- एक साल में 42,480 किसान-मजदूरों ने दे दी जान
- बिहार में 45 प्रतिशत ज्यादा हुई आत्महत्या
प्रीति सिंह
यदि अब भी सरकार किसानों को लेकर गंभीर नहीं हुई तो फिर कभी नहीं होगी। ऐसे समय में जब कोरोना महामारी के बीच भारत की अर्थव्यवस्था बदहाल हो चुकी है, ऐसे में भी कृषि क्षेत्र सुरक्षित है। कृषि क्षेत्र में अप्रैल-जून में 3.4 फीसदी की बढ़त देखने को मिली है, जो पिछले साल 2019-20 में 3 फीसदी थी।
एक ओर देश की जीडीपी में निगेटिव ग्रोथ देखने को मिली है तो वहीं देश में किसान और मजदूरों के आत्महत्या के चौकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के नए आंकड़ों के मुताबिक साल 2019 में 42,480 किसानों और दैनिक मजदूरों ने आत्महत्या की। ये आंकड़ा साल 2018 के आकंड़ों से 6 फीसदी अधिक है। इसमें किसान आत्महत्या के मामले में थोड़ी कमी आई है मगर मजूदरों की आत्महत्याएं आठ फीसदी बढ़ी हैं।
किसानों की आत्महत्या से अब किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। तभी तो देश में दशकों से किसान पलायन कर रहे हैं, आत्महत्या कर रहे हैं, लेकिन इस पर कोई शोर-शराबा नहीं है। सरकार अपने काम में मस्त है और लोग अपने में। दरअसल किसानों की समस्याओं से न तो सरकार को सरोकार है और न ही विपक्षी दलों को।
पिछले 20 साल में तकरीबन तीन लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली और इस पर कोई शोर-शराबा नहीं हुआ। किसानों की आत्महत्याओं पर संसद में कृषि मंत्री बेतुका बयान देते हैं और सरकार इस पर चुप्पी साध लेती है। यह भारत में ही संभव है कि इतनी संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। कोई दूसरा देश होता तो वहां की सरकार हिल जाती।
दरअसल किसानों को खेती-किसानी में इतना नुकसान उठाना पड़ता है कि वह कर्ज लेकर भी अपनी खेती को पटरी पर नहीं ला पा रहे है। इसका परिणाम है कि किसान निराशा में कभी रेल की पटरियों पर लेटकर, पेस्टीसाइड पीकर, कभी मवेशियों को बांधने वाली रस्सी अपनी गर्दन के चारों ओर लपेटकर, कभी नहर या कुएं में छलांग लगाकर तो कभी अपनी मां या पत्नी के दुपट्टे से मौत का फंदा बनाकर अपने ही खेत के किसी पेड़ पर ख़ुद झूल रहे हैं।
बीते दो दशकों से किसानों की लगातार खराब होती स्थिति और अनवरत जारी आत्महत्याओं के इस सिलसिले को देखते हुए यह साफ हो जाता है कि शायद किसानों के मरने से वाकई किसी को फर्क नहीं पड़ता।
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क्या है NCRB का नया आंकड़ा
नये आंकड़ों के अनुसार साल 2019 में 10,281 किसानों ने आत्महत्या की, ये 2018 में 10,357 किसान आत्महत्या से थोड़ा कम है। पिछले एक साल में 32,559 मजदूरों ने आत्महत्या की है जबकि 2018 में ये आंकड़ा 30,132 था।
देश में कुल आत्महत्या के 7.4 फीसदी मामले कृषि क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। इसमें किसानों की संख्या 5,957 है जबकि खेतिहर मजदूरों की संख्या 4,334 है। भारत में कुल आत्महत्या से जुड़े मामलों की संख्या 2019 में बढ़कर 1,39,123 तक पहुंच गई है जो 2018 में 1,34,516 थी।
NCRB डेटा के मुताबिक आत्महत्या करने वाले में 5,563 पुरुष किसान और 294 महिला किसान थी। 2018 में ये आंकड़ा 3,749 और 575 था। रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि ओडिशा, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तराखंड, मणिपुर, चंडीगढ़, दमन-दीव, दिल्ली, लक्षद्वीप और पुडुचेरी में किसान और खेतिहर मजदूरों से जुड़ा आत्महत्या का एक भी मामला दर्ज नहीं किया गया।
ताजा आंकड़ों के मुताबिक आत्महत्या के मामलों में बिहार (44.7), पंजाब में (37.5), झारखंड में (25), उत्तराखंड में (22.6) और आंध्र प्रदेश में 21.5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।
शहरों की बात करें तो यहां आत्महत्या के मामले राष्ट्रीय औसत 10.4 फीसदी से अधिक 13.9 फीसदी रहा। केरल के कोल्लम और पश्चिम बंगाल के आसनसोल में क्रमश: 41.2 और 27.8 फीसदी आत्महत्या की उच्चतम दर दर्ज की गई।
रिपोर्ट में बताया गया, ‘बड़े शहरों में चेन्नई (2,461), दिल्ली में (2,423), बेंगलुरु में (2,081) और मुंबई में 1,229 आत्महत्याओं के मामले दर्ज किए गए। इन चार शहरों में देश के 53 बड़े शहरों के 36.6 फीसदी आत्महत्या के मामले दर्ज किए गए।’
इस हालात के लिए कौन है जिम्मेदार ?
