जुबिली न्यूज डेस्क
रामविलास पासवान के बारे में कहा जाता है कि जब भी कोई उनके ‘फाइव स्टार दलित नेता’ की छवि के बारे में पूछता, तो वो खीझ जाते थे। उस व्यक्ति को उनका जवाब होता था- “ये आपलोगों की वो मानसिकता है कि दलित मतलब ये कि वो जिंदगी भर भीख मांगे, गरीबी में रहे, और हम उसको तोड़ रहे हैं तो क्यों तकलीफ हो रही है।”
पासवान कांशीराम और मायावती के स्तर के नेता नहीं बन पाए, लेकिन देश में जब भी दलित नेताओं की गिनती होगी तो उनका भी नाम उसमें आएगा। उन्हें दलितों का नेता कहा जाता है।
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साल 1977 के चुनाव के बाद सारे देश के लोगों ने एक नाम सुना रामविलास पासवान। खबर यह थी कि बिहार की एक सीट पर किसी नेता ने इतने ज़्यादा अंतर से चुनाव जीता कि उसका नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में शामिल हो गया।
हाजीपुर की सीट से कांग्रेस उम्मीदवार को पासवान नेसवा चार लाख से ज़्यादा मतों से हराकर पहली बार लोकसभा में पैर रखा था।
उन्हें ऐसे ही इतना बड़ा जनसमर्थन नहीं मिला था। एक दौर था जब बिहार के हाजीपुर की धरती पर रामविलास पासवान के पैर पड़ते तो चारो ओर ‘धरती गूंजे आसमान-रामविलास पासवान’ का नारा गूंजता था।
अपने 50 साल के राजनीतिक जीवन में पासवान को केवल 1984 और 2009 में हार का मुंह देखना पड़ा था। वो नौ बार सांसद रहे। 1989 के बाद से नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की दूसरी यूपीए सरकार को छोड़ पासवान हर प्रधानमंत्री की सरकार में मंत्री रहे।
मौके की पहचान, जोड़तोड़ एवं दोस्तों-दुश्मनों को बदलने की कला में माहिर रामविलास पासवान की इसी काबिलियत के कारण ही राष्ट्रीय जनता दल सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव मजाक में उन्हें मौसम वैज्ञानिक कहा करते थे।
पासवान देश के इकलौते ऐसे नेता रहे जिन्होंने छह प्रधानमंत्रियों की सरकारों में मंत्रिपद संभाला। वह तीसरे मोर्चे की सरकार में भी मंत्री रहे तो कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार और बीजेपी की अगुआई वाली एनडीए सरकार में भी मंत्री बने।
1969 में पहली बार विधायक बने पासवान की राजनीति की शुरुआत समाजवादी प्रशिक्षण से हुई थी। लोहिया, जय प्रकाश नारायण और कर्पूरी ठाकुर के करीबी रहे पासवान बाद में अटल बिहारी वाजपेयी, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद से भी उनका दोस्ताना संबंध रहा।
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पासवान ने 1983 में दलित सेना बनाकर पांच दशकों से भी ज्यादा समय तक राजनीति के नब्ज को पकड़कर रखा। वह बिहार से निकलने वाले बड़े दलित नेता थे। उन्होंने दलित राजनीति में कांशीराम एवं मायावती से अलग अपनी राह बनाई।
ऐसा कहा जाता है, अपने सारे राजनीतिक जीवन में पासवान केवल एक बार हवा का रुख भांपने में चूक गए, जब 2009 में उन्होंने कांग्रेस का हाथ झटक लालू यादव का हाथ थामा और उसके बाद अपनी उसी हाजीपुर की सीट से हार गए जहां से वो रिकॉर्ड मतों से जीतते रहे थे।
लेकिन उन्होंने अपनी उस भूल की भी थोड़ी बहुत भरपाई कर ली, जब अगले ही साल लालू यादव की पार्टी आरजेडी और कांग्रेस की मदद से उन्होंने राज्यसभा में जगह बना ली।
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राजनीतिक बाजीगरी में माहिर समझे जाने वाले पासवान शुरुआत में केवल राजनेता ही बनने वाले थे, ऐसा भी नहीं था। वह पढ़ाई में अच्छे थे।
बिहार के खगडिय़ा जिले में एक दलित परिवार में जन्मे रामविलास पासवान ने बिहार की प्रशासनिक सेवा परीक्षा पास की और वे पुलिस उपाधीक्षक यानी डीएसपी के पद के लिए चुने गए। पर नौकरी उन्हें ज्यादा दिन रास नहीं आई।
बिहार में उस समय काफी राजनीतिक हलचल थी और इसी दौरान रामविलास पासवान की मुलाकात बेगूसराय जिले के एक समाजवादी नेता से हुई। वह उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया।
1969 में पासवान ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर अलौली सुरक्षित विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा और यही से उनके राजनीतिक जीवन की दिशा निर्धारित हो गई।
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बिहार की राजनीति पर पकड़ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार सुशील वर्मा कहते हैं, शुरुआत में पासवान की गिनती बिहार के बड़े युवा नेताओं में नहीं होती थी। छात्र आंदोलन और जेपी आंदोलन के समय लालू, नीतीश, सुशील मोदी, शिवानंद तिवारी, वशिष्ठ नारायण सिंह जैसे नेताओं का नाम जरूर सुना जाता था, लेकिन पासवान का नाम लोगों ने पहली बार 1977 में सुना।
वह कहते हैं, पासवान को टिकट मिलने में सुविधा इसलिए हो गई होगी क्योंकि वे दलित थे और एक बार विधायक भी रह चुके थे। उनके बारे में ध्यान गया 1977 के चुनाव में, जब लोगों में ये जानने की दिलचस्पी हुई कि ये रिकॉर्ड किसने बनाया। हां इसके बाद उन्होंने संसद के मंच का अच्छा इस्तेमाल किया।
संसद में खूब पूछते थे सवाल
रामविलास पासवान की गिनती संसद में सबसे ज्यादा सवाल पूछने वाले नेताओं में होती थी। वो खूब लिखते-पढ़ते थे। सुशील वर्मा कहते हैं-संसद में सवाल पूछने की वजह से उनकी छवि तेजी से बदली और उसके बाद जो नए नौजवानों की लीडरशिप उभरी उसमें वो शामिल रहे।