नवेद शिकोह
… रोटी के लिए साक़ी बना और क़तारों में लग गया बदहाली का मारा मेहनतकश
मिर्ज़ा ग़ालिब और हरिवंश बच्चन ने शराब के ऐसे ही नहीं कसीदे पढ़े, कुछ तो है बरकत इसमें। अब देखिए दारू ने लॉक डाउन में भी सरकार को राजस्व दिया।अब मेहनतकशों को शराब की दुकानों की कतारों में लगने का काम मिल गया। मालिकों ने अपने लिए शराब का स्टॉक तैयार करने का काम अपने मुलाज़िमों को दे दिया।
मंहगी शराब की दस-दस बोतलें खरीदने वाले आम इंसानों को ग़ौर से देखिये। इनमें से ज्यादातर की मामूली हैसियत है। चेहरे पर परेशानी, गरीबी, बेबसी और चिंताएं साफ नजर आ रही हैं। मामूली कपड़े, फटे-पुराने जूते-चप्पले पहनने वाले इस मुश्किल कोरोना काल में कई-कई हजार की दारू कैसे खरीद सकते हैं ये !
इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए बहुत ही प्रोफेशनल और मनोवैज्ञानिक तरीके से मुझे पड़ताल करनी पड़ी।
जमीनी हक़ीक़त को जानने के लिए दारू की दुकानों की लम्बी-लम्बी क़तारों मे लगना पड़ा। तीन दिन लगातार तेरह लाइनों में कुल साढ़े पांच घंटे लाइन मे रहे। पत्रकार की तरह नहीं बल्कि शराब खरीदने वाले बन कर करीब पचास से ज्यादा शराब खरीदारों के साथ व्यवहारिक तौर पर मिक्स हुए। उनसे खूब बातें की।
और हम उस जानकारी के लक्ष्य तक पंहुच गये जहां पंहुचने के लिए शराब खरीदार का चरित्र निभाने का संघर्ष कर रहे थे।
हक़ीक़त ये पता चली कि तमाम दुकानों में लाइनों में लगे साठ प्रतिशत से ज्यादा लोग खुद के लिए नहीं दूसरे के लिए दारू खरीदने आये थे। धनाढ्य मालिकों/अधिकारी/व्यापारी इत्यादि अपने मुलाजिमों/अधीनस्थों को मंहगी शराब खरीदने के लिए भेज रहे हैं। आधा-आधा दिन लाइन में लग कर गरीब आपनी देहाड़ी/नौकरी का फर्ज निभा रहा था। ताकि इस सूरत मे ही सही पर उसकी ड्यूटी पूरी हो और उसके वेतन, पगार, देहाड़ी मिल सके।
शुरु के दो दिन लाइन में लगा एक-एक आदमी औसतन पांच-सात हजार की पांच-सात मंहगी शराब की बोतलें खरीद रहा था। यही कारण था कि कई राज्यों की सरकारों ने शराब बिक्री के पहले ही दिन ये समझ लिया था कि गरीबों को लाइन मे लगवाकर रईसों की जमात आने वाले लम्बे वक्त तक के लिए शराब की जमाखोरी करवा रही है। जिसकी काट के लिए दिल्ली और अन्य राज्यों ने पचास से पचहत्तर प्रतिशत तक अतिरिक्त टैक्स लागू कर दिया।
उत्तर प्रदेश सरकार ने ये फरमान जारी कर दिया कि दुकान पर आने वाले हर आदमी को एक बोतल से ज्यादा शराब नहीं दी जायेगी। जिसके बाद अपने-अपने बॉस के लिए दारू इकट्ठा करने वाले मजदूर स्तर के लोग दस-दस दुकानों में लाइनों में लग कर एक दिन में दस बोतल़े खरीदने का टारगेट पूरा कर रहे हैं।
दारू खरीदारों की भीड़ में दारू ना पीने वालों की भीड़ के बड़े संजीदा कारण हैं।
महीना भर काम ही नहीं किया तो पगार कैसी ! इस वाक्य से हर मेहनतकश डरा हुआ है।
कोरोना महामारी और इससे बचने के लिए लॉकडाउन से आधे भारत की गरीब जनता भयभीत है कि अब उसे तनख्वाह/पगार/देहाड़ी नहीं मिलेगी। कोरोना से बच गये तो भुखमरी मार देगी। डर भरी ये फिक्र इसलिए है क्योंकि काम ही खत्म हो गया तो कोई पगार क्यों देगा।
हमारे देश में बड़ी संख्या में लोग सिर्फ जीने के लिए जीते हैं। जीने के लिए रोटी की जरुरत पड़ती है। रोटी के लिए पैसे की जरूरत पड़ती है। पैसे के लिए पगार मिलना जरुरी है। पगार के लिए नौकरी और नौकरी तब तक बर्करार रहती है जब तक काम का सिलसिला होता है।
देश की लाखों कंपनियों, फैक्टियों और कल-कारखानों के शटर डाउन हुए तो करोड़ों मजदूरों के अलग-अलग जत्थों की भीड़ शहरों से अपने-अपने गांवो की तरह पलायन करती दिखी। मजदूर जमात हजारों किलोमीटर पैदल यात्रा करते देखी गयी। वजह ये थी कि ये मेहनतकश बिना काम किए जी नहीं सकते है, इसलिए अपने/अपने गांव की खेती-बाड़ी के काम की उम्मीद से इन्होंने घर वापसी का इरादा बनाया।
