राजीव ओझा
विधानसभा की कार्यवाही के दौरान अक्सर हंगामा होता है, सदन में धरना भी होता है और इसके चलते कार्यवाही स्थगित करनी पड़ती है। यदाकद सत्तारूढ़ दल के विधायक अपनी सरकार के खिलाफ आवाज या असंतोष व्यक्त करते हैं। यही लोकतंत्र की खूबसूरती है। लेकिन मंगलवार को पहली बार ऐसा हुआ जब सत्ता पक्ष के विधायकों के कारण सदन की बैठक स्थगित करनी पड़ी। इसके केंद्र में थे लोनी (गाजियाबाद) से भाजपा विधायक नन्द किशोर गुर्जर।
गुर्जर अक्सर चर्चा में रहते हैं, कभी वायरल वीडियो को लेकर कभी अधिकारी को लेकर। लेकिन जब मंगलवार को सदन की बैठक के दौरान विधायक नन्द किशोर गुर्जर के साथ सौ से अधिक बीजेपी के विधायक और करीब इतने ही विपक्ष के विधायक सदन में धरना देने लगें तो लगने लगता है कि कुछ न कुछ अमंगल तो है।
इस हंगामें से विपक्ष को मौका मिल गया और कुछ विपक्षी विधायक तो सरकार की वैधानिकता पर ही सवाल उठाने लगे। खैर, धरना थोड़ी देर बाद समाप्त हो गया और अगले दिन विधान सभा अध्यक्ष ने नन्द किशोर गुर्जर को समझाया और वह मान गए। लेकिन आलाकमान अलर्ट हो गया। जब विधायकों ने धरना दिया तो संगठन को पता चला कि उत्पीड़न, अनदेखी और अपमान से कुछ विधायक परेशान हैं।
मामला मंगलवार दोपहर करीब डेढ़ बजे शुरू हुआ। विधायक गुर्जर पुलिस उत्पीड़न पर अपनी बात कहना चाह रहे थे लेकिन उन्हें मौका न मिला। उनके समर्थन में करीब 100 से अधिक भाजपा विधायक खड़े होकर नारे लगाने लगे। विपक्ष के सदस्य भी समर्थन में खड़े हो गए। यह देख पौने दो बजे विधानसभा अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित ने सदन आधे घंटे के लिए स्थगित कर दिया। पौने तीन बजे सदन फिर शुरू हुआ, लेकिन पांच मिनट ही कार्यवाही चली। अंतत: विधानसभा अध्यक्ष ने कार्यवाही स्थगित कर दी। बात मुख्यमंत्री और दिल्ली में आलाकमान तक पहुंची। ऐसी स्थिति दोबारा न उत्पन्न हो इसके लिए बुधवार को मुख्यमंत्री ने अपने विधायकों से बात की।
विधायकों के धरने को पार्टी ने गंभीरता से लिया है। आलाकमान के निर्देश पर अगले दिन शाम को मुख्यमंत्री ने अपने निवास पर 40-40 के ग्रुप में विधायक को बुला कर बात की। उनकी समस्या सुनी। कहा जा रहा कि लोनी के विधायक को भी कसा गया है और उन्हें अनुशासन में रहने की नसीहत दी गई है। विधायक नन्द किशोर गुर्जर को पहले ही कारण बताओ नोटिस दिया जा चुका है। बताया जा रहा है की नंद किशोर ने माफ़ी मांग ली है और भविष्य में ऐसा न करने का आश्वासन दिया है।
सवाल उठता है कि यह स्थिति उत्पन्न ही क्यों हुई? क्या विधायकों की समस्या अधिकारी नहीं सुन रहे या फिर विधायक ही क़ानून के दायरे के बाहर काम करवाना चाह रहे हैं। यहाँ ध्यान रखना होगा कि चाहे किसी भी दल को कितना ही मजबूत जनादेश क्यों न मिला हो, सुशासन की गाड़ी अनुशासन के बिना नहीं चलती। चाहे बात विधायकों की हो या ब्यूरोक्रेसी की दोनों को अपने दायित्व समझने होंगे।
एक जनता का प्रतिनिधि है तो दूसरा जनता का सेवक। कोई भी अपने अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन करेगा तो ऐसी ही स्थिति पैदा होगी। यह सही है कि विधायकों की जवाब देही अपने क्षेत्र की जनता के प्रति होती है और अगर वह पक्षपातपूर्ण या गैर कानूनी ढंग से अधिकारियों से अपनी बात मनवाना चाहेंगे तो ऐसी ही अप्रिय स्थिति पैदा होगी। यही बात अधिकारियों पर भी लागू होती है। फ्री हैण्ड का मतलब मनमानी नहीं होता यह दोनों पक्षों को समझना होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)
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