जुबिली न्यूज डेस्क
तालाबंदी के दौरान भारत की सड़कों पर जो दृश्य दिखा, वैसी तस्वीर शायद ही किसी देश में देखने को मिली। दुनिया के ज्यादातर देशों ने कोरोना संक्रमण रोकने के लिए तालाबंदी का सहारा लिया था, लेकिन जैसी अव्यवस्था भारत में दिखा वैसा कहीं नहीं दिखा। इस स्थिति के लिए पहले केंद्रीय कृषि मंत्री और फिर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने इस स्थिति के लिए लौटने वाले श्रमिकों को जिम्मेदार ठहराया।
पिछले दिनों केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने एक टेलीविजन चैनल को दिए साक्षात्कार में कहा – “कुछ लोगों ने धैर्य खो दिया और सड़कों पर चलना शुरू कर दिया।” इनके अलावा बीजेपी के कई नेताओं ने भी इस स्थिति की गंभीरता को भुनाया। नेताओं का ये तर्क हैरान करने वाला है। सवाल उठता है कि तालाबंदी के बीच ये मजदूर अपने घरों के लिए न निकलते तो क्या करते? सवाल यह भी उठता है कि आखिर श्रमिकों को सरकार पर भरोसा क्यों नहीं रहा? उनका धैर्य क्यों जवाब दे गया?
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ऐसे बहुत सारे सवाल है जिनका जवाब खोजना बाकी है। सरकार के देशव्यापी तालाबंदी के ऐलान के दूसरे दिन 25 मार्च से भारत की सड़कों से जो तस्वीरें आई वह झकझोर देने वाली थी। अपनी घर-गृहस्थी समेटे ये श्रमिक नंगे पाव, भूखे-प्यासे हजारों किलोमीटर की यात्रा पर पैदल ही निकल पड़े। अपने गांव तक पहुंचने में इन श्रमिकों ने जो तकलीफ झेला है उसकी पीड़ा उनके अलावा कोई नहीं समझ सकता। उनकी तकलीफ, उनकी पीड़ा पर आज राजनीति हो रही है और अपने बचाव में तर्क दिया जा रहा है कि उन्होंने धैर्य खो दिया।
सबसे पहले बात करते हैं कि जिन लोगों ने “धैर्य” खोया, वे कौन लोग थे? तो सुनिए, वे सभी दैनिक मजदूरी पाने वाले लोग थे, जो शहरों की नगदी आधारित अर्थव्यवस्था में रह रहे थे। किसी ने मजबूरी में अपना गांव छोड़ा था तो किसी ने अपनी इच्छा से। दोनों ही मामलों में, गांव छोडऩे की वजह आर्थिक ही थी। शहरों में, उन्हें जीवन जीने के लिए कमाना पड़ता है, साथ ही अपने गांव में रह रहे परिवार के सदस्यों के लिए थोड़ी बहुत बचत भी करनी पड़ती है।
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ये लोग औपचारिक अर्थव्यवस्था के श्रमिकों की तरह नौकरी की सुरक्षा का आनंद नहीं लेते हैं। जब तालाबंदी ने सभी व्यवसायों को बंद करने के लिए मजबूर किया, तो इन लाखों मजदूरों ने अपना रोजगार खो दिया और कमाई भी। यहां सवाल है कि रोजगार गवाने वाले ये श्रमिक तालाबंदी के बीच बिना पैसे अपना और परिवार का गुजारा कैसे करते?
इन मजदूरों के सामने दो ही विकल्प थे। पहला-जहां वह थे, वहीं रहते और इस उम्मीद में कि फिर से कामकाज शुरु होगा। दूसरा ये कि वे अपने घर को लौट जाए। ऐसा नहीं है कि पहले विकल्प पर मजदूरों ने गौर नहीं किया होगा। उन्होंने इस विकल्प पर माथा-पच्ची की लेकिन अनिश्चितता की वजह से उनका अपने घर लौटना मजबूरी हो गया। सरकार ने तालाबंदी का ऐलान तो कर दिया लेकिन ये तस्वीर साफ नहीं किया कि ये स्थिति कितने महीने तक रहेगी। जाहिर है ऐसे हालात में मजदूर पहले विकल्प के सहारे तो नहीं रह सकते थे। यही वजह है कि अप्रैल में तालाबंदी के दूसरे विस्तार के बाद भारी संख्या में मजदूरों ने लौटना शुरू किया।
प्रवासी मजदूरों का जब पलायन शुरु हुआ तो उन्हें वापस पहुंचाने के लिए परिवहन की व्यवस्था करने की कोई सरकारी योजना नहीं थी। दोनों विकल्पों में लोगों को सरकार की ओर से ठोस आश्वासन चाहिए था। सरकार को भरोसा दिलाना चाहिए था कि सरकार हर हाल में उन्हें बचा लेगी, पर ऐसा नहीं हुआ।
सरकार ने लोगों को न तो ठोस आश्वासन दिया और ना ही लेागों का सरकार पर भरोसा ही रहा। ऐसे में, जब उनके पास रोजगार नहीं रहा तो वे अपने ठिकानों से बाहर निकल गए, उस जगह जाने के लिए, जिसे वे अपना घर कहते हैं और उन्हें भरोसा था कि वहां उन्हें सिर छिपाने के लिए कम से कम एक छत मिल जाएगी।