केपी सिंह
लखनऊ में अमेठी की एक महिला ने सरकार और प्रशासन की अनसुनी से क्षुब्ध होकर मुख्यमंत्री कार्यालय के सामने आत्मदाह की कोशिश की जिसमें महिला की बाद में मौत हो गई। उधर गाजियाबाद में एक पत्रकार को बदमाशों ने गोलियों से भून दिया क्योंकि उन्होंने अपनी भांजी के साथ छेड़खानी की शिकायत पुलिस में करके उन्हें तंग करने की कोशिश की थी।
यह दो घटनाऐं नमूना हैं जिनसे पता चलता है कि उत्तर प्रदेश में कैसा धृतराष्ट्र प्रशासन काम कर रहा है जबकि निरीह जनता की परेशानी को शिकायत आने के पहले ही प्रशासन को स्वयं संज्ञान में लेकर पहल करके दूर करनी चाहिए।
अमेठी की उस अभागी महिला का नाम सोफिया (56 वर्ष) था जिसने पुलिस की बेदर्दी से खार खाकर जब 17 जुलाई को लखनऊ में लोक भवन के सामने अपनी बेटी 26 वर्षीया गुड़िया और अपने ऊपर मिट्टी का तेल डालकर आग लगा ली। यकायक हुए इस घटनाक्रम से प्रदेश की राजधानी की पुलिस और प्रशासन के अधिकारी हतप्रभ रह गये। लखनऊ पुलिस ने सफाई दी कि पीड़ित महिला के इरादों के बारे में अमेठी से उन्हें कोई फीडबैक नहीं दिया गया था अन्यथा उसे रोकने का प्रयास समय रहते किया जा सकता था। बिडम्बना की बात है कि सोफिया कई दिनों से अमेठी की पुलिस से झगड़ रही थी फिर भी उस पर निगरानी नहीं रखी जा सकी। यह पुलिस की संज्ञा हीनता का ही लक्षण माना जायेगा।
वैसे इस मामले में अमेठी के संबंधित थाने के इंस्पेक्टर, मृतक महिला से संबंधित मुकदमे के विवेचना अधिकारी के साथ कुछ और पुलिस कर्मियों को आत्मदाह के बाद तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया गया है। दूसरी ओर काग्रेस और एआईएमआईएम के अमेठी के दो स्थानीय नेताओं और उनके साथियों पर महिला को उकसाने का मुकदमा भी दर्ज कराया गया ताकि राजनीतिक विरोधियों के मत्थे इसका दोष मढ़कर घटना की लीपा पोती की जा सके। सरकार को इस सबसे बचना चाहिए था।
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प्रवासी मजदूरों को नोएडा से लाने के लिए काग्रेस द्वारा बसे उपलब्ध कराने की पेशकश को लेकर राज्य सरकार ने जिस तरह पैतरेबाजी की और प्रदेश काग्रेस अध्यक्ष को इस मामले में जेल तक भिजवा दिया इससे उसकी छवि खराब हुई थी और उसके बारे में बदले की भावना से काम करने वाली सरकार की धारणा बनी। इसे ध्यान में रखते हुए सरकार को आगे अति प्रक्रियावादी रवैये का परिचय देने से निश्चित रूप से बाज आना चाहिए था।
अब गुड़िया ने मां की मौत के बाद जो बयान दिये हैं उनसे पता चलता है कि वह अपनी समस्या को लेकर पुलिस के उच्च अधिकारियों से भी मिली थी पर नतीजा सिफर रहा था। अधिकारियों ने पहले उसे आश्वासन भी दिये लेकिन इसके बाद मामला कोतवाली पुलिस के भरोसे छोड़ दिया। गुड़िया का आरोप है कि एक प्रभावशाली नेता का हाथ दूसरी पार्टी पर था जिसकी वजह से मुंह देखी कार्रवाई के अभ्यस्त जिले के पुलिस अधिकारी दखल देने को तैयार नहीं हुए। उसका तो आरोप यह है कि उसकी मां द्वारा जान दे देने के बावजूद पुलिस का रवैया अभी भी उसके परिवार के खिलाफ है।
गाजियाबाद में पत्रकार विक्रम जोशी की हत्या का मामला भी इसी तरह की टाल मटोल और लापरवाही का परिणाम माना जा सकता है। पुलिस के अधिकारी थानों के भरोसे रहते हैं इसलिए थाना स्तर पर पुलिस निरंकुश हो गई है और शिकायतों की परवाह नहीं कर रही है। अपराधियों को पुलिस की इस मानसिकता ने बेखौफ बना दिया है। यह अजीब विरोधाभास है कि ठोको नीति के तहत प्रदेश में हर दिन अपराधियों का एनकाउंटर किया जा रहा है लेकिन मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यों-ज्यों दवा की जैसी तर्ज पर ज्यों-ज्यों पुलिस अपनी हनक कायम करने के लिए सख्त कदम आगे बढ़ा रही है वैसे-वैसे अपराधी डरने के बजाय और ज्यादा दुस्साहसी होते जा रहे हैं। क्या सरकार को पुलिस की इस स्थिति की गहन समीक्षा नहीं करानी चाहिए।
