केपी सिंह
कैबिनेट समितियों के गठन के मामले में सरकार की अंदरूनी उठापटक सतह पर आ गयी है। लोकसभा के चुनाव जिस तरह से मोदी के नाम पर हुए उसके बाद भाजपा के अंदर से उन्हें चुनौती मिलने की किसी तरह की गुजाइश बची नहीं। इसके बावजूद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आश्वस्त नहीं हैं जो आश्चर्य का विषय है।
सवाल इसका नहीं है कि मोदी ने राजनाथ सिंह को नं0 दो की हैसियत से अमित शाह के जरिये प्रतिस्थापित कर दिया है क्योंकि अमित शाह न केवल उनके अत्यन्त विश्वास पात्र हैं बल्कि अधिक प्रभवी भी हैं। विश्वास पात्र तो इस हद तक कि मोदी-शाह की जोड़ी को दो जिस्म एक जान कहा जाने लगा है। उनसे प्रतिस्पर्धा में राजनाथ सिंह को पीछे किया जाना तो समझ में आता है लेकिन उनके मुकाबले नरेन्द्र तोमर का वर्चस्व बढ़ाने के पीछे निश्चित रूप से कुटिल मन्तव्य है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है।
बेशक अमित शाह ने राजनाथ को काफी पीछे छोड़ा
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गत छह जून को 8 कैबिनेट समितियों का गठन किया था। इनमें दो कैबिनेट समितियां निवेश और विकास तथा रोजगार पर पहली बार बनाई गई है। अमित शाह को सभी 8 समितियों में स्थान दिया गया है। कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उन्हें अपने उत्तराधिकारी के तौर पर तैयार कर रहे हैं।
2024 में अमित शाह भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार के बतौर प्रस्तुत किये जा सकते हैं। इसके पहले उन्हें भी महानायक के रूप में उभारने की कवायद के तौर पर मोदी तमाम नटखट करने में लगे हुए है। अमित शाह की क्षमताओं पर किसी को संदेह नहीं है लेकिन उनकी छवि संदिग्ध है। जो भाजपा के शीर्ष नेताओं को भी रास नहीं आती रही है।
शायद संघ भी अमित शाह को लेकर लोकलाज के भय का अनुभव कहीं न कहीं करता है। जो भी हो लेकिन यह भी सत्य है कि अमित शाह कई मामलों में राजनाथ सिंह को बहुत पीछे छोड़ चुके हैं। उन्हें गृहमंत्री का दायित्व इसलिए सौपा गया है कि इस अवसर का उपयोग करके वे इतिहास पुरूष बन सकेंगे। कश्मीर, अयोध्या और आतंकवाद जैसे मुददो पर उनमें दुस्साहसिक पहल कदमी करके सरदार पटेल से भी आगे निकल जाने की संभावनाये निहित हैं। लालकृष्ण आडवानी के साथ लगा लौहपुरूष का टैग उनके गृहमंत्री बनने के बाद शोपीस साबित हो गया था लेकिन अमित शाह सचमुच इस उपाधि को सार्थक कर अपने को प्रमाणित कर सकेगे ऐसा लोगों का विश्वास है।
प्रधानमंत्री स्वयं 6 कैबिनेट समितियों में ही शामिल हैं। जबकि निर्मला सीतारमन अमित शाह के बाद दूसरे नं0 पर 7 समितियों में नामजद हैं। पीयूष गोयल व नितिन गडकरी पांच-पांच समितियों में सम्बद्ध किये गये हैं। मार्के की बात यह है कि नरेन्द्र तोमर को 4 समितियों में रखा गया जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण संसदीय, राजनीतिक मामलों और आर्थिक समितियां हैं।
दूसरी ओर पार्टी के दो बार अध्यक्ष रह चुके राजनाथ सिंह को मात्र 2 समितियों में स्थान देकर एक तरफ कर दिया गया था जो एक तरह से उन्हें हैसियत बताने की मंशा के तहत था। बाद में जब इसे लेकर संघ तक में बवंडर हुआ तो राजनाथ सिंह को आधा दर्जन समितियों में स्थान मिल गया। खासतौर से संसदीय मामलों की समिति और राजनीतिक समिति में।
राजनाथ की अंतिम पारी, फिर भी नजर आ रहे खतरा
स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के इरादे राजनाथ सिंह को लेकर नेक नहीं है। राजनाथ सिंह 69 वर्ष के हो चुके हैं। भाजपा में जिस योजना को अब अघोषित संविधान का रूप दिया जा चुका है उसके चलते प्रधानमंत्री बनने की अतृप्त महत्वाकांक्षा सीने में दबाये उन्हें अगले चुनाव तक सरकार से विदा लेना पड़ेगा। फिर भी उनसे सशंकित रहना विचित्र है।
विराट व्यक्तित्व का एक पहलू उदारता भी है जिसमें सभी सहयोगियों को उनकी पात्रता के मुताबिक सम्मान देना भी शामिल माना जाता है। पर मोदी में क्रूरता की हद तक निष्ठुरता है जो उनके व्यक्तित्व को सीमा में बांध देने वाली है। नतीजतन भावी इतिहास में मूल्यांकन के समय उन पर यह स्वभाव प्रश्नचिंह लगाने वाली कमजोरी साबित होगा।
