केपी सिंह
हमारे देश के माननीयों के बारे में ऐसी अच्छी खबरें कम ही आती हैं जिससे समाज के नैतिक उत्थान में सहायता मिले। उनसे जुड़ी ज्यादातर खबरें लोगों के मन का जायका खराब करने वाली होती हैं। हालांकि माननीयों की सेहत पर इसका कोई असर नहीं पड़ता क्योंकि तमाम बुरे कर्म करने वालों को ही जनता चुनाव में सिर माथे बैठाती है। इसके चलते लोकतंत्र समाज में अपसंस्कृति के प्रसार का जरिया साबित हो रहा है।
सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग ने राजनीतिक समाज की गंदगी दूर करने के लिए कई वैधानिक प्रयास किये। चुनाव में नामांकन के समय उम्मीदवार से उसके विरूद्ध दर्ज आपराधिक मुकदमों और आर्थिक हैसियत का ब्योरा मांगा जाने लगा, जनप्रतिनिधियों के खिलाफ मुकदमों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतों का प्रावधान और एक समय सीमा में उसका निस्तारण, चुनाव के समय आय से अधिक खर्चे पर नियंत्रण के लिए आयोग द्वारा कराई जाने वाली भीषण सर्च आदि इसमें शामिल हैं। लेकिन हालत यह है कि जितने उपाय हो रहे हैं उतनी ही तेजी से कुरीतियां और ज्यादा पैर पसारती जा रही हैं। यह बात उजागर हो रही है कि सामाजिक संस्थाओं को कमजोर करके वैधानिक नियंत्रणों से समाज में नैतिक अनुशासन को मेंटेन रखने की कल्पना मृगमरीचिका है इसलिए एक बार फिर हमें कानूनों के साथ-साथ सामाजिक संस्थाओं को बलबती करने जैसे विकल्पों पर विचार करना होगा।
ताजा मामला 16वी लोकसभा के भंग होने के दो महीने बाद भी 200 पूर्व सांसदों द्वारा लुटियंस जोन के बंगले खाली न करने का है जबकि इस बार 260 सांसद पहली बार लोकसभा के लिए चुने गये हैं। यह एक अच्छी बात है कि मौजूदा सरकार ने आवास के लिए प्रतीक्षारत नये सांसदों को पांच सितारा होटलों में ठहराने के इंतजाम की व्यवस्था समाप्त कर दी है अन्यथा पहले तमाम सांसद सरकारी आवास आवंटित हो जाने के बावजूद लम्बे समय तक पंचसितारा होटल में ही मौज मारते रहते थे जिससे सरकारी खजाने का भट्ठा बैठता था पर माननीयों को इसकी परवाह कहां। सरकारी खजाना तो उन्हें अपनी बपौती लगता है जबकि उन्हें इस मामले में एक नेक ट्रस्टी जैसा व्यवहार करते हुए अपने ऊपर कम से कम खर्च होने देने का उदाहरण पेश करना चाहिए।
दिवंगत सुषमा स्वराज ने इस बार लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा था। गत 25 मई को राष्ट्रपति ने 16वी लोकसभा भंग कर दी थी। नियम के अनुसार इसके बाद महीने भर में निवर्तमान सांसद को अपना आवास खाली कर देना चाहिए लेकिन सुषमा स्वराज ने इस मियाद के पहले ही अपना मंत्री आवास खाली कर दिया था और जन्तर मंतर रोड स्थित निजी आवास में शिफ्ट हो गई थी। उनके देहावसान की खबरों के साथ प्रेरणा देने वाला यह प्रसंग भी मीडिया में सुर्खियों में चर्चित किया गया था। फिर भी आवास न खाली करने वाले पूर्व सांसदों के जमीर ने उनको नहीं झकझोरा। इससे पता चलता है कि हमारे माननीय कितने धृष्ट और बेहया हो चुके हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के तत्काल बाद अपनी पार्टी के नये सांसदों की पाठशाला आयोजित कर उन्हें तमाम पाठ पढ़ाये थे जिनका सार यह था कि वे वीआईपी रूआब में भूले रहने की बजाय अपने आचरण पर ध्यान दें क्योंकि वीआईपी यानी सच्चा और स्थायी आदरणीय स्थान समाज में सदाचरण से ही अर्जित होता है लेकिन शायद बहुत कम सांसद होंगे जिन्होंने उनके द्वारा दी गयीं नसीहतों से कोई सीख ली हो।
