उत्कर्ष सिन्हा
करीब दस साल पहले संसद में भाजपा के वरिष्ठ नेता राजनाथ सिंह ने एक बयान दिया था कि “अगर सरकार चाह ले तो कोई भी दंगा छह घंटे के भीतर रोक सकती है”। दिल्ली में तीन दिनों से चल रहे दंगों के बीच उनका यह बयान सोशल मेडिया पर फिर वायरल होने लगा है ।
1984 के बाद दिल्ली एक बार फिर दहली हुई है। लेकिन इस बार की हिंसा में एक फर्क है– 1984 में सिख समुदाय इसका निशान था और हिंसा एकतरफा थी, लेकिन इस बार अगल बगल की दो दुकाने एक साथ जल गई जिसके मालिक हिन्दू और मुसलमान दोनों थे।
और यह सब कुछ हुआ देश की राजधानी में जिसे दुनिया का बेहतरीन शहर बताने में हम नहीं चूकते। उस दिल्ली पुलिस की नाक के ठीक नीचे जिसकी कमान सीधे देश का गृह मंत्रालय संभालता है। और उस वक्त जब देश के आला हुक्मरान अमेरिकी राष्ट्रपति को दिल्ली की सैर करा रहे थे, दिल्ली पुलिस को तो जैसे लकवा मार गया था। पुलिस कमिश्नर लापता थे।
हर घटना के बाद कैमरे के सामने बयान देने वाले दिल्ली पुलिस के अफसरान खामोश थे। तब भी नहीं, जब दिल्ली पुलिस का एक बहादुर हेड कांस्टेबल शहीद हो चुका था और एक जांबाज अफसर वेंटिलेटर पर जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष कर रहा था।
डोवाल की एंट्री बता रही है समस्या की गंभीरता
तीन दिन बाद देश के सुरक्षा सलाहकार अजीत दोभाल सड़कों पर दिखे, ऐसा माहौल बनाया जाने लगा जैसे इसके बाद अचानक शांति हो जाएगी। लेकिन ये सवाल अनुत्तरित रह गया कि देश की खुफिया एजेंसियों की सीधी कमान जिसके हाथों में हो उसे इस सुनियोजित षड्यन्त्र की भनक आखिर क्यों नहीं लग सकी। आईबी के एक अफसर की लाश भी कई सवाल खड़े कर रही है ।
26 फरवरी की शाम को अजीत डोबाल दिल्ली के प्रभावित इलाकों घोंडा, मौजपुर और चौहान बांगर में जब घूम रहे थे तो उन्होंने लोगों के कंधों पर भी हाँथ रखा और महिलाओं को भी धाँधस बँधाया । इस बात से भी समस्या की गंभीरता का अंदाज हो एराह है कि जिस जगह दिल्ली के पुलिस कमिश्नर को होना चाहिए उस वक्त राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार यह भूमिका क्यों निभा रहा है ? उनका अंदाज भी कुछ इस तरह के संकेत वाला था कि मुझे कुछ पता नहीं था वरना ये सब न होता ।
देश में अब तक 5 सुरक्षा सलाहकार हुए हैं और अब से पहले इनमे से कोई भी सड़क पर नहीं उतरा।
इस बात को कहने में अब कोई दिक्कत नहीं है कि इस पूरे प्रकरण में दिल्ली पुलिस की भूमिका बहुत शर्मनाक रही है। इस बात से निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता कि दिल्ली में जो हुआ वो एक दुःस्वप्न था और अब सब कुछ ठीक हो जाएगा । बल्कि चिंता ये हैं कि जो कुछ भी दिल्ली में दो-तीन दिनों तक हुआ है, इसके कई संभावित परिणाम हो सकते हैं।
दिल्ली में दो-दो सरकारें हैं । मगर न तो केंद्र सरकार कोई त्वरित कार्यवाही करती दिखाई दी और न ही राज्य सरकार । एक बार फिर बड़ा जनादेश ले कर आई केजरीवाल सरकार तो इस बात की माल जपती रही कि दिल्ली पुलिस उसके नियंत्रण में नहीं है ।
जबकि लोकसभा में प्रचंड बहुमत से आई मोदी सरकार के किसी भी जिम्मेदार ने 2 दिनों में कोई कार्यवाही की हो ऐसा भी दिखाई नहीं देता । हर बात पर ट्वीट करने वाले हमारे प्रधानमंत्री भी खामोश ही रहे ।
अरविन्द केजरीवाल ने हिंसा रोकने का आह्वान तो किया मगर वो नाकाफ़ी था। अब तो उनके ही पार्टी के सभासद पर दंगे फैलाने के आरोप भी लग रहे हैं। प्रभावित क्षेत्रों में उनके विधायक और कार्यकर्ता तो घंटों के भीतर तैनात हो जाने चाहिए थे।
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यह भी अफसोसनाक है कि रात को तीन बजे जब मुख्यमंत्री के घर विद्यार्थी अपनी चिंता लेकर गये, तो उनसे केजरीवाल का मिलना तो दूर, उन पर पानी की बौछारें की गयीं और उन्हें हिरासत में लिया गया।
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विधान सभा चुनावों के बीच से जिस तरह के बयानों और उसके बाद जिस सांप्रदायिक घृणा का प्रदर्शन दिल्ली ने दो-तीन दिनों में देखा है वह खतरनाक है । बात बात पर इंटरनेट बंद करने वाले अधिकारी हिंसा के बीच ये काम करना भी कैसे भूल गए ये भी एक सवाल है।
ऐसे माहौल में भारत का भविष्य क्या होगा ये कहा नहीं जा सकता बस अनुमान ही लगाया जा सकता है। क्या हम उस दिशा में बढ़ रहे हैं, जहां धर्म और जाति के नाम पर हिंसा को बढ़ावा मिल सकता है ?
हिंसा की शुरुआत किसने की ? वो कौन लोग थे जो बाहरी बताई जाने वाली भीड़ लेकर हमला करते रहे ? इनकी जांच निष्पक्ष होनी चाहिए और दोषियों की पहचान भी जल्द से जल्द होनी जरूरी है। लेकिन दिल्ली पुलिस क्या ये काम कर पाएगी ?
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ये सवाल भी इसलिए है क्योंकि करीब 2 महीने पहले जवाहर लाल यूनिवर्सिटी में हुई हिंसा के दोषी अभी तक दिल्ली पुलिस नहीं पहचान पाई जी जबकि सीसी टीवी में चेहरे साफ नजर आ रहे हैं ।
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मगर सबसे ज्यादा जरूरी ये सवाल है कि दिल्ली पुलिस के इस सुस्त रवैये का कारण क्या है ? क्या उसके हाँथ कहीं बंधे हैं ? और अगर ऐसा है तो वो कौन सी ताकत है जो एक सक्षम बताई जाने वाली दिल्ली पुलिस को कार्यवाही से रोकती है ?
अब राजनाथ सिंह के उस बयान के महत्व को फिर से समझने की जरूरत है। आखिर वे देश के गृह मंत्री रह चुके हैं ।