शबाहत हुसैन विजेता
दरोगा दाढ़ी रखे तो यह नियमों के खिलाफ है. उसे क्लीन शेव रहना होगा. दरोगा एफआईआर न लिखता हो, बगैर घूस के फरियादी की बात न सुनता हो, शिकायत लेकर आने वाले के साथ बदसलूकी करता हो, बगैर गालियों के उसकी बात ही पूरी न होती हो तो इसमें बदलाव की कोई ज़रुरत नहीं है. यह सब नियमों में है.
सभासद फार्च्यूनर से कैसे चलता है. विधायक फार्महाउस कैसे बनाता है. सरकारी डाक्टर नर्सिंग होम का मालिक कैसे बन जाता है. गवर्नमेंट सप्लाई लिखी दवाईयां किसी प्राइवेट क्लीनिक से कैसे मिलने लगती हैं. सरकारी अस्पताल में सप्लाई होने वाली आक्सीजन कहां गायब हो जाती है. बार-बार फोन करने के बावजूद एम्बुलेंस क्यों नहीं पहुंचती है. एम्बुलेंस का ड्राइवर मरीज़ के रिश्तेदार से डीज़ल कैसे डलवा लेता है. इन सवालों का जवाब तलाशने की ज़रुरत किसी को नहीं है.
सरकारी इंजीनियर प्राइवेट मकानों के नक़्शे कैसे बना देता है. सरकारी नौकरी के टाइम में प्राइवेट इमारतों के निरीक्षण को कैसे पहुँच जाता है. रिटायरमेंट से पहले या रिटायरमेंट के फ़ौरन बाद वह बड़ी-बड़ी हवेलियों का मालिक कैसे बन जाता है. उसके रिश्तेदार और दोस्त उसी के पास ठेकेदार बन जाते हैं और उसके अफसरों को खबर ही नहीं हो पाती.
नजूल की ज़मीनों और शत्रु सम्पत्तियों पर अपार्टमेंट क्या रातों-रात बन जाते हैं जो विकास प्राधिकरणों को खबर नहीं हो पाती? बगैर नक्शा पास इमारतें क्या कुछ सेकेंडों में खड़ी हो जाती हैं जो ज़िम्मेदारों को पता नहीं चल पाता. रिहायशी इलाकों में कमर्शियल काम शुरू हो जाता है और बरसों चलता रहता है मगर किसी को कानो-कान खबर नहीं होती.
ग्रामीण इलाकों के स्कूलों में टीचर पढ़ाने आता है या नहीं आता. जो टीचर बच्चो को पढ़ाता है उसे खुद कितना आता है. एक ही नाम का टीचर 25 स्कूलों से सैलरी लेता रहता है और साल भर तक शिक्षा विभाग जान ही नहीं पाता.
कोरोना काल में स्कूल बंद हैं मगर स्कूल बस की फीस जमा करना ज़रूरी है. लोगों की नौकरियां चली गई हैं मगर वह फीस नहीं जमा करेंगे तो बच्चे का नाम काट दिया जायेगा. बच्चे की फीस जमा नहीं होगी तो उसे एग्जाम नहीं देने दिया जायेगा.
रोज़गार के साधन बंद हैं मगर आलू चालीस रुपये किलो मिल रहा है. टमाटर अस्सी रुपये किलो हो गया है. वित्तमंत्री प्याज नहीं खातीं तो उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं कि प्याज़ दो सौ रुपये किलो में बिक गया.
बाज़ारों में भीड़ जमा है. चुनावी रैलियां चल रही हैं. कहीं कोरोना का कोई खतरा नहीं दिखता लेकिन मजहबी जुलूसों पर पाबंदी है. सड़क पर सौ लोग जमा रहें मगर इमामबाड़े में पांच लोग से ज्यादा न हों. प्रदर्शन में कितने भी लोग आ जाएँ मगर ताजिया न निकले वर्ना कोरोना फैल जायेगा.
नागरिक संशोधन क़ानून का विरोध कर रही महिलाओं को लखनऊ के घंटाघर से कोरोना के नाम पर हटा दिया गया. अब वहां पीएसी का कब्ज़ा है. पीएसी कोरोना प्रूफ है. लखनऊ ही नहीं पूरे देश की शान माना जाने वाला एतिहासिक घंटाघर इन दिनों पीएसी के वाहनों से घिरा है. पर्यटकों को वहां जाने की इजाज़त नहीं है.
रामलीला को इजाज़त है मगर दुर्गापूजा पर रोक है. जीता जागता इंसान रामलीला करे मगर वह मूर्तियाँ स्थापित नहीं कर सकता. मूर्तिकार जो दुर्गापूजा के समय में मूर्तियों के ज़रिये अपने परिवार के लिए साल भर की जीविका जुटाता है मगर उसकी भुखमरी की फ़िक्र किसी को नहीं.
देश को ईमानदार और बेईमान में बांटा जाना चाहिए था मगर वह हिन्दू-मुसलमान में बांटा जा रहा है. नफरत फैलाने के लिए आईटी सेल रात-दिन एक किये है. झूठी-सच्ची खबरें प्रसारित की जा रही हैं. नेता पाकिस्तान जाकर जिन्ना की मज़ार पर माथा टेक रहा है और कार्यकर्त्ता जिन्ना की तस्वीर उखाड़कर फेंकने की बात कर रहा है. जो जिन्ना 73 साल पहले रिश्ता तोड़कर चला गया उसे लगातार याद रखा जा रहा है और जो इसी ज़मीन पर पैदा हुआ और यहीं की मिट्टी में मिल जायेगा उससे नफरत का पाठ पढ़ाया जा रहा है.
दशहरा आता है और चला जाता है. बांस की खपच्चियों और कागज से बना रावण हर साल जला दिया जाता है मगर भीतर का रावण तो कभी मरता ही नहीं. वह तो बार-बार अपने दस सिरों में से कोई न कोई सर निकाल ही लेता है और अत्याचारों की शुरुआत कर देता है.
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रावण मैदानों में खड़ा हो गया है. भगवान राम एक बार फिर उस पर वाण चलाएंगे और वह कटे पेड़ से ढह जाएगा. एक बार फिर तेज़ी से पटाखे फूटेंगे. भगवान राम की फिर से जय-जयकार होगी मगर हालात बदलेंगे नहीं. व्यवस्था किसी दरोगा की दाढ़ी कटवाकर समझ लेगी कि सब ठीक हो गया है मगर अस्पताल में दवाएं अब भी नहीं मिलेंगी. नजूल की ज़मीन पर फिर से अपार्टमेंट बनेंगे. अब भी फरियादी की नहीं सुनी जायेगी. आम आदमी कीलों की ज़मीन पर खड़ा होकर सोचेगा कि किस रावण की काटूं बाहें किस लंका को आग लगाऊं, घर-घर रावण दर-दर लंका इतने राम कहाँ से लाऊं.