Monday - 28 October 2024 - 8:04 AM

कांग्रेस में अध्यक्षी के लिए राहुल के बाद कौन ?

 

 

केपी सिंह

कांग्रेस में अध्यक्ष पद को लेकर व्याप्त अटकलबाजी अभी खत्म नहीं हो पा रही है। पिछले बुधवार को काग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा था कि राहुल गांधी अध्यक्ष थे और बने रहेंगे। उनकी पूरे विश्वास के साथ उच्चरित इस घोषणा से जाहिर हुआ था कि राहुल गांधी अंदरखाने अपना इस्तीफा वापस लेने को सहमत हो गये हैं और इसलिए उनके स्थान पर नये अध्यक्ष की खोज की आपाधापी बेमानी हो गई है।

लेकिन अब ताजा खबरें आयी है कि एके एंटोनी से अध्यक्ष पद संभालने की पेशकश की गई थी जिसे उन्होंने अपने स्वास्थ्य का हवाला देकर स्वीकार करने से मना कर दिया। इसके बाद काग्रेस पार्टी में अनिश्चितता एक बार फिर गहरा गई है।

काग्रेस मुक्त भारत को अपना मिशन बना चुके लोग इस बीच उतावले हैं कि कब राहुल गांधी अध्यक्ष पद पर बने रहने की पार्टी के लोगो की मंशा को मंजूर करने की घोषणा करें और उन्हें इसके बाद उनके खिलाफ घृणा अभियान को तेज करने के लिए अपने तरकश से एक और तीर निकालने का मौका मिले।

इसे लेकर पहले दिन से ही यह प्रचारित किया जा रहा है कि राहुल गांधी के इस्तीफे की पेशकश ढ़कोसलेबाजी है और अन्ततोगत्वा काग्रेस पार्टी नेहरू गांधी परिवार की छाया से अलग न हट पाने की नियति के कारण उन्हें मौका देगी कि वे लोगों की सहानुभूति बटोरकर फिर जहां के तहां पार्टी के सिंहासन पर विराजमान हो जाये।

अतीत में काग्रेस नेतृत्व ने ऐसे इमोशनल कार्ड अपनी दुकानदारी बढ़ाने के लिए फेंके भी है लेकिन सोनिया युग के बाद पार्टी नेतृत्व ने नाटकीयता से परहेज कर अपने फैसले को प्रमाणिक साबित करने की पूरी कोशिश की है।

जिन्हें देश, धर्म, जाति और नस्ल के आधार पर दूसरे की हर सच्ची आदर्शवादिता को नकारने की बीमारी है वे अपने मर्ज के कारण सोनिया गांधी के अच्छे उदाहरण भी हजम नहीं कर पाते। इसमें दो राय नहीं है कि अगर राजीव गांधी की हत्या के फैसले के बाद सोनिया गांधी ने देश की सत्ता संभालने का फैसला ले लिया होता तो उन्हें देश में उस समय व्याप्त माहौल के कारण कोई रोक नहीं पाता। लेकिन सोनिया गांधी ने हिन्दू न होते हुए भी इस मामले में हिन्दू स्त्री के आदर्श का निर्वाह किया और कई साल तक सत्ता से वनवास रखा। इस बीच नरसिंहाराव और सीताराम केसरी के नेतृत्व में कार्य संचालन काग्रेस पार्टी को बहुत महंगा पड़ा और यह माना जाने लगा था कि अब काग्रेस हमेशा के लिए इतिहास में दफन हो जाने को अभिशप्त हो चुकी है।

इसके बाद सोनिया गांधी काग्रेस को उबारने के लिए सामने आयी और उन्होंने पूरा होमवर्क करके जिस तरह से काम किया उससे अटल आडवाणी युग में पार्टी की प्रासंगिकता को फिर से स्थापित किया जा सका जबकि यह एक दुरूह चुनौती थी। काग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार को जब सत्ता संभालने का मौका मिला तो सोनिया गांधी प्रधानमंत्री पद की स्वाभाविक उम्मीदवार थी लेकिन अपनी राष्ट्रीयता के मुददे पर भाजपा प्रायोजित बवंडर के बाद उन्होंने कह दिया कि वे प्रधानमंत्री नहीं बनेगी।

उस समय भी उनके फैसले का मजाक उड़ाया गया था और कहा गया था कि नाटकबाजी करके इस फैसले से मुकर जायेगी। लेकिन वे अपने निश्चय पर अटल रहीं तो ऐसा कहने वालो के मुंह तो बंद हो गये लेकिन उन्होंने त्याग के प्रतिमान के रूप में इसे मान्यता कभी नहीं दी।

इसी तरह सोनिया गांधी चाहती या राहुल गांधी के अंदर बहुत ललक होती तो डाक्टर मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल के अंतिम वर्षो में वे आसानी से प्रधानमंत्री बन जाते और इतिहास में अपना नाम लिखा लेते लेकिन राहुल गांधी ने इसे गंवारा नहीं किया।

इन प्रसंगो का हवाला सोनिया गांधी के परिवार को महिमा मंडित करने के लिए नहीं दिया लेकिन इस पूर्व इतिहास को ध्यान में रखकर पहले ही दिन से यह माना चाहिए था कि राहुल गांधी अपने इस्तीफे की वापसी के लिए आसानी से तैयार नहीं होगे।

