कुमार भवेश चंद्र
बिहार चुनाव के नतीजे सियासी संदेशों और संकेतों से भरे हुए हैं। इस नतीजे ने न केवल राज्यों के चुनाव में लगातार पिछड़ रही बीजेपी को खुश होने का मौका दे दिया है बल्कि वामपंथी और सेकुलर ताकतों के भीतर एक नया भरोसा पैदा किया है।
बिल्कुल सीधी लड़ाई में तेजस्वी के पिछड़ जाने की निराशा के बीच सेकुलर सोच रखने वालों के बीच ये दिलासा जिंदा होता हुआ दिख रहा है कि यदि वे अपने आपसी मतभेदों और छोटे-मोटे स्वार्थों को भुलाकर और मिल जुल कर आरएसएस-बीजेपी की ताकत का मुकाबला करेंगे तो आशानुरूप नतीजे मिल सकते हैं।
बिहार चुनाव में लंबे समय बाद वामपंथियों की बढ़त ने वाम खेमों में भी नई ऊर्जा का संचार किया है। उत्तर भारत में कमजोर हो रही वामपंथी ताकतों को मिली ये ऊर्जा आने वाले वक्त में आरएसएस-बीजेपी बनाम सेकुलर की लड़ाई को नया मोड़ देने की दिशा में कारगर साबित हो सकती है। और इसीलिए वामपंथी खेमे ने पश्चिम बंगाल के चुनाव में विपक्षी एकजुटता की आवाज बुलंद करना शुरू कर दिया है।
बिहार में सीपीआई माले के टिकट पर विधानसभा चुनाव जीतकर पटना पहुंचे एक विधायक महबूब आलम ने साफ तौर पर कहा है कि सभी विपक्षी दलों को एक साथ मिलकर फांसीवादी ताकत यानी बीजेपी के खिलाफ लड़ना चाहिए। उन्होंने यह भी साफ किया कि इस लड़ाई में ममता बनर्जी का साथ होना भी बहुत जरूरी है। क्योंकि ममता के बगैर बीजेपी के खिलाफ कारगर लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती।
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यह सियासी सोच जमीन पर उतरेगी या नहीं इसको लेकर अभी ठोस कह पाना संभव नहीं लेकिन ये सोच विपक्षी दलों में उभरने लगी है कि बीजेपी-आरएसएस के खिलाफ उनकी लड़ाई को और मजबूत बनाने की जरूरत है। और यही बात नया सियासी संदेश लिए हुए है।
विपक्षी दलों की नई सोच रणनीति के रूप में जमीन पर उतरने को लेकर कई पेच है। वामदलों के साथ कांग्रेस के तालमेल से अधिक दिक्कत तृणमूल कांग्रेस के साथ आने को लेकर है। और ये कैसे संभव होगा ये भविष्य के गर्भ में है। लेकिन सीपीएम नेता डी राजा की माने तो वह धर्मनिरपेक्ष- लोकतांत्रिक ताकतों को न केवल पश्चिम बंगाल बल्कि पूरे देश में साथ आने की वकालत कर रहे हैं।
एक अंग्रेजी दैनिक में कॉलम के जरिए उन्होंने ताकीद की है कि क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर के सभी विपक्षी दलों को अपनी राजनीतिक विचारधारा और स्थिति को लेकर वृहद आत्ममंथन करने की जरूरत है।
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विपक्षी एकता की सोच को जमीन पर उतारने के प्रयास को लेकर एक और अहम मसला बेहद महत्वपूर्ण है। इसका नेतृत्व या फिर संयोजन। क्या विपक्षी दल की नई सोच में इनके लिए कोई जगह बन सकती है। क्या विपक्षी दल बिहार में जनता के नए प्रयोग के संकेत को समझ पा रही है। या अभी विपक्ष का दिमाग खुलने के लिए अभी कुछ और झटकों की जरूरत है? ये सवाल सियासत में मुखर है और जवाब की प्रतीक्षा है।
आखिर में थोड़ी चर्चा इस बात की भी कर लेते हैं कि बिहार में बीजेपी जिस जीत को लेकर बेहद उत्साहित है उसकी जमीनी हकीकत क्या है। एनडीए में जेडीयू को पीछे कर वह नंबर वन पार्टी जरूर बन गई है लेकिन आरजेडी अभी भी तकनीकी रूप से प्रदेश की नंबर वन पार्टी बन गई है। भले ही उसे एक सीट अधिक मिली है। लेकिन उसका वोट प्रतिशत बीजेपी के मुकाबले बहुत अंतर लिए हुए है।
2020 के चुनाव में आरजेडी ने 144 सीटों पर चुनाव लड़कर कुल 23 फीसदी वोट हासिल किए हैं। 111 सीट पर लड़ने वाली बीजेपी को मिले हैं 19.5 फीसदी वोट। सीटों के लिहाज से बीजेपी को फायदा तो हुआ है लेकिन वोटों के लिहाज से उसके परसेंट पाइंट में 4 फीसदी से अधिक की गिरावट है जबकि आरजेडी को सीटों से लिहाज से पिछले चुनाव के मुकाबले नुकसान है लेकिन वोट परसेंट पाइंट में चार फीसदी से अधिक बढ़े हैं। यानी जमीन पर जनसमर्थन बढ़ा है।
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और तो और जिस कांग्रेस की हार को लेकर हंगामा मचा है उसके परसेंट पाइंट में भी बढ़ोतरी है। उसे इस चुनाव में कुल 9.48 फीसदी वोट मिले हैं। विपक्ष जमीन पर बढ़ रही ताकत को पहचान गया है और नई ऊर्जा का संचार उसी का नतीजा है