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बौद्ध दीक्षा से क्यों कतराता है आज का अंबेडकरवाद

के.पी. सिंह

बाबा साहब अंबेडकर की विरासत का दावा करने वाले गणमान्यों के बारे में भी जब यह रहस्योदघाटन हुआ कि उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण नही किया है तो लोग आश्चर्यचकित रह गये। यह अधूरा अंबेडकरवाद है। जिसे लेकर सहज ही छल की आशंका होती है।

दीक्षा के सियासी परिणामों का इंतजार रहा अधूरा

बाबा साहब अंबेडकर ने दशहरे के दिन 14 अक्टूबर 1956 को बौद्ध धर्म की दीक्षा नागपुर में लाखों लोगों के साथ ग्रहण की थी। उस समय वे अपनी पार्टी शेड्यूल कास्ट फेडरेशन को रिपब्लिकन पार्टी में परिवर्तित करने का इरादा बना चुके थे। महान समाजवादी विचार और योद्धा डा. राममनोहर लोहिया से उनकी चुनाव में गठबंधन को लेकर बात हो चुकी थी। लेकिन दो महीने से भी कम समय में दीक्षा लेने के बाद उनका निधन हो गया।

सवाल यह है कि क्या बौद्ध हो जाने की वजह से बाबा साहब को 1957 के दूसरे लोकसभा चुनाव में राजनैतिक तौर पर ज्यादा क्षीण स्थिति का सामना करना पड़ सकता था। वर्तमान में मुख्य धारा के दलित नेताओं को यह डर है कि बौद्ध बनने से वे अपने ही समाज से कट सकते हैं। उनका यह डर कितना वाजिब है तब पता चल सकता था जब अंबेडकर बौद्ध दीक्षा लेने के बाद कम से कम 10 साल और जीवित रहते।

बाबा साहब गहन अध्येता थे। बौद्ध दर्शन में भी उन्होंने जबर्दस्त पैठ बनाई थी। इसके बाद उन्होंने इसे अपनाने का फैसला किया था। लेकिन इस फैसले के पीछे दर्शन से ज्यादा बौद्ध परंपरा के साथ गर्भनाल का उनका वह संबंध था जो लहू पुकारेगा की तर्ज पर उनकी धमनियों में गूंजने लगा था।

धम्म को अपनाने के पीछे थी भावुक तड़प

बाबा साहब की स्थापना थी कि दलित और अछूत बनाये गये समुदाय वे हैं जो पुष्यमित्र शुंग के शासन के दौरान दमन की चपेट में लाये गये क्योंकि उन्होंने बौद्ध धर्म को छोड़ने से इंकार कर दिया था।

बाबा साहब की धारणा यह थी कि वे नागवंशीय क्षत्रियों की संतान हैं। जिनकी राजधानी नागपुर थी। वे बौद्ध धर्म का परित्याग करने की शर्त के आगे नहीं झुके जिससे उन्हें बहिष्कृत कर अछूत की श्रेणी में धकेल दिया गया। अगर बाबा साहब जीवित रहते तो शायद उनकी यह मार्मिक हूंक जनज्वार में तब्दील हो सकती थी।

जोखिम लेने से डरते हैं दलित नेता

लेकिन आज दलित नेता इस मामले में जोखिम उठाने को तैयार नही हैं। भारतीय समाज आत्मबल से चुके हुए लोगों के समाज के बतौर नजर आता है। उस समय भी तो लोग परखी हुई आस्था की बजाय मनमाने तरीके से किसी विश्वास को क्रूरता पूर्वक थोपने के प्रतिकार के लिए सामने नही आ सके थे।

जिन धारणाओं को बल देने के लिए राणा प्रताप जयंती मनाने का फैशन शुरू हुआ है अगर उन्हें सही मान लिया जाये तो शूरवीर प्रताप के साथ समकालीन कितने सजातीय थे जो लड़ने के लिए सामने आये हों। अन्य प्रांत को तो शायद कोई नही और राजपूताना के भी 90 प्रतिशत सजातीय मुगल सत्ता के साथ थे। सत्ता से मुठभेड़ न कर पाने की कातरता और जमाना गुजर जाने के बाद अतीत के प्रेतों से लड़कर शौर्य तृप्ति करने का शगल।

चारित्रिक उत्थान की पद्धति है धम्म

धर्म अगर विहित अनुष्ठानों का नाम है तो बौद्ध धर्म नही है। यह दर्शन एक पंथ है जिसे धम्म कहा जाता है। यह चारित्रिक उत्थान के नियम और प्रक्रियायें तय करता है जिससे मजबूत आत्मबल का विकास हो। जय-पराजय का बहुत कुछ संबंध आत्मबल से है।