राहुल गांधी मोदी के मुकाबले मुख्य रूप से इसी कारण मात खा गये क्योंकि वे अपने आप को सत्ता के लिए कटिबद्ध रूप में कभी प्रस्तुत नहीं कर पाये जिसकी जरूरत किसी भी समर को जीतने के लिए बहुत होती है।

राहुल गांधी ने काग्रेस में बहुत प्रयोग किये जिनमें उन्होंने व्यवहारिक वास्तविकता की अनदेखी की और किताबी आदर्शवादिता से प्रेरित होकर फैसले लिए जो उन्हें बहुत महंगे पड़े। काग्रेस में उन्होंने अपनी पकड़ वाले नई पीढ़ी के नेताओं को आगे लाने के मकसद से संगठन के वास्तविक चुनाव कराये लेकिन पार्टी के माफियाओं ने इन कोशिशों को कामयाब नहीं होने दिया।

उसी समय यह जाहिर हो गया था कि उनकी रणनीतियां बेहद कच्ची हैं जिससे उनकी कामयाबी संदिग्ध रहेगी। नरेन्द्र मोदी का अवतरण तो राजनीति में बाद में हुआ जिनके सामने तो राहुल गांधी के किसी भी तरह से न टिक पाने की स्थितियां हर कदम पर उजागर होती गई।

नेहरू गांधी परिवार का एक तिलिस्म था। राहुल गांधी ने अपने राजनीतिक अभियानों में लोगों के लिए अपनी सहज सुलभता से इस तिलिस्म को तोड़ दिया जबकि नरेन्द्र मोदी ने अपने को लेकर इस तिलिस्म को अपने इर्द गिर्द और ज्यादा रहस्यात्मकता के साथ तैयार किया।

लोकसभा चुनाव के अंतिम चरण में अपनी केदारनाथ की तथाकथित आध्यात्मिक यात्रा का प्रस्तुतीकरण जिस तरह उन्होंने दृश्य माध्यमों में कराया वह इसकी बानगी है। लम्बे समय तक गुलाम रहे भारत जैसे देश में लोकतांत्रिक कामयाबी के लिए तिलिस्मीपना भी एक बड़ी जरूरत है। चुनाव के समय अपने भाषण की विषयवस्तु में राहुल गांधी ने नफरत बनाम मुहब्बत का जो राग अलापा वह भी उनकी भावुक प्रवृत्ति को दर्शाता है। जिससे चुनावी रूख मोड़ने में कोई मदद नहीं मिली बल्कि वे इस राग के चलते बचकाने साबित होते गये। जिसकी वजह से उनकी पप्पू की छवि बनाने के दुराग्रहपूर्ण प्रयासों को ही बल मिला।

चुनाव को लेकर भी उन्होंने अपने को जिस तरह प्रदर्शित किया उससे यह धारणा बनी कि वे प्रधानमंत्री की दावेदारी के लिए बहुत गंभीर नहीं है और यह धारणा गलत भी नहीं थी। अगर विपक्ष के गठबंधन को सरकार बनाने का मौका मिल जाता तो राहुल गांधी अपनी दावेदारी पीछे करके मायावती जैसी किसी नेता को मौका देने के लिए रजामंद हो सकते थे।

राजनीति में दार्शनिक अंदाज मिसफिट है। राहुल गांधी शगल की तरह राजनीति कर रहे थे जिससे उनके लिए अपना रंग जमाना मुश्किल हो गया।

हालांकि राहुल गांधी के पद त्याग के फैसले से उनके परिवार के लोग सहमत नहीं है। सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी मोदी सरकार से पूरी तरह मोर्चा लेने के मूड में हैं और वे चाहती है कि राहुल मैदान में बने रहें। प्रियंका गांधी हार के कारणों की समीक्षा व्यक्तिगत रूप से सभी स्तरों पर कर रही हैं।

प्रियंका गांधी ज्यादा कटिबद्ध हैं और काग्रेस के कार्यकर्ता चाहते हैं कि पार्टी का नेतृत्व वे ही संभाले लेकिन उनके परिवार में राहुल को ही आगे रखने की राय है। इस जद्दोजहद के बीच पार्टी का मुकद्दर किस घाट पर जाकर टिकता है यह देखने वाली बात है।

बताया जाता है कि एके एंटोनी के पास अध्यक्ष बनने के लिए राहुल गांधी ने ही प्रस्ताव भिजवाया था। इससे जाहिर होता है कि राहुल की जगह कोई और ही फिलहाल काग्रेस का नेतृत्व संभालेगा। अभी तक परिवार के बाहर के अध्यक्ष पार्टी में कामयाब नहीं हुए है लेकिन ऐसा नहीं है कि आगे भी ऐसा ही होता रहे।

काग्रेस को दमदार अध्यक्ष बाहर से मिल सकता है जो उसकी नैया पार लगा सके। राष्ट्रीय स्तर के विकल्प के रूप में फिलहाल काग्रेस ही संभावना है। स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए यह अपरिहार्य है इसलिए काग्रेस मुक्त भारत की नहीं मृत्यु शैया पर पड़ी काग्रेस को पथ्य देकर उबारने के लिए कोशिश करने की जरूरत है।

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