उत्कर्ष सिन्हा
हिंदी पट्टी में आम तौर पर चर्चा यूपी बिहार की चुनावी हवा भांपने को ले कर है , मगर उसी बीच में बंगाल को ले कर भी बड़ी उत्सुकता देखी जा रही है। वजह साफ़ है , भाजपा और तृणमूल कांग्रेस की लड़ाई जुबानी होने के साथ साथ हिंसक भी होती जा रही है । भाजपा समर्थको को उम्मीद है कि इस बार बंगाल में नतीजे भाजपा के पक्ष में आएंगे।
बंगाल में इस बार का चुनाव पहले से अलग रूप लिए हुए। यूपी बिहार की तरह जातियों का असर बंगाल में नहीं होता। वहां लम्बे समय से वर्गीय व्यवस्था ने चुनावो को प्रभावित किया है। फिलहाल बंगाल के वोटरों को वर्गीकृत करें , तो ये दिखाता है कि , हिंदी भाषी मतदाताओं का एक समूह है, जिसके भीतर व्यापारी हैं, मजदूर है जो देश के उत्तरी भागो से आ कर बंगाल में बस गए है। इसके बाद बंगाली हिन्दुओं का एक समूह है , बंगाली मुसलमानो का समहू है, और इन सबके बाद चौथा समूह है बंगाल के बौद्धिक वर्ग का जिसमें कलाकार, लेखक , कवि शामिल है।
इस चौथे समूह की भूमिका बंगाल में हमेशा ही महत्वपूर्ण रही है। साहित्यकारों, कलाकारों का चुनावी मैदान में उतरना बंगाल के लिए कोई नई बात नहीं। इस वर्ग ने बंगाल की राजनीति को हमेशा प्रभावित भी किया है। हालांकि बीते 5 सालों में बंगाल में हिन्दू राजनीति की एंट्री के बाद इसके असर में कुछ कमी भी आई है. खास तौर पर बंगाल के सीमावर्ती इलाकों में हिंदुत्व का एक वोट बैंक दिखाई देने लगा है।
ममता बनर्जी को ये अंदाजा था कि बंगाल के हिंदी भाषी वोटरों पर भाजपा की निगाह स्वाभाविक रूप से रहेगी , और यह वोटर भी भाजपा के लिए एक मजबूत आधार बन सकता है। इसी वजह से ममता बनारहजी ने बंगाल में हिंदी को प्रोत्साहन देने के लिए कई कदम उठाये थे। हावड़ा में हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना और हिंदी भाषी समाज का गठन ऐसे ही कदम थे जिसके जरिये ममता ने हिंदी भाषी मतदाताओं को तृणमूल के पक्ष में रोकने की कोशिश की है।
आमतौर पर वैचारिकी के आधार पर चुनावी लड़ाई लड़ने वाले बंगाल के मिजाज में लेफ्ट पार्टीज के पतन के बाद बदलाव देखने को मिल रहा है। इस बार चुनावी हिंसा तेज है , तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के समर्थकों के हर चरण के मतदान के बीच कई बार खूनी संघर्ष भी देखने को मिल रहा है।
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने मिशन बंगाल पर ख़ासा ध्यान लगाया है। उनका दावा है कि इस बार भाजपा 22 सीटें जीतेगी। शाह के इस दावे का आधार है पंचायत चुनावो में भाजपा का बढ़ा हुआ वोट प्रतिशत। भाजपा ने अपने मिशन बंगाल के फ़तेह के लिए ममता बनर्जी के पुराने दोस्तों को अपने साथ जोड़ लिया है जिसकी कमान कभी ममता के ख़ास रहे मुकुल रॉय के हांथो में है।
बंगाल में भाजपा की बढ़त की कीमत काफी हद तक कांग्रेस चुका रही है। लेफ्ट पार्टीज का कैडर पहले से ही तृणमूल की तरफ जा चुका है, इसलिए लड़ाई भाजपा और तृणमूल के बीच सिमट कर रह गई है। इसीलिए बंगाल में जहाँ भाजपा के वोट बढे हैं वहीं तृणमूल का वोट प्रतिशत भी बढ़ा है।
ममता बनर्जी 1998 में कांग्रेस से बाहर आई थीं और तब उन्होंने लोकसभा चुनाव लड़ा था, जिसमे उन्हें 24 प्रतिशत वोट के साथ सात सीटें मिली । 2004 में तृणमूल को 21 प्रतिशत वोट पड़े थे और 2014 में बढ़ते हुए 39 फीसदी और 2016 में 45 प्रतिशत हो गए। यानी भाजपा को अगर बंगाल में चुनावी जंग जितनी है तो उसे कमसे काम 10 प्रतिशत वोटो का इजाफ़ा करना होगा। ये तभी मुमकिन होगा जब बड़ी संख्या में तृणमूल का वोटर टूट कर भाजपा की और खड़ा हो जाए।
यहाँ ये ध्यान भी रखना जरूरी है कि भाजपा बंगाल में अकेले लड़ रही है और इसीलिए बीते 5 सालों से भाजपा की रणनीति हिंदुत्व के जरिये सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तेज करने की रही है , तो ममता बनर्जी ने भी दुर्गा पूजा में हर दुर्गा पंडाल को 10 हजार रुपये की सहायता की घोषणा कर खुद पर हिन्दू विरोधी होने का तगमा नहीं चिपकने दिया।
बंगाल में लड़ाई सीधी जरूर है मगर आसान नहीं। उत्तर भारत में सीटों की संभावित कमी के आशंका के बाद भाजपा ने भरपाई करने के लिए बंगाल और उड़ीसा को टारगेट किया है , लेकिन हिन्दू राष्ट्रवाद बनाम बांग्ला राष्ट्रवाद की लड़ाई में हारजीत का फैसला होना अभी बाकी है।