इसी निर्ममता की बजह से उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी को राष्ट्रपति नहीं बनने दिया जो इस गरिमामय पद के भाजपा में सर्वाधिक उपयुक्त उम्मीदवार थे। अगर ऐसा हो पाता तो संघ और भाजपा की छवि और उज्जल होती। जिस पर उन्हें मौका न दिये जाने से कहीं न कहीं दाग लग गया है।
पहले कार्यकाल से ही निशाने पर है राजनाथ
राजनाथ सिंह को बोनसाई करने का उनका लक्ष्य मोदी पार्ट-1 में ही झलक गया था। इसी कारण उन्होंने नरेन्द्र सिंह तोमर को पहली बार में ही यकायक कैबिनेट मंत्री बना दिया था ताकि समानान्तर क्षत्रिय नेता के रूप में उन्हें एक मोहरा उपलब्ध हो सके। पांच साल केन्द्रीय मंत्री रहने के बाद भी नरेन्द्र सिंह तोमर अपनी स्वतंत्र छवि विकसित नहीं कर पाये है।
यहां तक कि उन्हें इस बार अपने संसदीय क्षेत्र ग्वालियर में मतदाताओं द्वारा नकार दिये जाने का डर सता रहा था जिसकी वजह से पार्टी को निर्वाचन क्षेत्र बदलने की अनुमति उनको देनी पड़ी। इस मामले में भाजपा के मौजूदा नेतृत्व ने एक तीर से दो शिकार कर लिए। एक तो मोदी-शाह ने अपने चहेते नरेन्द्र सिंह तोमर को मुरैना से चुनाव मैदान में उतरने की हरी झंडी देकर अपने हिसाब से महफूज किया दूसरे इस बहाने से अटल जी के भांजे अनूप मिश्रा का आहिस्ते से पत्ता साफ कर दिया।
नरेन्द्र तोमर मुरैना की अपने लिए सेफ नजर आ रही सीट पर भी गच्चा खा जाते अगर उनको प्रचंड मोदी लहर का सहारा न मिला होता।
प्यादे के रूप में नरेन्द्र तोमर का इस्तेमाल
सच्चाई यह है कि नरेन्द्र तोमर न तो क्षत्रिय राजनीति का बड़ा चेहरा बन पाये है और न ही व्यापक स्वीकृति के मामले में वे कही ठहर पा रहे हैं। इसलिए उन्हें प्यादा बनाकर राजनाथ सिंह को शह देने के खेल से भाजपा की हालत अशोभनीय हो रही है।
उत्तर प्रदेश में संघ ने जब योगी का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए सामने किया था तो कहा जाता है कि मोदी को बहुत रास नहीं आया था। लेकिन राजनाथ सिंह के कद को संतुलित करने के लिहाज से योगी की उपयोगिता नजर आने पर मोदी ने उनके नाम पर अपनी सहमति दे दी।
ध्यान रहे कि योगी भी क्षत्रिय समाज से हैं इसलिए वे उत्तर प्रदेश में भाजपा के एक मात्र बड़े क्षत्रिय नेता के रूप में कायम राजनाथ सिंह की हैसियत के काट बनकर उभरे हैं।
गृह विभाग छिनने से यूपी में भी राजनाथ के रूतबे को धक्का
गृह विभाग होने की वजह से डीजीपी से लेकर जिलों के पुलिस प्रमुखों की नियुक्ति तक में राजनाथ सिंह को अपने प्रभाव के इस्तेमाल का मौका मिला हुआ था। जिससे उत्तर प्रदेश में वे अपना वर्चस्व बनाये हुए थे। उनके हाथ से गृह विभाग छिनने के बाद उत्तर प्रदेश में उनके दखल को न्यून करने में भी मदद मिलेगी जिस पर राजनीतिक प्रेक्षकों की निगाहे होना स्वाभाविक है।
बहरहाल इसके बावजूद राजनाथ सिंह की ओर से किसी तरह के विद्रोह की संभावना नहीं है। उनकों कैबिनेट समितियों के गठन में नीचा दिखाये जाने से प्याली में जो तूफान उठा था वह शांत पड़ चुका है। राजनाथ सिंह तो खुद अपने बेटे पंकज सिंह के कैरियर के लिए सच्चे भारतीय पिता की तरह सबसे पहले फिक्रमंद हैं इसलिए तमाशा घुसकर ही देखते रहना उनकी मजबूरी है।
कल्याण सिंह स्वयं राज्यपाल हैं, उनके पौत्र उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल के सदस्य हैं और बेटे फिर सांसद निर्वाचित हो गये है न कल्याण सिंह के मामले में और न लालजी टण्डन के मामले में पार्टी को वंशवाद की तोहमत लग जाने का भय दिखायी देता है लेकिन पंकज सिंह को इसी बहाने उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल में स्थान दिलाकर कृतार्थ करने की अनिच्छा प्रकट की जा रही है। उनके प्रति काम कर रही दुर्भावना का यह भी एक सुबूत है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)