बाबा साहब अंबेडकर के पुत्र यशवंत का उपयोग किसी उद्योगपति ने एक बड़ा सरकारी ठेका लेने के लिए करना चाहा तो बाबा साहब ने अगले ही दिन अपेन पुत्र का ट्रेन का टिकट दिल्ली से नागपुर के कटवा दिया। गांधी जी के आगे संसार की सबसे शक्तिमान ब्रिटिश सत्ता को उनके तबोबल के चलते ही झुकना पड़ा जो उनके सत्याग्रह और त्यागमय जीवन में निहित था।

स्वयंभू जिहादियों के लिए तृष्णा पर विजय नामुमकिन

बौद्ध दीक्षा का मतलब तृष्णाओं पर विजय प्राप्त करना है। जिसे तथागत ने दुख का मूल कारण माना है। बौद्ध दीक्षा लेने का मतलब है पंचशील और अष्टांगिक मार्ग का अनुशीलन करने की बाध्यता। तृष्णा के कारण यह सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन के स्वयंभू जिहादियों को मुश्किल ही नही असंभव लगता है।

खासतौर से उन लोगों को जिनका वर्गीय आधार भ्रष्टाचार की छूट के लिए तड़प रहे सरकारी कार्मिक रहे हैं। हथकंडों से सत्ता परिवर्तन हो सकता है, व्यवस्था परिवर्तन नहीं। व्यवस्था परिवर्तन के लिए नीव का पत्थर बनने को तैयार नस्लों की जरूरत पड़ती है। बौद्ध दीक्षा से परहेज की एक वजह इसका मनोबल न होना भी है।

धम्म की आंतरिक लोकतंत्र की नसीहत भी नहीं गवारा

बौद्ध धर्म सार्वभौम और सार्वकालिक है। इसीलिए यह दुनिया का पहला मिशनरी धर्म बना जिसे हर नस्ल और हर भू-भाग के लोगों ने तलवार के जोर के बिना अपनाने की ललक दिखाई। समकालीन शासनाध्यक्ष राजकाज में भी तथागत बुद्ध से निर्देश लेते थे। वैशाली को हड़पने के लिए मगध के महत्वाकांक्षी राजा अजातशत्रु ने कई बार प्रयास किया लेकिन हर बार असफल रहा। उसने अपने मंत्री को इस बारे में तथागत से मंत्र हासिल करने के लिए भेजा। उसकी बात सुनकर तथागत ने उसे तो कोई उत्तर नही दिया लेकिन अपने प्रिय शिष्य आनंद को संबोधित करते हुए जो कहा वह स्मरणीय है।

उन्होंने कहा कि जब तक वैशाली राज्य के लिच्छिवी शासक किसी निर्णय पर पहुंचने के लिए सामूहिक विचार विमर्श, उसमें जो फैसला हो उसे मानने, कानून का पालन करने और स्त्रियों और बुजुर्गों का सम्मान करने जैसी अपनी प्रक्रियाओं के मुताबिक काम करते रहेगें, उन्हें पराजित नही किया जा सकेगा।

आंतरिक लोकतंत्र का इसमें निहित बीज मंत्र आज भी प्रासंगिक है। लेकिन जो लोग आंतरिक लोकतंत्र को आत्मघाती मान बैठे हैं उनके लिए क्या बौद्ध दीक्षा संभव है। तथागत को प्रवज्या क्यों लेनी पड़ी। रोहिणी नदी के जल बटवारे के विवाद को लेकर शाक्यों की गण सभा में जब बहुमत से यह फैसला हुआ कि सिद्धार्थ कोलियों के विरुद्ध युद्ध में भाग लेगें तो ऐसा न करने की प्रतिबद्धता की वजह से शाक्य गण सभा के कानून के मुताबिक उन्होंने राजपाट छोड़कर देश से निकल जाने की सजा स्वीकार की और इस क्रम में अपने जीवन को सत्य की खोज के लिए समर्पित करने की घोषणा कर डाली।

यह कहानियां छूठी है कि सिद्धार्थ ने रात के अंधेरे में अपनी पत्नी यशोधरा और दुधमुंहे पुत्र राहुल को अनाथ छोड़कर सन्यास के लिए गमन कर दिया था। सत्य यह है कि शाक्यों की गण सभा के अगले दिन उन्होंने यशोधरा से बाकायदा सन्यास पर जाने के लिए विदाई ली थी।

बेहतर लोकतंत्र के लिए कैसे प्रासंगिक है धम्म

जो भी हो बौद्ध धम्म के केंद्र में ईश्वर और परलोक न होकर जिंदा मनुष्य और उसका समाज है जिसे राजनीतिक तरीके से बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय के सांचे में ढालने के लिए औपचारिक दीक्षा की जरूरत भले ही उतनी न हो लेकिन क्रिया विधि में उनके सिद्धांतों का अनुकरण होना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं ) 

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