नवेद शिकोह
क़रीब डेढ़ दशक पहले ऐसा नहीं था। तभी तो बसपा सुप्रीमो मीडिया से दूरी बनाकर भी कई मरतबा यूपी की मुख्यमंत्री बनती रहीं। अब मीडिया और सोशल मीडिया मैनेजमेंट के बिना सत्ता के शिखर पर चढ़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। वक्त के साथ न चलने के नतीजे में ही शायद बसपा हाशिए पर आ गई। गांव-देहातों तक में टीवी और स्मार्टफोन पंहुचते देख करीब आठ-दस बरस पहले वक्त की ज़रूरत को समझते हुए भाजपा ने मीडिया और सोशल मीडिया की वैल्यू को समझा। और पार्टी के कुशल प्रबंधतंत्र ने देश की आम हो रही इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी के ज़रिए अपना एक-एक एजेंडा उस गांव-देहातों, दलितों-पिछड़ों, मजदूरों, किसानों तक पंहुचाया जहां कभी उसका कोई प्रभाव नहीं था।
यूपी इस भगवा पार्टी की सबसे बड़ी उपलब्धि है, यहां सरकार बनाने की कोशिश से लेकर सरकार के मीडिया मैनेजमेंट के लिए क़ाबिल और तजुर्बेकार पत्रकारों की योग्यता की सहभागिता के बेहतर नतीजे दिखे। पहले की सरकारों में आमतौर से सूबे के मुख्यमंत्रियों के मीडिया सलाहकार पुराने ढर्रे के थके और चुके हुए पत्रकार होते थे, जिनकी कोई उपयोगिता नहीं थी। नाममात्र के लिए ये बैठा दिए जाते थे। पर भाजपा ने मीडिया की ऑलराउंडर फायर ब्रांड प्रतिभाओं को मीडिया सलाहकार जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी।
मौजूदा इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी को समझने वाले टीवी और प्रिंट मीडिया के युवा अनुभवी जर्नलिस्ट बाकायदा रिसर्च और दूरदर्शिता के साथ मीडिया और सोशल मीडिया में सरकार के गुडवर्क को उभारने और कमियों को छिपाने की सधी हुई रणनीति पर काम कर रहे हैं।
भाजपा सियासत के शिखर पर पंहुचने के बाद भी हाथ पर हाथ रख कर नहीं बैठी। उसकी आईटी सेल/वाट्सएप ग्रुप्स बूथ मजबूत कर रहे हैं और यूथ के दिलो-दिमाग़ पर कब्ज़ा जमाए है। देश के हजारों क़ाबिल पत्रकार प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से आईटीसेल में काम कर रहे हैं। बेरोज़गारी के बढ़ते दौर में पत्रकारों को रोज़गार मिला और भाजपा को पार्टी की गाड़ी दौड़ाने के लिए पत्रकारिता का शक्तिशाली ईंधन मिल गया।
पत्रकारिता का पेशा गैर पत्रकारों की बेइंतहा भीड़ में तब्दील होता जा रहा है, लेकिन पत्रकारिता के भूसे के ढेर से अस्ल पत्रकारों के नगीनों को आधुनिक सियासत ने चुराना जारी रखा है। यूपी के जमे-जमाए क्षेत्रीय दल बसपा-सपा इसमें पीछे रहे, और पिछड़ी जातियों की राजनीति करने वाले ये दल पिछड़ सा गए।
भले ही सन 2010 के बाद भाजपा पर गोदी मीडिया की प्रथा शुरू करने की तोहमत लगती रही हो पर सच ये भी है कि नब्बे के दशक में 2000 के दशक तक सपा के तत्कालीन मुखिया मुलायम सिंह यादव ने एक सीमित दायरे में गोदी मीडिया के चलन की शुरुआत कर दी थी। यूपी के अखबारों के जो बड़े पत्रकार समाजवादी पार्टी की बीट देखते थे इसमें अधिकांश मुलायम सिंह यादव के सीधे टच में रहते थे। किसी न किसी रूप में इन पत्रकारों को आर्थिक लाभ देने के आरोपों का हल्ला भी ख़ूब मचा था।
यूपी की सियासत और यहां की पत्रकारिता के बीस-तीस बरस की कहानी में कांग्रेस सत्ता से दूर रही। भाजपा की आंधी में तो बिल्कुल ही हाशिए पर आ गई। पी.के. जैसे चुनावी मैनेजमेंट्स के एक्सपर्ट की मदद और गठबंधन के समझौतों के बाद भी कांग्रेस यूपी में प्रोग्रेस नहीं कर सकी।
यूपी की बंजर ज़मीन को उपजाऊ बनाने के लिए कांग्रेस का तुरुप का पत्ता कहे जाने वाली प्रियंका गांधी वाड्रा सक्रिय राजनीति में दाखिल हुईं और यूपी की प्रभारी बनीं। फिर भी कुछ हासिल नहीं हुआ। पिछले लोकसभा चुनाव के बाद विधानसभा चुनाव में भी यूपी में कांग्रेस का सफाया सा हो गया।
एक बार फिर कोशिशों ने ज़ोर पकड़ा ओर प्रियंका सक्रिय होकर सड़कों पर संघर्ष करती नज़र आ रही हैं। इस बार मोदी स्टाइल में भाजपा के नक्शेकदम पर चलते हुए कांग्रेस ने मीडिया/सोशल मीडिया को अपना हथियार बनाकर चर्चाओं में आने में सफलता हासिल कर ली है। लगा कि प्रियंका गांधी को मीडिया एक्सपर्ट (अनुभवी पत्रकार) बता रहे हैं कि क्या करें क्या न करें। कैसे क्या करें, कब क्या करें..
