डा. योगेश बंधु
कोरोना संकट के कारण 2008 से जारी डालर बनाम युआन की लड़ाई नई वैश्विक अर्थव्यवस्था को अंजाम दे सकती है ।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1944 में ब्रेटनवुड्स समझौते के फलस्वरूप विश्व बैंक, अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष की स्थापना के समय ज्यादातर देश केवल सोने को बेहतर मानक मानते थे, मुद्रा को सोने की मांग के मूल्य के आधार पर तय किया जाता था।
अमरीका के पास दुनिया का सबसे अधिक सोने का भंडार होने के कारण अमरीकी डॉलर के मुकाबले सभी मुद्राओं की विनिमय दर को तय किया गया और इस तरह नए वैश्विक व्यवस्था के साथ ही डॉलर की वर्तमान मजबूती की शुरुआत हुई। इस व्यवस्था के बढ़ते प्रभाव के कारण चाहे – अनचाहे दूसरे देशों को भी सोने की जगह डॉलर में अपनी मुद्रा का समर्थन करने को मजबूर कर दिया।
लेकिन 1970 के दशक तक आते आते एक बार ये चमक फीकी पड़ने लगी और कई देशों ने डॉलर के बदले सोने की मांग शुरू कर दी थी, क्योंकि उन्हें मुद्रा स्फीति से लड़ने में डालर के मुकाबले सोना के भंडार ज्यादा कारगर थे।
तत्कालीन राष्ट्रपति निक्सन ने फोर्ट नॉक्स जिसमें आज करीब 42 लाख किलो सोना रखा हुआ है ,उस भंडार को खोलने की बजाय डॉलर को सोने से अलग कर दिया, तब तक डॉलर दुनिया की सबसे ख़ास सुरक्षित मुद्रा बन चुका था, और इस तरह डालर की सर्वोच्चता एक वैश्विक मुद्रा के रूप में स्थापित हो गयी।
आज दुनिया भर के अलग अलग देशों के केंद्रीय बैंकों में जो विदेशी मुद्रा भंडार है उसका दो तिहाई तक अमरीकी डॉलर के रूप में है, जिसका इस्तेमाल अमरीका के बाहर होता है।
आज दुनिया में कुल विदेश व्यापार (आयात-निर्यात) का 85 फीसदी व्यापार डॉलर में होता है, और विदेशी मुद्रा में दिए जाने वाले लगभग 40 फीसदी क़र्ज डॉलर में दिए जाते हैं। जबकि दूसरी तरफ आज दुनिया भर में प्रचलित कुल 185 करेंसी में से ज्यादातर मुद्राओं का इस्तेमाल अपने सम्बंधित देश के भीतर ही होता है।
लेकिन, 2008 की वैश्विक मंदी के बाद, डालर की प्रधानता दो वजहों से प्रश्न चिन्ह लगाने शुरू हुए, पहला 2008 की वैश्विक मंदी अमेरिका की वजह से ही दुनिया के दूसरे देशो में फैली और दूसरा कम से कम चीन और रूस दो ऐसी महाशक्तियाँ हैं जो 2008 की वैश्विक अर्थव्यवस्था पर अब डालर को और नही देखना चाहती। क्योंकि डालर की प्रधानता से इस बात की आशंका हमेशा बने रहेगी कि अमेरिका की आर्थिक मंदी और मुद्रा स्फीति पूरी दुनिया के लिए ख़तरनाक है।
इन्हीं कारणों से मार्च 2009 में चीन और रूस ने डालर से अलग एक नई वैश्विक रिजर्व मुद्रा की मांग की, जो किसी देश की अर्थव्यवस्था से जुड़ी ना हो और लंबे समय तक स्थिर रहने में सक्षम हो, जिससे अन्य देशों की मुद्राओं को होने वाले नुक़सान की आशंका को ख़त्म किया जा सके।
चीन तब से ही इसके लिए ज्यादा मुखर और सक्रिय रहा है, उसने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से डॉलर की जगह नई मुद्रा बनाए जाने की मांग भी की। मंदी के हालात में अगर अमेरिका अपने केंद्रीय बैंक से नए नोट छापने शुरू कर दे , तो डॉलर में मुद्रा की अंतहीन स्फीति शुरू हो जाएगी, जिसका नुक़सान सबसे ज्यादा विदेशी मुद्रा क़ोष वाले देशों को होगा।