आवास खाली न करने वाले 200 पूर्व सांसदों में तमाम भाजपा के पूर्व सांसद भी हैं। भाजपा इस सदी के शुरू से ही पार्टी विद अ डिफरेंस का राग अलाप रही है लेकिन जब उसके अमल को कसौटी पर परखने का मौका आया तो मालूम हो रहा है कि ये तो और सुभानअल्लाह हैं।
भाजपा के सांसद हो या विधायक आचरण के मामले में नई तस्वीर पेश करने के उत्सुक बिल्कुल नहीं हैं बल्कि सत्ता में पार्टी के आने से उन्हें जो अवसर मिला है उससे उनकी दमित कुंठाओं का विस्फोट हो गया है जो दूसरी पार्टियों के जमाने में उनके माननीयों के जलबे देखकर उनके मन में घर कर रही थी।
ऐसा नहीं है कि आवास खाली न करने वाले पूर्व सांसद बेघर हों। आज स्थिति यह हो गई है कि एक बार विधायक और सांसद बन जाने के बाद ही माननीय सर्व साधन संपन्न हो जाते हैं। उनके पास हर तरह के ऐश्वर्य की व्यवस्था तो हो ही जाती है, साथ ही वे दुबारा चुने जायें या न चुने जायें अच्छी खासी नियमित आमदनी का उनका जरिया भी बन जाता है। इन पूर्व सांसदों में कुछ तो ऐसे होंगे जिनके पास दिल्ली में निजी आलीशान बंगला हो लेकिन फिर भी उन्हें सरकारी आवास नहीं छोड़ते बन रहा है। अब अगर कानून बनाने वाले ही कानून का सम्मान न करें तो सरकारी नौकर कैसे कानून का सम्मान करेंगे।
इसीलिए अधिकारी और कर्मचारी भी तबादला हो जाने के बाद सालों सरकारी आवास खाली करने से बचते रहते हैं जबकि इससे ट्रासफर पर आने वाले नये अमले को भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।
सरकारी कर्मचारियों के नई पेंशन व्यवस्था से नाराज संगठन इसीलिए सांसदों और विधायकों की पेंशन खत्म करने की मांग कर रहे हैं तो इसमें कोई बेजा बात नहीं है। आज माननीय बेचारे नहीं रह गये। पूर्व होकर भी जनता की सेवा का जितना प्रसाद उनके पास जमा रहता है उसे देखते हुए उनकी पेंशन बंद होनी ही चाहिए जबकि रिटायर कर्मियों के भारी भरकम पेंशन खर्च से उबरना सरकार की मजबूरी बन गया है। इसके लिए सरकारी कर्मचारियों पर उनके साथ जबरदस्ती करने की बजाय नैतिक दबाव बनाने की जरूरत है जो तभी संभव है जब माननीय खुद अपनी बेजरूरत पेंशन समाप्त कराने के लिए आगे आयें।
दरअसल सरकारी सुविधाओं को हड़पते रहना नेताओं की प्रवृत्ति बन गया है। अमर सिंह और कई उद्योगपति, अमिताभ बच्चन जैसे फिल्म सितारे जब संसद में पहंचते हैं तो उन्हें भी सरकारी आवास चाहिए होता था। पता नहीं आज क्या स्थिति है वरना कुछ वर्ष पहले तो सांसद बने उद्योगपति और फिल्म सितारों ने सरकारी आवास में अपने स्तर की सुविधायें जुटाने के लिए संबंधित विभागों को मजबूर करना शुरू कर दिया था जिससे माननीयों पर होने वाला खर्चा बहुत ज्यादा बढ़ गया था। ऐसा क्यों नहीं हो सकता जब समृद्धि के शिखर पर विराजमान लोग संसद की शोभा बढ़ाने पहुंचें तो खुद ही बंगला सहित सरकारी सुविधायें लेने से इंकार कर दें। लेकिन अफसोस है कि ऐसे त्याग की कोई मिसाल अभी तक सामने नहीं आयी है। भारतीय संस्कृति में तो अर्थ को भी पुरूषार्थ का दर्जा दिया गया है। इसलिए कारपोरेट भी विभूति का दर्जा रखते हैं बशर्ते वे एक क्षेत्र में कामयाबी की चोटी छू लेने के बाद नैतिक अर्हता अर्जित करने की ललक भी दिखायें।
