जुबिली न्यूज डेस्क
1990 के दशक में अनुमानित तौर पर 76,000 कश्मीरी पंडित उग्रवाद की शुरुआत के दौरान हत्या और धमकियों के बीच कश्मीर छोड़कर चले गए थे। हालांकि कुछ परिवार ऐसे भी थे, जिन्होंने यहीं रहने का निर्णय किया था।
वर्तमान में कश्मीरी पंडितों के बाकी बचे हुए 808 परिवार अभी भी घाटी में 242 स्थानों पर रह रहे है। आज कश्मीर के हालात सुधरने का दावा किया जा रहा है पर इनकी जिंदगी में कोई सुधार नहीं है। इनके सामने बहुत सारी समस्याएं मुंह बाये खड़ी हैं।
खबर ये है कि घाटी के युवा कश्मीरी पंडित 21 सितंबर से 300 साल पुराने एक मंदिर परिसर में आमरण अनशन शुरू किया है।
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ये भूख हड़ताल पर क्यों है ये भी जानिए। कश्मीरी पंडितों की आबादी कश्मीर की आबादी का एक छोटा हिस्सा हैं, पर इन परिवारों के पास रोजगार के अवसरों की कमी हैं। जिन लोगों के पास अवसर हैं, वे बेहतर रोजगार की संभावनाओं के लिए अपने परिवार के साथ घाटी छोड़ रहे हैं जबकि बाकी निराशा के गर्त में जी रहे हैं।
ये केंद्र सरकार की वादाखिलाफी से दुखी हैं। दरअसल केंद्र सरकार ने कश्मीर में रह रहे 808 कश्मीरी पंडित परिवारों को एक नौकरी देने का वादा किया था लेकिन प्रशासन को बार-बार याद दिलाए जाने के बाद भी रोजगार नहीं मिला। इस वजह से युवा कश्मीरी पंडित खफा हैं और उन्होंने भूख हड़ताल शुरू कर दी है।
घाटी में रहने वाले कश्मीरी हिंदुओं के लिए काम करने वाली कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति (केपीएसएस) के मुताबिक, उग्रवाद के दौरान हत्याओं और नरसंहारों में 850 कश्मीरी पंडितों की मौत हो गई।
कश्मीरी पंडितों के नरसंहार पर खूब राजनीति हुई पर उनके हालात नहीं सुधरे। इनके नाम पर राजनीतिक दल फलने-फूलने लगे पर इनकी हालत जस की तस बनी हुई है।
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आमरण अनशन पर बैठी 26 वर्षीय वसुंधरा टुल्लू की सुनिए। ये श्रीनगर के हब्बा कदल इलाके में अपने नाना के घर रहती हैं। वसुंधरा के नाना गणपतयार मंदिर में पुजारी थे। छोटी-छोटी गलियों और तंग घरों वाला यह मोहल्ला झेलम नदी के किनारे बसा है।
जब वसुंधरा बहुत छोटी थी, तब उनके माता-पिता अलग हो गए थे। वह कहती हैं, ‘मेरी मां कामकाजी नहीं हैं। जबसे नाना-नानी के गुजरे हैं, मैं ही घर संभाल रही हूं।’
वह कहती हैं- अपने पड़ोस के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हूं। उसी से जीवन यापन हो रहा था, लेकिन कोरोना महामारी की वजह से आर्थिक स्थिति खराब हो गई है। अब तो थोड़ी-बहुत बचत से ही काम चला रही हूं।
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वसुंधरा कहती हैं, ‘मैंने कश्मीर यूनिवर्सिटी से इलेक्ट्रॉनिक्स में अपनी मास्टर्स डिग्री पूरी की है। ऐसा नहीं है कि हम सरकार से दान मांग रहे हैं। हम यहां सभी पढ़े-लिखे लोग हैं।’
वसुंधरा की ही तरह कुलगाम जिले के तेंगबल गांव के एक कश्मीरी हिंदू भूपिंदर सिंह (34) लॉकडाउन के पहले से निजी स्कूल में पढ़ा रहे थ।. उनका कहना है, ‘एक साल से अधिक समय से स्कूल बंद हैं और मेरी आय से मेरी जरूरतें पूरी नहीं हो रही हैं।’
वसुंधरा कहती हैं, ‘हमारे लिए यह सिर्फ लाभ पाने का मसला नहीं है, यह हमारे जिंदा रहने का मसला है। अगर जिस रोजगार का हमें वादा किया गया है, वो हमें नहीं दिया गया तो हमारे पास भूखों मरने के अलावा कोई चारा नहीं बचेगा। तो उस तरह मरने के बजाय मैंने भूख हड़ताल करने का फैसला किया।
भूपिंदर ने अंग्रेजी में पोस्ट ग्रेजुएशन किया है। वे दक्षिण कश्मीर के एक निजी स्कूल में पढ़ाते हैं और परिवार में पांच सदस्य हैं, जिसमें एकमात्र कमाने वाले शख्स वे हैं। परिवार में उनके बीमार माता-पिता, पत्नी और आठ महीने का बच्चा है।
2007 में केपीएसएस के एक प्रतिनिधिमंडल ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात कर एक बार रोजगार और वित्तीय पैकेज के लाभों के विस्तार की मांग की थी, आखिरकार जिनकी घोषणा साल 2009 में हुई थी।
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