मौके का फायदा उठाकर किस तरह का अंदाज और संवाद सोशल मीडिया पर परोसें। खाली स्पेस वाले मुद्दों पर मुखर हों तो ना चाह कर भी मीडिया को ख़बर चलाना पड़ेगी। सोशल मीडिया पर किस तरह का मैटीरियल ट्रे़ड करता है..इत्यादि मीडिया नुस्खे देने और अपनी सोशल मीडिया सेल के जरिए छा जाने की रणनीति पर यूपी कांग्रेस तेज़ी से काम करके हैड लाइन पर कब्जा जमाती जा रही है।
इत्तेफाक़ कह लीजिए या दलील, बड़े अखबार और टीवी चैनल में यूपी की राजनीतिक बीट पर बरसों पत्रकारिता करने वाले पंकज श्रीवास्तव यूपी कांग्रेस कमेटी के मीडिया कम्युकेशन विभाग में जिस दिन वाइस चेयरमैन बनाकर लखनऊ लाए गये उस दिन के सप्ताह भर के बाद से लगा कि कांग्रेस रिलांच हो रही है। वहीं प्रियंका जो पिछले लोकसभा चुनाव के बाद विधानसभा चुनाव में भी यूपी में बुरी तरह फ्लॉप साबित हो गईं थी अब उनका हर कदम, हर एक्शन, तस्वीर और फुटेज मीडिया और सोशल मीडिया में छाने लगा है।
रात के अंधेरों में बारिश में भीगती-भागती, पुलिस से मुकाबला करती प्रियंका की लखीमपुर जाने की कोशिश की फुटेज मीडिया पर इतना छाई कि भाजपा तो दबाव मे आई ही यूपी का मुख्य विपक्षी दल सपा भी बेचैन हो गई। प्रियंका को हिरासत में लेकर नजरबंद किया गया तो झाड़ू लगाते उनका फोटो ट्रेंड हो गया। आगरा की घटना पर भी वो जमीनी संघर्ष करती दिखीं, और फिर चालीस फीसद महिलाओं को टिकट देने के मास्टरस्ट्रोक ने कांग्रेस की गति को जारी रखा। इसी क्रम में महिला पुलिसकर्मियों ने जब उनके साथ सेल्फी ली तो ये एक अलग मुद्दा बनकर ये ज़ाहिर करने की कोशिश करने लगा कि प्रियंका आधी आबादी यानी महिला शक्ति के बीच लोकप्रिय हो रही हैं।
जाति और मजहब और जातिवाद की भीड़ से अलग होकर कांग्रेस नारीवाद के खाली स्पेस पर स्थान बना रही हैं। मीडिया मसाले और अपनी मेहनत और जज्बे के साथ प्रियंका यूपी चुनाव में मजबूती से लड़ने की ताल ठोक कर दमदार तरीके से ये कहती नज़र आ रही हैं कि लड़की हूं लड़ सकती हूं।
यह भी पढ़ें : भूख से मर रहा है किम जोंग का उत्तर कोरिया
यह भी पढ़ें : खेत में महिलाओं संग प्रियंका ने खाया खाना, किया ये बड़ा ऐलान
यह भी पढ़ें : स्कूली बच्चो को यूनीफार्म व स्कूली बैग के लिए नगद भुगतान करेगी योगी सरकार
यह भी पढ़ें : डंके की चोट पर : पार्टी विथ डिफ़रेंस के क्या यह मायने गढ़ रही है बीजेपी
उनकी हिम्मत, मेहनत और ललकार के पीछे ड्राफ्ट तैयार करने वाले मीडिया के महारथियों की पार्श्व भूमिका दमदार है। तभी तो यूपी में सिंगल कॉलम में सिमटने वाली कांग्रेस अब हेडलाइन पर हेडलाइन बनती जा रही है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.