किसान आज जिस समस्या से परेशान है वह आज की नहीं है। किसानों के आज के हालात के लिए किसी एक सरकार को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं है। दरअसल किसानों की न तो कांग्रेस ने सुध ली और न ही वर्तमान सरकार ने। देश की सरकारों ने भले-चंगे किसानों को बीमार बना के अस्पताल में भर्ती करवा दिया। वर्तमान में किसान आईसीयू में पहुंच गए हैं। उन्हें उस आईसीयू से कैसे निकाला जाए, यह बड़ी चुनौती है।
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किस संकट से जूझ रहे हैं किसान
देश के किसान कई संकट से जूझ रहे हैं लेकिन तीन बड़े संकट हैं जिसकी वजह से किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। सबसे बड़ी समस्या है कि आज खेती घाटे का धंधा बन गई है। किसान उम्मीद करता है कि उसे खेती में अगले साल मुनाफा होगा लेकिन उसकी उम्मीद पूरी नहीं होती। दुनिया का और कोई धंधा घाटे में नहीं चलता, पर खेती हर साल घाटे में चलती है।
दूसरी सबसे बड़ी समस्या है जल संकट। पानी जमीन के काफी नीचे पहुंच गया है, मिट्टी उपजाऊ नहीं रही और जलवायु परिवर्तन किसानों पर सीधा दबाव डाल रहा है। बुंदेलखंड, महाराष्ट्र , मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में पानी की समस्या बड़ी है। इन राज्यों के किसान सूखे की मार से परेशान है।
महाराष्ट्र में 2018-2019 का साल किसानों के लिए बहुत चुनौतिपूर्ण रहा। महाराष्ट्र की 42 फीसदी तालुकाएं सूख गईं।। इस सूखे ने राज्य के 60 फीसदी किसानों का प्रभावित किया, इससे बड़े पैमाने पर किसानों की फसलें चौपट हुई हैं। यही हाल बुंदेलखंड का था । मध्य प्रदेश में भी कई जिलों में लोग पीने के पानी के लिए लोग तरसते हैं तो खेतों की सिचाई के लिए पानी की कल्पना करना बेमानी है।
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किसानी के अस्तित्व पर संकट
भारत के लिए किसानी की क्या भूमिका है इससे सभी वाकिफ है। कृषि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है लेकिन आज उसी के अस्तित्व पर संकट का बादल मंडरा रहा है। घाटे का सौदा होने की वजह से किसान किसानी से दूरी बना रहे हैं और वह अपने बच्चों को इससे दूर रखना चाह रहे हैं।
किसानों की बदहाली का क्या है स्थायी इलाज
किसानों की बदहाली का स्थायी इलाज अर्थव्यवस्था को बदलने से होगा। देश में जो सिंचाई की व्यवस्था है, उसे बदलने की जरूरत है। खेती के तरीकों के बदलने की जरूरत है। किसानों को राहत देने के लिए बिल बनाने की जरूरत है।
जानकारों के मुताबिक मौजूदा समय में संसद में दो कानून लंबित है। दोनों प्राइवेट मेंबर बिल हैं। पहले बिल के मुताबिक किसान को अपनी फसल की न्यूनतम कीमत कानूनी गारंटी के रूप में मिले। दूसरे बिल के मुताबिक जो किसान कर्ज में डूबे हुए हैं उसे कर्ज से एक बार मुक्त कर दिया जाए, ताकि वो एक नई शुरुआत कर सके। जानकारों का मानना है कि इससे किसानों को राहत जरूर मिलेगी।