लगी। कुछ मुसलमानों को “वंदे मातरम” गाने पर इसलिए आपत्ति थी, क्योंकि इस गीत में देवी दुर्गा को राष्ट्र  रूप में देखा गया है।

इसके अलावा मुसलमानों का यह भी मानना था कि ये गीत जिस “आनन्द मठ” उपन्यास से लिया गया, वह मुसलमानों के खिलाफ लिखा गया है।
इन आपत्तियों के मद्देनजर सन 1937 में कांग्रेस ने इस विवाद पर गहरा चिंतन किया। वंदे-मातरम पर विभाजन को रोकने के लिए गांधी, नेहरू, अबुल कलाम और सुभाष ने 1937 में जो समिति बनाकर आपत्तियां आमंत्रित की थी, उसमें सबसे बड़ी आपत्ति थी कि यह गीत एक धर्म विशेष के हिसाब से भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित करता है।

यह सवाल केवल मुसलमान संगठनों ने ही नहीं बल्कि सिख, जैन, ईसाई और बौद्ध संगठनों ने भी उठाया था। इसका हल यह निकाला गया कि इस गाने के शुरू के केवल दो अंतरे गाए जाएंगे जिनमें कोई धार्मिक पहलू नहीं है। लेकिन लेकिन इससे हिन्दू और मुसलमान सांप्रदायिक तत्व संतुष्ट नहीं हुए थे।

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इस तरह गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर के “जन-गण-मन अधिनायक जय हे” को यथावत राष्ट्रगान रहने दिया गया। मोहम्मद इकबाल के कौमी तराने “सारे जहां से अच्छा” के साथ बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा रचित शुरुआती दो पदों का गीत “वंदे मातरम्” राष्ट्रगीत के तौर पर स्वीकृत हुआ।
आजादी के बाद डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा में 24 जनवरी 1950 में ‘वंदे मातरम्’ को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने संबंधी वक्तव्य पढ़ा, जिसे स्वीकार कर लिया गया।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

सर्वोच्च न्यायालय ने वंदे मातरम संबंधी एक याचिका पर फैसला दिया था कि यदि कोई व्यक्ति राष्ट्रगान का सम्मान तो करता है पर उसे गाता नहीं तो इसका मतलब ये नहीं कि वो इसका अपमान कर रहा है। इसलिए इसे नहीं गाने के लिये उस व्यक्ति को दंडित या प्रताडि़त नहीं किया जा सकता। चूंकि वंदे मातरम इस देश का राष्ट्रगीत है तो इसको जबरदस्ती गाने के लिये मजबूर करने पर भी यही कानून व नियम लागू होगा।

क्या है समाधान

इस विवाद के समाधान में जरा भी मुश्किल नहीं है। 1937 में कांग्रेस की ओर से स्थापित समिति ने जो फैसला दिया था उसको लागू किया जाए।

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