Wednesday - 30 October 2024 - 9:03 AM

कौन हैं बदरुद्दीन अजमल, जो असम के ‘दुश्मन’ बन गए हैं?

जुबिली न्यूज डेस्क

असम में विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका है। पहले की तरह इस बार के चुनाव में भी बदरुद्दीन अजमल के नाम की खूब चर्चा है।

जब से कांग्रेस और एआईयूडीएफ ने साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लडऩे की घोषणा की है उसी समय से खासकर मौलाना अजमल बीजेपी के निशाने पर है।

लंबी दाढ़ी, सफेद कुर्ता-पायजामा, कंधे पर परंपरागत असमिया गमछा और सिर पर टोपी पहने मौलाना बदरुद्दीन अजमल जब चर (नदी तटीय द्वीप) क्षेत्र से गुजरते है तो लोगों की भीड़ उनकी गाड़ी के पीछे दौडऩे लगती है। यह भीड़ खासकर बंगाली बोलने वाले गरीब और पिछड़े मुसलमानों की होती है।

मुसलमानों में अपनी धार्मिक और सामाजिक गतिविधियों के कारण बदरुद्दीन अजमल काफी लोकप्रिय हैं। दरअसल ये लोग मौलाना को एक राजनेता के साथ-साथ इस्लामिक गुरु के तौर पर भी देखते है।

हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अजमल और कांग्रेस पर घुसपैठ को शरण देने का आरोप लगाते हुए कहा था, “असम को घुसपैठ मुक्त बनाना चाहते हो या नहीं। बदरुद्दीन अजमल और कांग्रेस असम को घुसपैठियों से सुरक्षित रख सकते हैं क्या? ये जोड़ी सारे दरवाजे खोल देगी और घुसपैठ को असम के अंदर सरल कर देगी, क्योंकि ये उनका वोट बैंक है। ”

शाह ही नहीं बल्कि इससे पहले असम भाजपा के कद्दावर नेता हिमंत बिस्व सरमा भी अजमल को असम का ‘दुश्मन’ बता चुके है, लेकिन ये भी सच है कि अजमल को असमिया समुदाय की सबसे प्रतिष्ठित और सौ साल पुरानी संस्था असम साहित्य सभा ने 2004 में होजाई में आयोजित अपने अधिवेशन में स्वागत समिति का अध्यक्ष बनाया था।

यह पहला मौका नहीं है जब अजमल निशाने पर है। विपक्ष हमेशा से बदरुद्दीन पर भाषणों के जरिए बंगाली मुसलमानों का ध्रुवीकरण करने का आरोप लगाता रहा है।

कुछ दिनों पहले ही मौलाना ने अपने संसदीय क्षेत्र धुबड़ी की एक रैली में ये दावा किया था कि बीजेपी के पास 3500 मस्जिदों की एक सूची है और केंद्र की सत्ता में भाजपा फिर लौटती है तो इन मस्जिदों को नष्ट किया जाएगा।

असम की सियासत में अपनी अहम जगह बना चुके मौलाना बदरुद्दीन अजमल का नाम साल 2004 से पहले राज्य में कम ही सुनाई देता था। उससे पहले अजमल खुद सीधे तौर पर राजनीति में नहीं आए थे और पर्दे के पीछे रहकर जमीयत की ताकत के सहारे किंग मेकर का खेल खेलते थे।

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वह एक ऐसा दौर था जब कांग्रेस से लेकर दो बार असम की सत्ता संभाल चुकी क्षेत्रीय पार्टी असम गण परिषद के नेता अजमल से मिलने उनके घर तक जाते थे।

कैसे राजनीति में आए अजमल?

मौलाना के सियासत में आने के पीछे मुख्य तौर पर साल 2005 में आईएमडीटी कानून को निरस्त किया जाना ही बताया जाता है, लेकिन कई लोग तरुण गोगोई से उनके टकराव को भी एक कारण मानते हैं।

अजमल के बारे में कहा जाता है कि साल 2001 में तरुण गोगोई ने जब राज्य में कांग्रेस की सरकार बनाई थी उस समय मंत्रिमंडल में अजमल जमीयत के सपोर्ट से जीतकर आए अपने विधायकों के लिए प्रमुख विभाग चाहते थे जिसे गोगोई ने बिल्कुल तवज्जो नहीं दी।

इसके बाद भी ऐसे कई मौके आए जब मौलाना ने तरुण गोगोई पर मुसलमानों की कई समस्याओं को लेकर अनदेखी करने के आरोप लगाए। इस तरह अजमल और गोगोई के बीच राजनीतिक टकराव बढ़ता चला गया और इसी टकराव में अजमल ने ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट अर्थात एआईयूडीएफ नाम से एक अलग राजनीतिक पार्टी बना ली।

एक समय ऐसा भी आया जब सार्वजनिक मंच से गोगोई ने यह कह दिया था कि ये बदरुद्दीन कौन हैं? हालंाकि ये भी बड़ी सच्चाई है कि गोगोई, मौलाना की ताकत से वाकिफ होते हुए भी अनजान बनने की कोशिश कर रहे थे।

इत्र के बिजनेस से राजनीति तक का सफर

अजमल एक राजनीतिक नेता के अलावा अपनी आर्थिक हैसियत के लिए भी जाने जाते है। पूरी दुनिया में फैले करोड़ों रुपयों के इत्र के व्यवसाय की बदौलत अजमल परिवार ने अपने पैतृक जिले होजाई में 500 बिस्तर वाला ग्रामीण अस्पताल बनवाया है।

