Friday - 1 November 2024 - 7:12 AM

महिला आरक्षण बिल श्रेय किसे कांग्रेस या भाजपा, क्रेडिट लेने की मची होड़

जुबिली न्यूज डेस्क

करीब तीन दशकों की अटकलों और कलहों के बाद महिला आरक्षण बिल को (नारी शक्ति वंदन अधिनियम) आज नए संसद भवन में कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने पेश किया. जिसे ध्वनिमत के जरिए लोकसभा में पेश किया गया. दोनों सदनों से इस बिल के पास होते ही संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण तय हो जाएगा. यह बिल कानून बनने के बाद 15 साल तक लागू रहेगा.

हालांकि आरक्षण की समयसीमा बढ़ाई जा सकती है. बिल को पेश करते हुए केंद्रीय मंत्री ने कहा कि कानून बनने पर संसद में महिला सांसदों की संख्या 181 हो जाएगी. मोदी सरकार ने सोनिया गांधी और यूपीए सरकार का राज्यसभा में पास महिला आरक्षण बिल दूरी बना ली. ऐसा माना जा रहा है कि सरकार सोनिया गांधी या कांग्रेस को श्रेय नहीं देना चाहती.

“ये हमारा है, अपना है- सोनिया गांधी

संसद के दूसरे दिन संसद जाते वक्त जब कांग्रेस नेता सोनिया गांधी से उनकी प्रतिक्रिया मांगी गयी तो तपाक से बोलीं, “ये हमारा है, अपना है.”थोड़ी देर बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावेदारी भी पेश कर दी, ‘महिलाओं को अधिकार देने और उनकी शक्ति का उपयोग करने के इस पवित्र काम के लिए शायद ईश्वर ने मुझे चुना है… एक बार फिर हमारी सरकार ने इस दिशा में कदम बढ़ाया है.’

आरक्षण देने का श्रेय लेने की होड़ शुरू

महिला आरक्षण बिल लोक सभा में पेश किये जाने के साथ ही महिलाओं को आरक्षण देने का श्रेय लेने की होड़ शुरू हो चुकी है. क्या बीजेपी सरकार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह कांग्रेस या उसके साथ खड़े होने की कोशिश कर रहे विपक्षी दलों के गठबंधन INDIA को ये क्रेडिट लेने देंगे? बात बस इतनी ही नहीं है. क्रेडिट लेने की होड़ अपनी जगह है, लेकिन हर राजनीतिक दल का रोल करीब करीब एक जैसा ही लगता है. ऐसे में कोई एक भला श्रेय कैसे ले सकता है?

महिला आरक्षण को लेकर अब तक क्या-क्या हुआ

महिला आरक्षण बिल पहली बार 12 दिसंबर 1996 को 81वें संविधान संशोधन बिल के रूप में संसद में पेश किया गया था. तब देश में प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार बनी थी.

गठबंधन की सरकार थी. गठबंधन सरकार की मजबूरियां क्या होती हैं, ये बात पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह दोनों ही अपने अपने शासन के दौर में बता चुके हैं.

ये भी देखने को मिला है कि क्यों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार बार मजबूत सरकार पर जोर देते रहे हैं – और चुनाव के मैदान में उतरने से पहले लोगों से पूर्ण बहुमत वाली मजबूत सरकार देने की अपील करते हैं. 2019 में तो जनता मोदी की अपील मंजूर कर चुकी है, 2024 में क्या फैसला लेती है – हर किसी को इंतजार होगा.

1996 में पेश किये गये महिला आरक्षण बिल में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था प्रस्तावित थी. ये आरक्षण लोक सभा और राज्यों की विधानसभाओं के लिए था, और ये अब भी है. देवगौड़ा सरकार के सामने जो भी हालात और चुनौती रही हो, लेकिन महिला आरक्षण बिल पास नहीं हो सका.

दो साल बाद 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 12वीं लोक सभा में महिला आरक्षण बिल फिर से पेश किया. एक बार फिर गठबंधन सरकार की मजबूरी और चुनौतियां सामने आ खड़ी हुईं. बिल को समर्थन नहीं मिला और सारे प्रयास बेकार गये. विरोध का आलम तो ऐसा रहा कि लालू यादव की पार्टी आरजेडी के एक सांसद सदन के वेल में पहुंच गये. बिल छीन लिया और टुकड़े टुकड़े कर दिये.

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वाजपेयी सरकार ने भी प्रयास जारी रखें

वाजपेयी सरकार ने भी प्रयास जारी रखे. संसद में 1999, 2002 और 2003-2004 में भी महिला आरक्षण बिल पेश कर पास कराने की कोशिश हुई, लेकिन हर बार प्रयास असफल साबित हुए.

