न्यूज डेस्क
लोकसभा चुनाव से पहले दो दशक तक आमने-सामने रहे समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) एक साथ आए तो इसे राजनीति की बड़ी घटना के तौर पर देखा गया। मोदी को रोकने के लिए अखिलेश यादव और मायावती ने राष्ट्रीय लोकदल को भी साथ लिया।
लेकिन नतीजों ने साबित किया कि मजबूत जातीय गणित के बावजूद इनकी केमिस्ट्री गड़बड़ा गई। दलित-पिछड़ों की सोशल इंजीनियरिंग जमीन पर नहीं उतर सकी। मायावती के साथ बावजूद अखिलेश अपने पार्टी के साथ-साथ परिवार को भी नहीं जीता पाए।
नेता से ब्राण्ड बन चुके नरेंद्र मोदी के नाम को बीजेपी और उसके साथी दलों ने अच्छे से भुनाया। बीजेपी के सभी प्रत्याशियों ने मोदी के चेहरे पर वोट मांग और उसका लाभ भी उन्हें मिला। जनता ने अपने एमपी के बजाए प्रधानमंत्री के लिए वोट डाला। जिसके बदौलत बीजेपी को प्रचंड बहुमत मिला।
2014 में मोदी लहर में परिवार के गढ़ बचाने वाली सपा बदायूं, कन्नौज, और फिरोजाबाद में तगड़ा झटका लगा है। वहीं, मायावती ने सपा की साईकिल पर सवारी करते हुए 10 सीटों पर जीत हासिल की। पिछले चुनाव में बसपा और आरएलडी अपना खाता भी नहीं खोल पाई थी और सपा मुलायम परिवार के बदौलत पांच सीट जीती थी।
इस बार बसपा 38, सपा 37 और आरएलडी 3 सीटों पर गठबंधन करके चुनाव लड़ा। जातीय गणित को देखते हुए उसकी सफलता को लेकर बड़े कयास लगाए जा रहे थे। लेकिन जिस तरह के प्रदर्शन की उम्मीद की थी, इन पार्टियों को उसमें नाकामी हाथ लगी है।
लोकसभा चुनाव के नतीजों पर नजर दौड़ाएं तो साफ दिखता है कि यूपी में सपा-बसपा के समीकरणों ने धरातल पर काम नहीं किया। ये दोनों पार्टियां राज्य में हो रहे बदलाव को समझने में सफल नहीं रहीं।
दलित, पिछड़े और मुस्लिम वोटों की गोलबंदी कर बड़ी जीत हासिल करने की उम्मीद कर रहे गठबंधन के सारे गणित ध्वस्त हो गए हैं। माना जा रहा है कि यह गठबंधन लोगों तक अपनी बात पहुंचाने में नाकाम रहा है।
राजनीतिक जानकारों के मुताबिक बसपा का वोट सपा के कैंडीडेट के लिए ट्रांसफर न होना मुख्य वजह मान रहे हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक लंबी लड़ाई के बाद सपा-बसपा के गठबंधन को बूथ स्तर पर कार्यकर्ता हजम नहीं कर सके। यही वजह है कि बसपा का काडर वोट सपा में ट्रांसफर नहीं हो सका है। जबकि सपा का वोट बसपा में ट्रांसफर होने की बात कही जा रही है।
इसके अलावा कांग्रेस को शामिल ना करना भी कुछ हद तक इस गठबंधन के खिलाफ गया है। कांग्रेस के उम्मीदवार कई सीटों पर इस गठबंधन के लिए वोटकटवा साबित हुए हैं।
जानकारों के मुताबिक उत्तर प्रदेश के चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवारों ने गठबंधन उम्मीदवारों हराने में बड़ा काम किया है। ऐसा इसलिए कि कांग्रेस ने महागठबंधन में शामिल न होकर अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया। उसके कैंडीडेट हर सीट पर पीछे रहे उन्होंने गठबंधन का ही वोट काटने का काम किया। अगर कांग्रेस गठबंधन के साथ आती तो वोट बंट नहीं पाते और बीजेपी को पसंद न करने वाले मतदाता गठबंधन के पाले में आ जाते। लेकिन अकेले अकेले चुनाव लड़ने से मतदाता छिटक गया।
उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से एसपी को 5, बीएसपी को 10 और आरएलडी को एक भी सीट नहीं मिली है। वहीं जिस बीजेपी को इन पार्टियों के गठबंधन से बड़ा खतरा बताया जा रहा था, पिछले चुनाव की तुलना में उसकी 9 सीटें ही कम हुई हैं। बीजेपी को 2014 में यूपी की 71 सीटें मिली थीं, इस बार उसे 62 सीटें मिली हैं।
2018 के लोकसभा उपचुनावों में सपा-बसप ने साथ आकर बीजेपी के हाथ से जिन 3 सीटों (फूलपुर, गोरखपुर, कैराना) को छीना था, बीजेपी ने उन सीटों को भी एक बार फिर अपने नाम कर लिया है।
बात वोट शेयर की करें तो यूपी में बीजेपी को 49.56 फीसदी वोट मिले हैं। उधर सपा को 17.96 फीसदी, बसपा को 19.26 फीसदी और आरएलडी को 1.67 फीसदी वोट मिले हैं। इस तरह सपा-बसपा-आरएलडी को यूपी में कुल 38.89 फीसदी वोट मिले हैं, जो बीजेपी को मिले वोटों से काफी कम हैं।
इन आंकड़ों से साबित हो गया है कि मायावती और अखिलेश यादव ने जिस मकसद से पुरानी दुश्मनी भुलाकर चुनावी गठबंधन किया, वे उसमें पूरी तरह नाकाम साबित हुए हैं। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के चुनावी प्रबंधन के साथ-साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शख्सियत अखिलेश-मायावती गठजोड़ पर भारी पड़ी है।
इन नतीजों का असल प्रदेश की राजनीति में आगे तक दिखाई देगा। लोकसभा चुनाव के परिणाम ने यह भी साफ कर दिया कि सपा,बसपा और रालोद के गठबंधन की गणित से लोगों को कुछ सकारात्कम सदेंश मिलता नहीं दिखा। सिवाय इसके कि गठबंधन का मकसद सिर्फ बीजेपी और नरेंद्र मोदी की सरकार न बनने देना।
जानकारों की माने तो गठबंधन के फेल होने का मतलब जातीय खांचों का टूटना है। बीजेपी ने कुंभ, अयोध्या, सर्जिकल स्ट्राइक, कश्मीर पर केंद्र की रणनीति और राष्ट्रवाद का रंग लोगों पर चढ़ाया उससे भी बीजेपी को गठबंधन की गणित को निष्प्रभावी बनाने में मदद मिली है।