अंकिता माथुर
हाल ही में सार्स-कोव 2 के चलते विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अन्तरराष्ट्रीय सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल घोषित किया था। भारत के प्रधानमंत्राी ने जनता कर्फ्यू का आह्वान किया और फिर लॉक-डाउन पर ‘‘वायरस’’ भूख के आगे हारता दिखा। जब दिल्ली के पास विहार आनंद की तस्वीरें सामने आई।
गरीब मजदूर वर्ग का बड़ा हिस्सा जो अपने गाँवों से कभी रोजी-रोटी कमाने के लिए शहर की ओर गया था, वो रोजगार के अभाव में, सिर छुपाने की छत को सिर से उतरते देख या फिर गाँवों से खेत मजदूरी की तलाश में एक बार फिर पलायन कर रहा था।
हिन्दुस्तान ने बंटवारे के बाद फिर से ऐसा महापलायन देखा, जब पुलिस की बर्बरता, वायरस का डर और साधनों के अभाव में भी बड़ी जनसंख्या पैदल ही अपने-अपने घरो की ओर जा रही थी।
कई लोग घर पहुँच चुके है और कुछ रास्तों पर अब भी हैं। जहां बरेली से ‘‘केमिकल बाथ (नहलाना)’’ की खबरें आई वहीं थर्मल स्क्रीनिंग न हो पाने की। प्रश्न उठता है कि क्या देश का पहले से ही लचर स्वास्थ्य-सेवा ढ़ाँचा इस महामारी में जांच सुविधायें दे पायेगा? जांच के अभाव में सही आँकड़े सामने आयेंगें ही नहीं और हम खामोशी से सार्स-कोव 2 को एक बड़े हिस्स में पनाह दे रहें होंगें।
ऐसी स्थिति में केन्द्र सरकार ने सख्त रूख अख्तियार करते हुए सभी राज्यों व जिलों की सीमाऐं सील करने के आदेश दिये हैं और बाहर से घर आने वालों को सीमाओं पर ही कैम्प बनाकर रखने को कहा है।
इस समस्त घटनाक्रम ने हमारे सामने कुछ और प्रश्न खड़े कर दिये है। जिस ओर से आबादी पलायन कर रही हैं क्या वहां खाद्य आपूर्ति सुनिश्चित है? गांव के चौक में बनी दुकान के पास इन घरवालों का पेट भरने के लिए कितना राशन है? क्या शहर से राशन लाने का बंदोबस्त हो पाया है? पहले ही भयभीत लोगों ने जरूरत का सामान घरों में आवश्यकता से अधिक भर लिया है! क्या जमाखोरी या कालाबाजारी को हवा नहीं मिलेगी?
अन्तरराष्ट्रीय स्वास्थ्य आपातकाल में ये सब छोटी सी बात लग सकती है पर निकट भविष्य में ये आर्थिक अराजकता को अवश्य ही जन्म देती दिखाई देगी। रोजगार और धन के अभाव में जो लोग पीछे लौटे है, क्या वे इस आर्थिक विषमता से उबर पायेंगे? जब प्रधानमंत्राी जी ऊँचे मंच से नारा देते है ‘‘वन इण्डिया, वन राशन कार्ड’’ तो बहुत लुभावना लगता है पर क्यों नहीं ये मजदूर वर्ग में यह सुरक्षा भावना जगा सका कि उसे किसी स्थान पर उसके हक का राशन मिलेगा।
राज्य सरकारों ने घोषणायें की है कि हर दिहाड़ी मजदूर को आर्थिक सहायता दी जायेगी। केजरीवाल विनती कर रहे हैं कि रूकिये, आपके भोजन और छत की व्यवस्था हम कर रहे हैं।
गौर करने लायक ही है कि पलायन अब भी जारी है। उत्तर ढूंढ़ने पर पता लगता है कि ये केवल घोषणायें है और यह केवल पंजीकृत मजदूरों के लिए ही है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था रूपी दीमक का असर हमारी जड़ों में अब दिखाई दे रहा हैं, जहाँ या तो ट्रेड यूनियनें को खत्म कर दिया गया या फिर नेता सरमायेदारों से मिली भगत करते नजर आए। अब कहाँ जाया जाए और किसे फरियाद की जाए?
अन्तर-राज्य प्रवासी कामगार (रोजगार और सेवा) अधिनियम 1979 द्वारा जब विस्थापन भत्ते, यात्रावधि के दौरान मजदूरी के भुगतान के साथ यात्रा भत्ता, निःशुल्क आवासीय और चिकित्सा सुविधायें या ठेकेदारों द्वारा उनके पंजीकरण व उत्तरदायित्व जैसे अधिकारों को सुनिश्चित करने की बात आई तब पाया गया कि राज्य सरकारों व केन्द्र सरकार द्वारा इस अधिनियम को सही अर्थों में लागू नहीं किया गया इसलिए अधिक से अधिक अन्तर्राज्यीय श्रमिकों को प्रचलित स्थानीय मजदूरी से बहुत कम वेतन पर दयनीय स्थिति में रोजगार दिया जाता है।
न तो वो पंजीकृत होता है, ना ही अधिकारों का दावेदार। रोजगार देने वाले व ठेकेदारों की मिलिभगत से उनका लगातार शोषण होता रहता है। कॉन्ट्रेक्ट लेबर एक्ट1970 ने पहले ही नियोक्ता को काफी आजादी प्रदान की है, जिसमें श्रम क्षेत्रा में अराजकता का माहौल बन गया है। इन हालातों ने असंगठित क्षेत्रा के मजदूरों में असंतोष व अविश्वास पैदा किया है।
जब लॉक-डाउन में आमजन अपने-अपने घरों में रामायण, महाभारत आदि सीरियल देख रहा है, उसे ध्यान रखना होगा कि यह एक नई महाभारत की पहल हो सकती है, जब ये वर्ग रोजगार और रोटी के संकट में आपकी ओर रूख करेगा। जलता हुआ सीरिया भी ऐसी ही आर्थिक विषम स्थिति और पलायन का परिणाम है।