मौत ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सच है. जिसे ज़िन्दगी मिली है उसे मौत का मज़ा भी चखना है. मरना कोई भी नहीं चाहता. लाख दुश्वारियां हों मगर इंसान जिए जाता है. उम्र में एक पड़ाव ऐसा आता है जिसमें इंसान फिर से बच्चा बन जाता है. उसे हमेशा किसी सहारे की ज़रुरत होती है.
जब सहारे की ज़रूरत होती है तब ज़िन्दगी मुश्किलों में घिर जाती है लेकिन जब पास में ढेर सारा पैसा हो और औलादें लालची हों और इस इंतज़ार में हों कि आँख मुंद जाये तो यह सारा पैसा मेरा हो जाए.
अमरनाथ अग्रवाल रिटायर्ड इंजीनियर हैं. बहुत संवेदनशील कवि हैं. नौकरी के दौर में भी साधू जैसा जीवन जिया. लिखने-पढ़ने से उन्हें कभी फुर्सत ही नहीं रही. बुढ़ापे में बच्चो पर आश्रित होने के दर्द को उन्होंने अपनी कविता में बहुत शानदार तरीके से उकेरा है. जुबिली पोस्ट के पाठकों को हम इस तरह की रचनाएं लगातार पेश करते रहते हैं.
कब आयेगी मौत मुझे
मैं वक्त काटता हूँ अपना।
मै रोज देखता हूँ सपना।
कब आयेगी, प्रभु! मौत मुझे??
कब आएगी?
कब आएगी?
मौत मुझे???
अब चला नहीं जाता मुझसे।
कुछ करा नहीं जाता मुझसे।
मै रोज ठोकरें खाता हूँ,
जब भी मै बाहर जाता हूँ ।
यह जीवन है दुश्वारी अब।
लगता है क्षण -क्षण भारी अब।
मुझको प्रभुवर! कुछ बतलाओ।
मुझको भी अब कुछ समझाओ।
क्यों रखा अभी तक है तूने-
प्रभु! इस जीवन से जोत मुझे??
कब आयेगी, प्रभु! मौत मुझे??
कब आएगी?
कब आएगी?
मौत मुझे??
दुत्कारें सारे, रोज मुझे ।
सब मिलकर मारें, रोज मुझे।
क्यों अभी नहीं बूढ़ा मरता?
उरद- मूँग छाती पर दलता।
हर क्षण बड़ -बड़, टर -टर करता।
पर काम नहीं धेला करता।
खाकर कउवे -काले आया।
यह उमर लिखा, कितनी आया?
मर जाये तो, कार खरीदूँ।
बीबी को उपहार खरीदूँ।
दे क्यों नहीं मृत्यु न्यौत मुझे?
कब आएगी प्रभु! मौत मुझे??
कब आएगी?
कब आएगी?
मौत मुझे ।
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