जाहिर है चीन को इसका सबसे ज्यादा नुक़सान उठाना पड़ेगा, जिसके पास वर्तमान में 31 खरब डालर विदेशी मुद्रा भंडार है, जो स्फीति की स्थिति में किसी काम के नहीं रहेंगे। 2007 में फेडरल रिजर्व के चेयरमैन एलेन ग्रीनस्पैन ने कहा था कि यूरो डॉलर की जगह ले सकता है, क्योंकि उस समय दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों के कुल विदेशी मुद्रा भंडार में यूरो 25 फीसदी हो गया था, लेकिन 2008 की मंदी से यूरोपीय यूनियन सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ और उसके बाद ठीक से उबर नही पाया।
दूसरी तरफ चीन इससे निपटने के लिए विकल्प के रूप में अपनी अर्थव्यवस्था को बड़े रणनीतिक तरीक़े से बड़ी तेजी से मजबूत कर रहा है और अपनी मुद्रा को वैश्विक विदेशी मुद्रा बाजार में डालर के बराबर स्थान दिलाने के लिए प्रयासरत है। जिसके चलते 2016 तक चीन की युआन दुनिया की एक और बड़ी रिजर्व मुद्रा बनी गयी और दुनिया के केंद्रीय बैंको में 108 अरब डॉलर के बराबर युआंन मौजूद थे।
अमेरिका ने चीन के इन प्रयासों को देखते हुए २०१६ में कई चीनी सामानो पर प्रशुल्क बढ़ा दिया , जिसके चलते चीन को अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करना पड़ा और युआंन को वैश्विक मुद्रा बनाने की चाहत को थोड़ी देर के लिए लगाम लगाना पड़ गया।
इन सब के बीच कोरोना ने दुनिया की अर्थव्यवस्था के सामने नया संकट खड़ा कर दिया। अर्थशास्त्रियों के मुताबिक़ कोरोना संकट के चलते दुनिया की अर्थव्यवस्था को क़रीब 5.5 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान झेलना पड़ सकता है।
यह रकम दुनिया की जीडीपी के 8 फीसदी हिस्से के बराबर है। जिसमें से 1 ट्रिलियन डॉलर की बड़ी कमी केवल अमेरिका और यूरोपियन यूनियन की अर्थव्यवस्थाओं में आएगी।
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इस समय जहाँ एक ओर जहां भारत समेत अमेरिका और यूरोप सहित दुनिया के सभी बड़े देश अपनी अर्थव्यवस्था की क़ीमत पर कोरोना से संघर्षरत हैं, तो दूसरी ओर चीन अपनी शातिर निगाहें पूरी दुनिया पर गड़ाए बैठा है और उसने अपनी विस्तारवादी नीतियों पर फिर से अमल करते हुए अपनी मौद्रिक नीति में परिवर्तन किया है।
जो लोग कोरोना को चीन की साजिश समझते हैं उनके विश्वास के पीछे चीन की ये गतिविधियाँ भी हैं । जिसे चीन 2008 के बाद से लगातार अंजाम दे रहा है, जिसमें 2016 के बाद से और तेजी आयी है।
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वर्तमान परिस्थितियों से एक बात सुनिश्चित है वो ये कि वर्तमान हालातों में युआन वैश्विक मुद्रा बने या ना बने लेकिन डालर की प्रधानता जरूर ख़त्म होने के कगार पर है।
दुनिया के वर्तमान राजनीति और आर्थिक हालातों को देखते हुए लगता है कि आने वाले समय में वैश्विक अर्थव्यवस्था एक नया रूप ले सकती है और कोरोना के बाद के इस ग्लोबल ऑर्डर में चीन की महत्वपूर्ण भूमिका को नकारा नही जा सकता। क्योंकि चीन से व्यापार आज के दुनिया की सच्चाई है, जिसके पास पूंजी भी है और सस्ता श्रम भी।
इस पूरे परिदृश्य में भारत को भी अमेरिका और चीन से अपने संबंधों को लेकर पुनर्विचार करने की जरूरत होगी। इस बीच भारत जहाँ भारत को अमेरिका और दूसरे यूरोपीय देशों से संबंधो कोज्यादा मजबूत करने की जरूरत होगी वहीं दूसरी ओर चीन की प्रभुत्ता स्थापित करने वाली चालों से भी निपटना होगा।
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भारत ही नही पूरी दुनिया के लिए ये बात गौरतलब है कि इस पूरे प्रकरण में डालर बनाम युआंन की लड़ाई और हार जीत वैश्विक आर्थिक संबंधो को पुनर्परिभाषित करेगी।
(लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री हैं)