हमारे देश का दुर्भाग्य है कि हमारे पास सबकुछ होते हुए भी हम मुफलिस(गरीब) हैं। दस-बीस पूंजीपतियों की दौलत देश की जीडीपी पर भारी है।
असंतुलन का आलम ये कि सवा सौ करोड़ जनता की कुल जितनी आमदनी/ कमाई है सवा सौ पूंजीपति उससे ज्यादा कमा लेते हैं। गरीब और भी गरीब होता जा रहा है और अमीर और भी अमीर होता जा रहा है।
देश की आधी से ज्यादा आबादी मजदूरों-श्रमिको या मजदूरी स्तर का काम करने वालों की है। कोरोना के इस जानलेवा काल में इनकी आर्थिक मदद नहीं हुई तो ये भूखों मर जायेंगे। हांलाकि भारत ने कोरोना से लड़ने के लिए पर्याप्त धन इकट्ठा किया है।
भारत ने एक अरब डालर का लोन विश्व बैंक ने लिया। दुनिया के कई देशों ने भारत को महामारी से उबरने के लिए मदद की। प्रधानमंत्री राहत कोष होने के बाद भी प्रधानमंत्री केयर्स फंड बना जिसमें बेशुमार आर्थिक सहायता पंहुच रही है। कहने का आशय है कि जिनका रोजगार छूटा है और जिनके पास कुछ भी जमा पूंजी नहीं है ऐसे गरीबों, मजदूरों, श्रमिकों, कामगारों के पेट भरने का इंतजाम करने के लिए फिलहाल सरकार के पास पर्याप्त संसाधन हैं। लेकिन बदहाल मजदूरों की स्थिति तमाम सवाल खड़े कर रही है।
सरकार द्वारा इनकी यात्रा का इंतजाम करना सराहनीय है लेकिन उन गरीबों से टिकट वसूलना गलत है जिनकी मदद के लिए वल्ड बैंक से और तमाम स्त्रोतों से लाखों करोड़ का सहयोग और लोन मिला है।
इन विचित्र, गंभीर और दयनीय स्थितियों में भारत में एक धनाढ्य वर्ग ऐसा भी है जो जबरदस्त आर्थिक तबाही और भुखमरी के दौर के बाद भी अपनी कई पीढ़ियों को बैठाकर खिला सकता है। ये वही वर्ग है जो कोरोना काल में मंहगी शराब की दुकानों पर भीड़ लगाकर कोरोना काल में गरीबों की मुफलिसी, तंगहाली और बेबसी को मुंह चिढ़ा रहा है। गौरतलब बात ये है कि मुंह चिढ़ाने में उनका ही चेहरा इस्तेमाल कर रहा है जिन्हें मुंह चिढ़ाना है।
लम्बी कतारों में लग कर हजारों रुपयों की लम्बी-लम्बी शराब की बोतले खरीदने वालों में ज्यादातर लोग शराबी नहीं गरीब शहरी मजदूर हैं। ये अपने मालिकों के लिए कई-कई बार कई-कई दुकानों से कई-कई गज़ लम्बी क़तारों में लग कर दारू का बड़ा स्टाक तैयार कर रहे हैं। इनके मालिकों की मंशा शायद ये है कि अगर खुदानाखास्ता हालात ज्यादा खराब हो गये। महामारी भयावह हो गई। शराब बिकना बंद हो गई। वायरस विस्फोटक हो गया और मौतों और गरीबों की भुखमरी का सिलसिला शुरु हो गया तो हम रईसों के पीने-पिलाने के शौक़ में आगे ख़लल ना पैदा हो जाये।
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धनाढ्य लोगों की कुछ ऐसी दूरदर्शिता ने कुछ वक्त के लिए मायूस गरीबों को अपने मालिक की सेवा का मौका दे दिया। शहर में अपने मालिकों से इस बार बिना काम किये तन्ख्वाह मांगने में झिझक रहे गरीब मुलाजिम भी शराब की दुकानों की कतारों में शामिल हैं।ये अपने मालिकों के लिए शराब का स्टॉक तैयार कर रहे हैं। क्योंकि मालिक आने वाले संभावित बुरे वक्त मे भी शराब का पर्याप्त इंतेजाम कर लेना चाहते हैं।
ये मुलाजिम निर्माण कार्य में ईटा पत्थर उठाने वाले या कल-कारखानों, फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूर नहीं है। पर ये मजदूरी स्तर के असंगठित पेशे वाले कामगार हैं। इनकी मेहनत, ड्यूटी आवर्स और पगार भी मजदूरों जैसी है। सात से पंद्रह हजार रूपए मासिक पगार पाने वाले छोटी-बड़ी जगह छोटी-मोटी नौकरी करने वाले ऐसे मुलाजिम पिछले करीब डेढ़ महीने से अपने ऑफिस,दुकान इत्यादि का काम तो कर नहीं पाये इसलिए अपने मालिकों/बॉस के निजी काम में लगे हैं।
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इसलिए शराब की दुकानों पर खड़े हर शख्स को हिक़ारत की नज़र से मत देखिए, इनमें बुरे वक्त में भी नशे का शौक़ फरमाने वाले शराबी ही नहीं हैं। गरीब मेहनतकश, श्रमिक, कामगर और मजदूर हैं, जो रोटी के लिए रईसों के हुक्म का पालन कर रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)