डा. रवीन्द्र अरजरिया
स्वाधीनता दिवस पर हर ओर जश्न का माहौल रहा। कश्मीर की कुछ बंदिशें समाप्त होने की खुशियां मनाई गई। विकास की उम्मीद ने अंगडाई ली। तिरंगे के रंग चटक होने लगे। समूचा देश एक अनजाने से उल्लास में डूब गया। रिमझिम बरसात, गर्मी से निजात दिलाने वाली हवायें और त्यौहारों की आमद। सब कुछ सुखद लग रहा था। तभी कालबेल के मधुर संगीत ने ध्यानाकर्षित किया।
मुख्यद्वार पर हमारे पुराने सहपाठी हिमांशु सिंह खडे मुस्कुरा रहे थे। बिना पूर्व सूचना के अचानक उन्हें सामने देखकर एक पल तो विश्वास ही नहीं हुआ कि सामने वही मित्र है जो विश्वविद्यालय में अपनी सरप्राइज गिफ्ट के लिए मशहूर था। उसने आगे बढकर गले लगने का उपक्रम किया तब कहीं वास्तविकता का अहसास हुआ। सच्चाई सामने थी। अभिवादन के आत्मीय स्पर्श ने बीती यादों को ताजा कर दिया। कुशलक्षेम पूछने-बताने के बाद चर्चाओं का दौर चल निकला।
हमारी दुर्घटना के बाद वे पहली बार मिले थे, सो सब कुछ विस्तार से जानना चाहते थे। यूं तो उन्हें अन्य मित्रों के माध्यम से पूरा घटनाक्रम किस्तों में मालूम चल चुका था परन्तु वे उसकी प्रमाणिकता टटोलना चाहते थे। उस दुःखद घटना को एक बार फिर दोहराना पडा। इसी मध्य नौकर ने चाय और स्वल्पाहार सेंटर टेबिल पर सजाना शुरू कर दिया। बातचीत में व्यवधान उत्पन्न हुआ।
स्वल्पाहार के बाद फिर से अतीत को कुरेदते, उसके पहले ही हमने इस बार के स्वाधीनता दिवस पर उनके विचार जानना चाहे। कश्मीर समस्या को सुलझाने की दिशा में दो कदम आगे बढने के साहसिक प्रयासों की प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा कि अभी भी देश में मूलभूत समस्या ज्यों की त्यों ठहाके लगा रही है। शिक्षा और स्वास्थ पर समान अधिकार का ढिढोरा पीटने वाले उस दिशा में कभी भी कारगर कदम नहीं उठायेंगे।
वातानुकूलित संस्कृति वाले स्कूलों और गांवों की सरकारी पाठशालाओं में जब तक समानता नहीं होगी तब तक विकास और प्रगति का नारा बुलंद करने वाले यूं ही बहकावे की राजनीति करते रहेंगे। स्वास्थ के नाम पर भारी भरकम बजट से चलने वाले सरकारी चिकित्सालय और पांच सितारा सुविधायुक्त चिकित्सा संस्थानों की सुविधाओं, व्यवहार और उपचार में जमीन-आसमान का अंतर होता है।
हमने उनकी बात को बीच में ही काटते हुए इस असमानता के लिए दोषियों को रेखांकित करने के लिए कहा, तो उन्होंने राजनीति और अफसरशाही दौनों को कटघरे में खडा करते हुये कहा कि आईएएस अधिकारियों का मजबूत संगठन और वोट की राजनीति करने वाले खद्दरधारी, दौनों ही अपने-अपने स्वार्थ साधने में लगे हुए हैं। नेताओं की भीड में कभी कान्वेन्ट स्कूल से निकलने वाला छात्र अपनी आमद, संख्या बढाने के लिए नहीं करेगा।
वहां तो गांव के बेरोजगार, अनपढ किसान या फिर पैसे के लालच में फंसने वाले ही पहुंचेंगे। राजनेता को अपने खास लोगों के हित साधना पडते हैं, उन्हें लाभ के अवसर उपलब्ध कराना पडते हैं और वोट बैंक को बचाकर रखने की जुगाड भी करना पडती है। किसी एक विषय में विशेषज्ञ हुए बिना वे विशेष विभागों के मंत्री पद को सम्हालते है, ऐसे में उनका सामान्य ज्ञान लालफीताशाही की विशेषता के आगे बौना पड जाता है।
बस यहीं से शुरू होती है असमान ज्ञान की विना पर समान हितों को पूरा करने की चक्करदार पगदंडी। सच्चाई तो यह है कि वर्तमान में नेताओं और अफसरों की जुगलबंदी में कराह रही है कल्याणकारी योजनायें। इन दौनों ही बिरादरियों में अपवाद भी मौजूद है। परन्तु उन पारदर्शी सोच वालों की संख्या अंगुलियों पर गिनने योग्य ही बची है। भौतिकवादी युग में शारीरिक सुख के आगे नैतिकता अन्तिम सांसें गिन रही है।
समाज के चिन्तन का ठेका लेने वाले व्यक्तिगत लाभ के अवसर ही तलाशते नजर आते हैं। समाज के पीडा भरे व्याख्यान को बीच में ही रोकते हुए हमने उनसे समाधानात्मक स्थितियों पर प्रकाश डालने को कहा तो उन्होंने समान शिक्षा-समान स्वास्थ के लिए सरकारों के प्रयासों को ही संदेह भरी नजरों से देखना शुरू कर दिया।
रियासतकालीन व्यवस्था से लेकर लोकतांत्रिक प्रणाली तक को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि पहले राजाओं, उनके चाटुकारों को शाही व्यवस्था दी जाती थी, यही ढंग मुगुलकाल में भी जारी रहा, अंग्रेजों ने तो चार कदम आगे बढकर अंग्रेजियत स्वीकारने वालों को थोथी उपाधियां बांटते हुए सुविधायें देना शुरू कर दीं और आज भी यही पद्धति बदस्तूर लागू है। स्वाधीनता के बाद वही व्यवस्था नये रूप में सामने खडी है।
जब तक एक देश, एक सुविधा और एक अनुशासन नहीं होगा, तब तक विकास के वास्तविक मायने आकार नहीं ले पायेंगे। चर्चा चल ही रही थी कि नौकर ने डायनिंग टेबिल पर लंच लगा देने की सूचना दी। तब तक हमें भी धरातल से जुडी स्थिति पर जानेमाने विचारक की सोच का काफी कुछ भान हो चुका था।