उत्तर प्रदेश में माननीयों को अपनी सत्ता मजबूत करने के लिए भ्रष्ट करने का सिलसिला वीर बहादुर सिंह के कार्यकाल में शुरू हुआ था जब दिल्ली में अपने खिलाफ लाबिंग कर रहे सांसदों का मुह बंद करने के लिए उन्होंने क्षेत्र भ्रमण की सुविधा के नाम पर उनको जिप्सी की व्यवस्था कराई थी जो उस समय बहुत लग्जरी गाड़ी मानी जाती थी। उत्तर प्रदेश के सांसदों को उनके समय और भी तमाम अतिरिक्त सुविधायें दी गई थी। इसके बाद देश व्यापी स्तर पर उनके नैतिक पतन के आयोजना की बाढ़ नरसिंहाराव सरकार के समय सामने आयी।
नरसिंहाराव ने अल्पमत सरकार चलाई थी जिसकें प्रबंधन के लिए उन्होंने सांसदों की खरीद फरोख्त की परंपरा शुरू की जो आखिर में पैसे लेकर सवाल पूंछने तक के पतन की तलहटी में पहुच गई। उनके पहले चन्द्रशेखर की सरकार भी कारपोरेट ने सांसद खरीदकर बनवाई थी लेकिन तब लोकतंत्र का सत्यानाश करने वाले सारे गुनाह इसलिए माफ थे क्योंकि मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करके सामाजिक न्याय का जो पाप किया गया था समाज का प्रभु वर्ग उसके निवारण की आशा की झलक इस उठापटक में देख रहा था।
इसके बाद भी देश का राजनीतिक माहौल बहुत सुखद नहीं रहा। अल्पमत सरकारें आती जाती रही जिनकी अपनी सीमायें थी लेकिन अब जबकि पूर्ण बहुमत प्राप्त कर धर्म प्राण सरकारें केन्द्र और राज्यों में पदारूढ़ हुई हैं तो इस बात का तकाजा है कि लोकतंत्र में जिन पापों का घड़ा भर चुका है उन्हें फोड़कर फेंक दिया जाये लेकिन लगता है कि इसमें तथाकथित नियम संयम वाले कर्ता धर्ताओं की कोई रूचि नहीं है। वे यथास्थिति को भंग करने की बजाय उसे और सींचने का काम कर रहे हैं।
पहली गलती तो भाजपा में विधायक और लोकसभा के चुनाव के उम्मीदवारों के चयन में की जा रही है जिसमें न योग्यता का महत्व है और न काम का। जिनकी निजी पहचान और साख न हो उन्हें माननीय बनाने का अवसर देकर आप क्या उम्मीद कर सकते हैं। इसीलिए सत्तारूढ़ पार्टी के ज्यादातर माननीय कोई बड़प्पन प्रदर्शित नहीं कर पा रहे। उनके बारे में पार्टी से लेकर संघ की बैठकों तक में शिकायतें आ रही हैं पर अभी तक ऐसा कोई प्रबंध नहीं किया गया है जिससे भाजपा के माननीय गलत काम से सहमें।
सत्तारूढ़ पार्टी के माननीय अगर आचरण के मामले में नजीर बनकर अगर आयेंगे तो अन्य दलों के माननीयों पर भी इसका असर पड़ेगा। अन्यथा संयुक्त मोर्चा सरकार में इद्रजीत गुप्ता गृहमंत्री थे जिन्होंने न तो बंगला लिया था और न स्पेशल सुरक्षा व्यवस्था। लेकिन उनकी पार्टी हाशियें की पार्टी थी जिसकी वजह से उनके त्याग और सादगी का राजनीति में कोई प्रभाव नहीं हुआ। बहरहाल भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को ऐसी पहल करनी होगी जिससे केवल तकनीकी तौर पर बने नेता सामने न आयें बल्कि ऐसे माननीय हों जिन्हें समाज दिल से नेता के रूप में स्वीकार करता हो।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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