केपी सिंह
वैश्विक पैमाने पर जब पत्रकारिता की ताकत की चर्चा होती है तो अमेरिका के वाटरगेट कांड का उदाहरण दिया जाता है। इसमें वाशिंगटन पोस्ट के खुलासे के कारण अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति निक्सन को बेआबरू होकर गददी छोड़नी पड़ी थी। विडंबना यह है कि इस मामले में अपने देश के इतने ही सशक्त उदाहरण को लोग बिल्कुल विस्मृत कर चुके हैं।
जनता पार्टी की सरकार के पतन की भूमिका एक खबर के कारण तैयार हुई थी। उस एक्सक्लूसिव खबर को यूएनआई के मध्य प्रदेश के तत्कालीन ब्यूरो प्रमुख जाल खंबाटा ने तैयार किया था। खबर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तत्कालीन सर संघ चालक स्व. बाला साहब देवरस को भोपाल में आयोजित हुई जनसंघ घटक के लोगों की एक गोपनीय बैठक में यह कहते हुए बताया गया था कि संघ के लोग धीरे-धीरे जनता पार्टी से समाजवादियों, लोकदलियों और पूर्व कांग्रेसियों को खदेड़कर सरकार पर निखालिस अपने कब्जे की तैयारी करें।
संघ ने इस खबर को नकारते हुए जाल खंबाटा पर मुकदमें की धमकी दी थी पर उनके पास बाला साहब देवरस के भाषण का टेप था इसलिए ऐसा करने की हिम्मत नही की जा सकी। इस खबर से भड़के सोशलिस्टों ने दोहरी सदस्यता का मुददा उठा दिया और अंततोगत्वा दूसरी आजादी के नाम से महिमा मंडित की गई केंद्र की पहली गैर कांग्रेसी सरकार ढाई वर्ष में ही अल्प मृत्यु को प्राप्त हो गई।
इसके बाद कांग्रेस ने कुछ महीनों के लिए चौधरी चरण सिंह की कठपुतली सरकार बनवाई जो एक भी बार संसद में विश्वास प्राप्त नही कर सकी। इस बीच मध्यावधि चुनाव हुए और कांग्रेस फिर भारी बहुमत से सत्ता में लौट आई।
सांस्कृतिक संगठन का छदम
यह जताता है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की गिद्ध दृष्टि कितने पहले से सत्ता पर थी। हालांकि आरएसएस बहुत दिनों तक अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को खुद को सांस्कृतिक संगठन बताकर छदम से ढकने की कोशिश करता रहा।
1996 से उसका सपना मंजिल के करीब आना शुरू हुआ लेकिन अटल जी की सरकार संघ के लिए पूर्णाहुति की ओर अग्रसर होने की पहली सीढ़ी भर थी। जिसकी वजह से तब उसने खुलकर सत्ता का खेल खेलना शुरू नही किया था। इस मामले मे संघ की पूर्णाहुति अब मोदी सरकार पार्ट-2 में हुई है।
जबसे अंबानी बने भारत सरकार के भाग्य विधाता
इस बीच भीषण राजनीतिक उथल-पुथल का दौर रहा। कांग्रेस तो बहुत पहले राजनीतिक अपसंस्कृति को बढ़ावा देने के लिए बदनाम हो चुकी थी। लेकिन लोकतंत्र को धनबल के जरिये अर्थहीन बनाने की बड़ी शुरूआत विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को गिराने में अंबानी की भूमिका से सामने आई।
चंद्रशेखर का समर्थन करने वाले 90 फीसदी सांसद अंबानी द्वारा उनके लिए खरीदे गये थे। एक कारपोरेट सरकार को गिराने और बिठाने का खेल करने लगे लोकतंत्र के लिए इससे बड़ा अशुभ दिन कोई नही हो सकता था। पर इसकी गंभीरता को उस समय नजरंदाज कर दिया गया था क्योंकि मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करके पिछड़ो को प्रशाासन में समुचित प्रतिनिधित्व के साथ स्थापित करने का जो उपक्रम विश्वनाथ प्रताप सिंह ने किया था उसके प्रक्षालन के लिए कुछ भी करना जायज समझा जा रहा था।
चंद्रशेखर का नारद मोह
चंद्रशेखर की सरकार पूरी तरह अनैतिक सरकार थी। जिसमें 55 के करीब संासद वाली पार्टी को 200 से ऊपर सदस्य संख्या वाली कांग्रेस पार्टी बाहर से समर्थन दे रही थी। ऐसी सरकार का कोई वजूद नही हो सकता था। लेकिन एक बार मौर (प्रधानमंत्री का ताज) सिर पर रखवाने के लिए अधीर चंद्रशेखर ने नारद मोह के चलते इस कलंक का वरण कर लिया। 4 महीने में ही उनकी सरकार औधें मुंह जा गिरी और इसके बाद चुनाव में जनता ने भरपूर फजीता करके इस पाप की बखूबी सजा उन्हें दी।
4 महीने बनाम 40 साल की बात करके अपने मुंह मियां मिटठू बनने वाले चंद्रशेखर की पार्टी को 1991 के मध्यावधि चुनाव में पूरे देश में केवल 5 सीटे नसीब हुईं। इनमें भी एचडी देवगौड़ा थे जो चंद्रशेखर के नाम पर नही बल्कि अपनी इलाकाई मजबूत पैठ के कारण जीते थे।