इसके अलावा असम के कई शहरों में दर्जनों कॉलेज, मदरसे, अनाथालय, मुफ्त शिक्षा जैसे कई सामाजिक काम सालों से कर रहे हैं।

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एक कारोबारी परिवार से आने वाले 71 साल के बदरुद्दीन अजमल का जन्म असम के होजाई जिले के एक छोटे से गांव गोपाल नगर में हुआ था। अजमल ने तीसरी कक्षा तक की पढ़ाई होजाई के अली नगर प्राथमिक स्कूल से की और बाद में अपने पिता अजमल अली के साथ मुंबई चले गए। इसके बाद बदरुद्दीन ने दारूल उलूम देवबंद से इस्लाम और अरबी में फाजिल-ए-देवबंद (पोस्ट ग्रेजुएशन) की पढ़ाई पूरी की।

अजमल अली के पांच बेटे और दो बेटियां हैं। दो बड़े भाइयों के बाद तीसरे नंबर पर बदरुद्दीन आते हैं। मौलाना के पिता अजमल अली शुरू के दिनों में गांव में खेती करते थे लेकिन बाद में परफ्यूम बनाने वाले ‘अगर के पेड़’ का कारोबार करने लगे। धीरे-धीरे जब यहां इस कारोबार में उन्हें सफलता मिली तो वे मुंबई चले गए और वहां इत्र का एक बड़ा कारोबार खड़ा कर दिया।

वर्तमान में दुबई समेत खाड़ी के करीब सभी देशों में अजमल के इत्र के बड़े शोरूम है। अजमल ने लंदन और अमेरिका के शहरों में अजमल परफ्यूूम के आधुनिक शोरूम खोले हैं। इत्र के व्यापार के अलावा अजमल ने रियल एस्टेट से लेकर चमड़ा उद्योग, स्वास्थ्य सेवाएं, कपड़ा उद्योग और शिक्षा जगत में बड़ा कारोबार फैला रखा है।

बीजेपी के निशाने पर अजमल

इस बार भाजपा के निशाने पर मौलाना अजमल हैं। भाजपा नेता उन्हें असम का दुश्मन बता रहे हैं, लेकिन इसके होजाई शहर में स्थित अजमल फाउंडेशन के कार्यालय में प्रवेश करेंगे तो सामने दीवार पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक बड़ी तस्वीर लगी दिख जाती है। इस तस्वीर में प्रधानमंत्री के साथ बदरुद्दीन अजमल और पूर्व लोकसभा सांसद उनके भाई सिराजुद्दीन अजमल खड़े है।

उस तस्वीर के ठीक बाईं तरफ दूसरे कमरे की दीवार पर भाजपा नेता हिमंत बिस्वा सरमा की तस्वीर टंगी है। उस तस्वीर में भी मौलाना अजमल उनके साथ खड़े है।

ऐसे में इस बार का विधानसभा चुनाव मौलाना अजमल के लिए अब तक का सबसे बड़ा चुनाव साबित हो सकता है।

राजनीतिक पंडितों की माने तो साल 2016 में असम की सत्ता में भाजपा के आने के बाद से मौलाना की पार्टी का प्रदर्शन लगातार गिर रहा है। आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं।

2014 के लोकसभा चुनाव में जब पूरे देश में मोदी की लहर थी उस समय भी मौलाना की पार्टी एआईयूडीएफ ने प्रदेश की 14 लोकसभा सीटों में से तीन सीटें जीती थी लेकिन उसके बाद 2016 के विधानसभा चुनाव में बदरुद्दीन की पार्टी से महज 13 विधायक ही जीते जबकि 2011 में उनके 18 विधायक थे। इस तरह 2019 के लोकसभा चुनाव में बदरुद्दीन केवल अपनी सीट बचा पाए थे।

असम में कितनी है मुस्लिम आबादी

2011 की जनगणना के अनुसार असम में मुसलमानों की आबादी लगभग रीब 34 फीसदी है। असम में बंगाली मुसलमानों के राजनीतिक और आर्थिक हितों के लिए अलग राजनीतिक पार्टी बनाने का इतिहास पुराना है।

पहली बार साल 1977 में ईस्टर्न इंडिया मुस्लिम एसोसिएशन नाम की राजनीतिक पार्टी बनाई गई थी, लेकिन साल 1979 में शुरू हुए असम आंदोलन कहीी वजह से यह पार्टी असम की राजनीति में टिक नहीं सकी।

इसके बाद साल 1985 में भी यूनाइटेड माइनॉरिटी फ्रंट (यूएमएफ) नाम से असम में मुसलमानों के राजनीतिक एकीकरण के लिए जो एक अलग राजनीतिक मंच बनाया गया था उसमें भी जमीयत की सक्रिय भूमिका थी। हालांकि बाद में ये सारे नेता कांग्रेस में शामिल हो गए।

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वहीं मौलाना बदरुद्दीन अजमल को राजनीति में उतरे 15 साल से अधिक समय हो गया है लेकिन इतने सालों में उनकी पार्टी की राजनीति बंगाली मुसलमानों के इर्द-गिर्द ही रही।
Radio_Prabhat
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