2004 में सत्ता बदली और एनडीए की जगह यूपीए की सरकार आ गयी. डॉक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने. यूपीए के पहले कार्यकाल के आखिर में नये सिरे से 108वें संविधान संशोधन के तहत महिला बिल पास कराने की कोशिश हुई. लोक सभा में तो नहीं, लेकिन राज्य सभा में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को सफलता मिली – 9 मार्च 2010 को राज्य सभा से ये बिल पास हो गया.

बिल का समर्थन करने वालों में बीजेपी भी शामिल थी. बीजेपी के अलावा जेडीयू और लेफ्ट पार्टियां भी सपोर्ट में देखी गयीं – लेकिन समाजवादी पार्टी और आरजेडी विरोध में रहे. बीएसपी सांसद सदन से बाहर चले गये थे.

बीजेपी सरकार जाने के बाद 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार सत्ता में आई और डॉक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने. यूपीए सरकार ने 2008 में इस बिल को 108वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में राज्यसभा में पेश किया. वहां ये बिल 9 मार्च 2010 को भारी बहुमत से पारित हुआ. बीजेपी, वाम दलों और जेडीयू ने बिल का समर्थन किया था.

कोशिशें कितनी इमानदार और कितनी गंभीर थीं

महिला आरक्षण बिल को लेकर कई संसदीय समितियां बनाई गयीं, ताकि बिल के विस्तृत अध्ययन के बाद सिफारिशें सामने आ सकें. 2008 में महिला आरक्षण बिल को कानून और न्याय संबंधी स्थायी समिति के पास भेजा गया था.

कानून और न्याय समिति के समीकरण कुछ ऐसे थे कि यूपीए सरकार के लिए आगे बढ़ना काफी जोखिम भरा हो सकता था. समिति में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल दोनों के सदस्य शामिल थे. ये दोनों ही दल महिला आरक्षण के विरोध में खड़े रहे – ऐसे में कांग्रेस तो लगा कि विरोध को दरकिनार कर कोई प्रयास किया गया तो सरकार खतरे में भी पड़ सकती है. क्योंकि मुलायम सिंह यादव और लालू यादव दोनों की ही पार्टियां यूपीए का हिस्सा थीं.

2010 में राज्य सभा में बिल पास होने के बाद भी चार साल तक यूपीए की सरकार रही, लेकिन महिला आरक्षण बिल पर बात आगे नहीं बढ़ पायी. 2014 में लोक सभा भंग होने के साथ ही ये विधेयक अपनेआप खत्म हो गया – अब नये सिरे से प्रयास शुरू हुए हैं.

सवाल उठता है कि क्या महिला आरक्षण को लेकर सभी सरकारों की तरफ से इमानदार प्रयास किये गये?
सवाल ये भी है कि क्या महिला आरक्षण बिल का सपोर्ट कर रहे राजनीतिक दलों ने अपने प्रयासों में पूरी गंभीरता भी दिखाई?

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श्रेय देना तो अब देश के महिला वोटर के हाथ में 

1. क्या महिला आरक्षण बिल को पास कराने के लिए संसद का संयुक्त सत्र नहीं बुलाया जा सकता था? सरकार की अगुवाई कर रही राजनीतिक पार्टी की तरफ से ऐसी पहल तो हो ही सकती थी. अगर ऐसी कोई कोशिश हुई होती तो महिला आरक्षण का श्रेय लेने का दावा भी मजबूत हो सकता था.

2. कहने को तो समाजवादी पार्टी के नेताओं का भी दावा था कि वो महिला आरक्षण के विरोध में नहीं रही है, लेकिन मसौदा उनको पसंद नहीं आया था. आरजेडी की तरफ से भी मिलता जुलता ही रवैया ही देखने को मिला था.

3. जिस तरह बीजेपी अब जाकर तत्परता दिखा रही है, मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में महिला आरक्षण बिल को लेकर कोई पहल क्यों नहीं हुई?

अब जबकि 2024 के आम चुनाव में महज 6-7 महीने रह गये हैं, आखिर कैसे मान लिया जाये कि बीजेपी महिला बिल को लेकर हमेशा ही गंभीर रही होगी?

4. ये तो साफ है कि आने वाले चुनाव में कांग्रेस महिला आरक्षण का मुद्दा भी अपनी सरकारों की उपलब्धियों की सूची में शामिल करके जनता के बीच जाएगी – लेकिन देश की महिलाओं को समझा भी पाएगी क्या?

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