प्रीति सिंह
बिहार का चुनावी महासंग्राम चरम पर है और चर्चा में सिर्फ तेजस्वी यादव, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार हैं। वैसे तो बिहार की लड़ाई एनडीए बनाम महागठबंधन की थी, पर अब यह तेजस्वी बनाम एनडीए हो गई है।
बिहार के चुनावी संग्राम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ताबड़तोड़ रैली कर रहे हैं। वह एनडीए को जिताने की अपील कर रहे हैं और साथ ही अब जंगलराज और डबल युवराज को सबक सिखाने की बात कर रहे हैं। वह बिना नाम लिए कई बार कह चुके हैं कि बिहार में डबल युवराज का वहीं हाल होगा जो उत्तर प्रदेश में डबल युवराज का हुआ था। उनके निशाने पर तेजस्वी के साथ राहुल गांधी पर भी हैं, पर हकीकत में बिहार चुनाव में राहुल कहीं दिख नहीं रहे।
पिछले दिनों राहुल गांधी बिहार में रैली करने पहुंचे थे। बहुत सारे लोगों ने दावा किया कि उनकी रैली मोदी की रैली से भीड़ कम थी लेकिन नीतीश कुमार की सभाओं की तुलना में ज्यादा थी। राहुल ने अब तक जितनी भी रैली की लोग उन्हें सुनने आए, लेकिन राहुल आक्रामक नहीं हो पाए। राहुल के भाषणों की चर्चा नहीं हुई।
बिहार में मुद्दों की कमी नहीं है लेकिन राहुल गांधी अपने पुराने ढर्रें पर ही दिखे। उन्होंने ऐसा कुछ नहीं बोला जिसकी चर्चा हो। उन्होंने कहा कि मोदी जी रोजगार की बात नहीं करते। तेजस्वी रोजगार का मुद्दा उठा रहे हैं। कांग्रेस उनके साथ है।
अपने जनसभा में राहुल गांधी ने एक बार भी नहीं कहा कि कांग्रेस क्या करेगी। वह बिहार की समस्याओं का जिक्र न कर राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों को लेकर मोदी पर निशाना साधते रहे। उनके भाषण में कुछ नयापन न होने की वजह से इसकी कोई खास चर्चा भी नहीं है।
पटना के चौराहों से लेकर गांवों तक में लगे महागठबंधन के बैनर-पोस्टर में तेजस्वी यादव के साथ दिखने वाले राहुल गांधी की भूमिका को लेकर सवाल उठ रहे हैं। कहने को तो बिहार में महागठबंधन और एनडीए के बीच में लड़ाई है लेकिन इस लड़ाई में तेजस्वी का हाथ थामे कांग्रेस पीछे छूट गई है।
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तेजस्वी यादव कांग्रेस का हाथ छोड़ अपने दम पर अकेले एनडीए से मोर्चा ले रहे हैं। वह अपनी सधे भाषणों और मुद्दों से नीतीश कुमार को चुनौती पेश कर रहे हैं। कमजोर हो रहे नीतीश को देखकर बीजेपी भी चिंतित है शायद इसीलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जंगलराज और डबल युवराज पर केंद्रित हो गए हैं।
कांग्रेस में नेताओं की कमी नहीं है। एक से एक दिग्गज नेता कांग्रेस में मौजूद हैं लेकिन चर्चा किसी की नहीं है। कांग्रेस की लेटलतीफी और राजसीठाठ का ही परिणाम है कि वह धीरे-धीरे अपना जनाधार राज्यों से भी खोती जा रही है। शायद इसी का नतीजा है कि कांग्रेस उम्मीदवार अपने सभा में तेजस्वी यादव को बुला रहे हैं।
बिहार में कांग्रेस के स्थिति को देखकर तो ऐसा ही लग रहा है कि सब भगवान भरोसे है। कन्फ्यूजन में रहने वाली कांग्रेस अब भी कन्फ्यूज्ड ही लग रही है। बिहार में चुनाव की तैयारी, सीटों के ऐलान और टिकटों के बंटवारे में सबसे पीछे कांग्रेस ही रही है। सबसे बड़ी विडंबना तो यह रही कि 15 दिन पहले तक कांग्रेस के बड़े नेताओं तक को नहीं मालूम था कि पार्टी किन 70 सीटों पर चुनाव लड़ेगी।
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दरअसल कांग्रेस ने प्रत्याशियों के नाम के साथ धीरे-धीरे सीटों की घोषणा की। सभी सीटों के नाम काफी लेट सार्वजनिक किए गए। ऐसे में जब सात अक्टूबर को 21 सीटों की उम्मीदवारों की पहली लिस्ट आई तो पार्टी में अफरा-तफरी मच गई। कांग्रेस की पहली लिस्ट में बाहरी लोगों को ही खास तवज्जो मिली है। यही नहीं पार्टी ने जमीनी कार्यकर्ताओं से ज्यादा रसूखवाले लोगों को ही मौका दिया है। इसको लेकर भी सवाल उठा। राजनीतिक पंडितों ने कहा कि कांग्रेस ने टिकट देने में गलती की है जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ेगा।
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पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को गठबंधन के तहत 41 सीटें दी गईं। इसमें से वह 27 सीटों पर जीतने में कामयाब रही। कांग्रेस का वोट शेयर 39.49 प्रशित रहा। 2011 में कांग्रेस कम सीटें दिए जाने से नाराज होकर आरजेडी गठबंधन से अलग हो गई थी और पार्टी सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, लेकिन उसे सीटें सिर्फ चार मिली थी। दस साल बाद कांग्रेस 70 सीट पर चुनाव लडऩे जा रही है। अब देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस क्या करिश्मा दिखा पाती है।