अब लगता है कि स्थिति में सुधार के लिए सरकार को मायावती के समय की नीति का मुंह ताकना होगा। मायावती कोताही होने पर एसपी, एसएसपी को ही नहीं डीआईजी, आईजी को नाप देती थी। उनका संदेश साफ था कि थाने बड़े अफसर संभाले, चूक होगी तो सरकार सीधे उनसे निपटेगी। यह प्रयोग कामयाब था। बड़े अफसरों को दंडित करने से मायावती के कार्यकाल में शासन व्यवस्था में कोई झोल तो नहीं देखा गया था जबकि वर्तमान सरकार इसी चिंता की वजह से मायावती का अनुकरण करने में अपने को सक्षम महसूस नहीं कर पा रही।
चाहे कानपुर के विकास दुबे से जुड़ी घटना हो या अमेठी की महिला का विचित्र करने वाला आत्मदाह। किसी बड़े अफसर को सरकार ने नहीं छुआ है। उंगलिया तो सचिवालय में बिराजमान बड़े अफसरों पर भी उठ रही हैं जो वर्तमान में सर्वे सर्वा माने जा रहे हैं पर जब विभागीय अधिकारी दंडित नहीं हो पा रहे हैं तो शासन के अधिकारियों को सबक सिखाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। वैसे इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय कानपुर में एक लैब टैक्निशियन की अपहरण के बाद हत्या के मामले में राज्य सरकार ने एक आईपीएस और एक डिप्टी एसपी को निलंबित किया है जिससे लगता है कि अब सरकार घटनाओं में बड़े अफसरों की जबावदेही लेने के मूड में आ रही है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जब 1076 योजना को लांच किया था तो बहुत सीना फुलाकर कहा गया था कि इससे राम राज्य आ जायेगा। शिकायतों को संज्ञान में लेने और उनके न्यायपूर्ण निस्तारण में कोई ढील नहीं हो पायेगी। अगर ऐसा हो जाता तो किसी बड़े कांड के घटित होने की नौबत ही नहीं रह जाती। पर दुर्भाग्य से इस मामले में दावे के अनुरूप कुछ नहीं हुआ सिबाय इसके कि यह योजना लोगों को बहलाने के लिए सेफ्टी वाल्ब के रूप में अवतरित की गई थी जिससे पीड़ित यह सोचकर तसल्ली करता रहे कि उसकी समस्या सीधे मुख्यमंत्री कार्यालय के स्तर पर विचारित है जिससे अंततोगत्वा बिना किसी गड़बड़ी के उसे राहत मिलेगी पर मरीचिका से मृगों की प्यास नहीं बुझा करती।
बहुत जल्दी ही 1076 के भरोसे उम्मीदों के मृग प्यास से तड़पकर दम तोड़ने की नियति का शिकार बनने लगे। जिस अधिकारी के खिलाफ शिकायत उसी को जांच यह 1076 का फंडा बन गया। लोगों को न्याय देने की बजाय आंकड़ेबाजी कर शासन की शाबाशी पाने का रास्ता इसमें अधिकारियों ने ढूढ़ लिया बतर्ज मुहावरा आपदा में अवसर को ढूढ़ना।
इसकी देखादेखी जिले में अफसर मगरूर हो गये। नतीजतन अपने पास सीधे आने वाली शिकायतों में कुछ न करके दरख्वास्त नीचे वालों को आगे बढ़ा देने की प्रवृत्ति उसमें घर कर गई। प्रशासन की इस पंगुता को झकझोरने वाली कई घटनाओं के बावजूद संज्ञान में नहीं लिया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि लोगों की शिकायतों का अंत कोई न कर सके। रोडवेज के वर्तमान एमडी आईएएस राजशेखर जब जिलों में रहे तो उन्होंने जन सुविधा केन्द्र संचालित कराया जिसके जरिए लोगों की शिकायतों का सार्थक निस्तारण के प्रतिमान स्थापित किये गये। आईपीएस अधिकारी आशुतोष पाण्डेय ने कानपुर जोन में आईजी रहते हुए भरोसे के नम्बर के जरिए पुलिस में भी इसी तरह की प्रमाणिकता के साथ काम किया था। क्या जन शिकायतों के प्रभावी निदान के लिए ऐसे अफसरों के अनुभवों और प्रयोगों का लाभ उठाने की सरकार सोचेगी।
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