बाराबंकी से रामसागर जीते थे क्योंकि उस समय बैनी बाबू बाराबंकी के बिना तिलक के राजा थे और रामसागर अनुसूचित जाति सुरक्षित क्षेत्र होने की वजह से उनके द्वारा नामित उम्मीदवार थे।
इसी तरह इटावा से रामसिंह शाक्य जीते थे जिनकी भी विजय-श्री के पीछे चंद्रशेखर का नाम न होकर मुलायम सिंह का प्रताप था। चंद्रशेखर तो खुद भी चुनाव हार जाते। उनके इलाके से मुलायम सिंह ने अपने मंत्रिमंडल में पांच मंत्री बना रखे थे तब वे चुनाव जीत पाये थे।
पाखंडी बुद्धिजीवी कसौटी पर चढ़ने के बाद कैसे हुए बेनकाब
इस दौर में प्रगतिशील बुद्धिजीवी बेनकाब हुए थे जिनकी कमजोरों के उत्थान की प्रतिबद्धता को कसौटी पर कसने का मौका आया तो जाहिर हो गया कि वे केवल अलग पहचान के लिए इसकी दुहाई देते थे जबकि उन्होंने कभी खुद को डी-क्लास नही कर पाया था। यही वजह थी कि मंडल रिपोर्ट लागू करने के फैसले की वजह से विश्वनाथ प्रताप सिंह के लिए उनकी घृणा चरम पर पहुंच गई थी।
जिसकी वजह से वे चंद्रशेखर का जमकर यशोगान कर रहे थे। उस समय के अखबार के पन्नों को देखकर लग रहा था कि चंद्रशेखर शायद अभूतपूर्व बहुमत हासिल करने वाले हैं। लेकिन चंद्रशेखर को जो हश्र हुआ उससे जनमत के निर्माण का मुगालता पाले मीडिया के पंडितों की पोल खुल गई।
पतनशील राजनीति का संक्रमणकालीन दौर
खैर उनके बाद नरसिंहा राव ने अल्पमत सरकार बनाई जिसे चलाने के लिए सांसद की खरीद-फरोख्त का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। अजीत सिंह और झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसद इसकी लपेट में आ गये थे लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने टैक्निकल आधार पर बाद में उनको बख्श दिया। बाद में मनमोहन सरकार भी अपने दो कार्यकाल ऐसे ही भ्रष्ट आचरणों से पूरे कर पाये।
इस पतन को संक्रमण का दौर कहकर आगे सब कुछ सुधर जाने की तसल्ली दी जाती रही थी। संघ के दृष्टिकोण को सांप्रदायिक मानने वाले लोग भी यह सोचते थे कि फिर भी राजनीतिक शुचिता उसके लिए महत्वपूर्ण है जो कम से कम उसका एक बड़ा नेक कर्म है। इसलिए संघ पोषित सरकार के गठन के बाद निकृष्ट हथकंडों की राजनीति न्यून हो जाने की उम्मीद अगर लोग कर रहे थे तो उसमें कुछ अन्यथा नही था।
पर मोदी सरकार ने इस मामले में पहले दिन से ही निराश किया। फिर भी लोगों का मोह भंग नही हुआ था क्योंकि वे यह मानते थे कि अपनी पारी जमाने के लिए फिलहाल ऐसा करना मोदी सरकार की मजबूरी है। पर मोदी सरकार पार्ट-2 आने के बाद जबकि लगभग पूरे देश में संघ का चक्रवर्ती साम्राज्य स्थापित हो चुका है अनैतिक राजनीति को प्रश्रय जारी रखना जन असंतोष के बड़े उत्प्रेरण का कारण बनता जा रहा है।
तोड़-फोड़ की सीरीज चालू आहे
आंध्र में तेलगू देशम के 4 दागी राज्यसभा सदस्यों को भाजपा ने यह जानते हुए भी शामिल करने में संकोच नही किया कि उनका हृदय परिवर्तन ईडी की जांच से बचने के लिए हो रहा है। इसके बाद कर्नाटक में हार्स ट्रेडिंग शुरू करा दी गई। गोवा में 10 विधायकों का दलबदल स्वीकार किया गया जिनमें से 4 मंत्री बना दिये गये। गोवा में भाजपा के सिद्धांतनिष्ठ लोग तक अपनी पार्टी की करतूत से इतने आहत हुए कि उन्हें सार्वजनिक रूप से गुबार निकालने पड़े।
इसका मतलब यह है कि इतने बड़े बहुमत के बाद भी भाजपा थैलीशाहों के सहारे विपक्ष को तितर-बितर करने का सुख नही छोड़ पा रही है। अभूतपूर्व सांगठनिक विस्तार के बावजूद चुनाव जीतने के लिए प्रोपोगंडा पर भारी भरकम खर्च से छुटकारा पाने का भी उसका कोई इरादा नही दिखता। इसलिए कारपोरेट के लोगों की गिरफ्त सरकार पर इतनी जबर्दस्त होना स्वाभाविक है कि ये लोग ही सुपर सरकार बनकर नीति निर्देशन करने लगें।
बहरहाल यह निराशापूर्ण स्थिति है। माना कि राष्ट्रवाद जनता की सर्वोच्च प्राथमिकता है। लेकिन सार्वजनिक जीवन में नैतिकता के उच्च प्रतिमान भी समाज के लिए बेहद प्रलोभनीय हैं। जिसकी अनदेखी अंततोगत्वा संघ और मोदी को भारी पड़ सकती है। क्या संघ इस ओर भी गौर करेगा।
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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)