Tuesday - 29 October 2024 - 6:28 PM

चुनावी शोर में दब गई बनारसी बुनकरों के करघे की आवाज़

शुभ्रा सुमन 

बनारस का नाम जब भी लेते हैं तो बनारसी साड़ियां किसे याद नहीं आती , साथ ही याद आते हैं वो बुनकर जो इस शहर की पहचान हैं . बुनकरी बनारस की परंपरा ही नहीं यहां की संस्कृति का हिस्सा है. बनारस में बुनकरों की तादाद चार लाख से भी ज्यादा है और यही वजह है कि उन्हें केन्द्र में रखकर कई वादे किए गए.

प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के तहत बुनकरों के लिए खास बुनकर मुद्रा योजना है जिसके तहत 50 हज़ार से लेकर 5 लाख तक का लोन देने का प्रावधान है. हथकरघा संवर्धन सहायता योजना के तहत बुनकरों के खाते में सीधा पैसा भेजने की बात की कई. कहा गया कि 90 प्रतिशत पैसा केन्द्र सरकार देगी और 10 फीसदी बुनकर को लगाना होगा. बुनकरों को लोन दिलाने और उनके बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा का प्रबंध करने के लंबे चौड़े वादे किए गए. हथकरघा दिवस के मौके पर केन्द्रीय कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी ने वाराणसी में एक बड़े कार्यक्रम में शिरकत की. स्मृति ईरानी ने कार्यक्रम का उद्घाटन करते हुए कहा कि बुनकरों को सीधे मार्केट से जोड़ा जा रहा है और अब बिचौलियों का ज़माना बीत चुका है.

इन्हीं दावों की हकीकत तलाशते हुए हम बनारस के उन इलाकों में पहुंचे जहां के घरों से आज भी दिनरात करघे की आवाज़ें सुनाई देती हैं. वहां पहुंचकर हमें इन आवाज़ों में छुपा वो दर्द महसूस हुआ जो रैलियों, भाषणों और नारों के शोर में कहीं दब जाता है. या कहें कि दबा दिया जाता है.

शहर के चक्कर काटते हुए हमारी गाड़ी बनारस के बकरिया कुंड इलाके में जाकर रुकी. गाड़ी भीतर ले जाने का रास्ता नहीं था सो उसे गली के बाहर ही पार्क करके हम मोहल्ले में दाखिल हुए, इस उम्मीद में कि हथकरघा के कारोबार को नज़दीक से देखने का मौका मिलेगा. गलियों के दोनों तरफ पुराने अंदाज़ में बने हुए मकान थे.

मकानों के सामने से गुजरते हुए हैंडलूम की खट -खट की आवाज़ें कानों में पड़ने लगीं. पूछने पर पता चला कि यहां ज़्यादातर मकानों के नीचले कमरे हैंडलूम के कारोबार के लिए इस्तेमाल में लाए जाते हैं. घर का करीब करीब हर सदस्य इसमें हाथ बंटाता है. यहां के बच्चों को न बुनकारी कोई सिखाता है और न वो किसी से सीखते हैं, ये हुनर उनके बड़े होने की प्रक्रिया का हिस्सा है. लेकिन इसके बावजूद नई पीढ़ी इस कारोबार में अपना भविष्य नहीं देखती.

26 साल के अहमद बताते हैं ”मैं बीकॉम हूँ, मेरी बहन भी… इस उम्मीद में  पढ़ाई-लिखाई की कि कहीं ठीक ठाक सी नौकरी लग जाए तो ज़िन्दगी बेहतर हो जाए.. लेकिन आजकल नौकरी लगना आसान नहीं है.. खूब पढ़े लिखे लोग भी बेकार घूम रहे हैं.. हमें कौन पूछता है..” ये कहते कहते अहमद उदास हो जाते हैं.

जब हम मोहल्ले के भीतर दाखिल हुए थे तब जुम्मे की नमाज़ चल रही थी.. नमाज़ खत्म होते ही मस्जिद से निकले हुए लोग हमारे आस पास जमा हो गए.. उनमें से कई बुज़ुर्ग लोगों ने हमें अपने अनुभव बताने शुरू किए.

धागे के दाम, मशीनों का मेंटेनेंस, बिजली का बिल. पिछले कुछ सालों में लागत तेज़ी से बढ़ा. लेकिन दाम उस हिसाब से नहीं बढ़ा. मार्जिन इतना कम है कि किसी तरह मुश्किल से परिवार चल पाता है. ये कहानी यहां के ज़्यादातर बुनकर परिवारों की है. सरकारी योजनाओं का लाभ उन्हें कहाँ से मिले जब उन योजनाओं की जानकारी तक आम बुनकरों तक ठीक तरह से नहीं पहुंच पाती.

बिचौलियों से मुक्ति दिलाने के लिए कई तरह की योजनाएं चलाई गईं लेकिन आज भी बनारस के साथ- साथ देशभर के बुनकर बिचौलियों के चंगुल में बुरी तरह फंसे हुए हैं. बातों-बातों में पता चला कि दस से बारह दिन की कड़ी मेहनत के बाद एक बनारसी साड़ी तैयार होती है. मार्किट से सीधा संपर्क न होने की वजह से इनके हाथ लगते हैं कुल दो से ढाई हज़ार रुपए. वही साड़ी बड़े दुकानों और मॉल्स में दस से बारह हज़ार रुपए में बिकती है. यानि बाजार हक़ मार लेता है. मेहनतकशों के हाथ कुछ नहीं लगता.

ट्रेड फैसिलिटी सेंटर के बाबत पूछने पर पता चला कि ज़्यादातर बुनकरों को इसकी जानकारी ही नहीं है.. वहां कैसे काम होता है, किसका माल बिकता है, कुछ मालूम नहीं.. अखबारों और टीवी के मार्फ़त कभी सुना हो तो अलग बात है लेकिन फायदा कभी नहीं मिला.

जिनके पास लूम का अपना कारोबार है उनसे भी ज़्यादा खराब हालत उन कारीगरों की है जो मज़दूर हैं. मज़दूरी इतनी कम है कि पेट पालना मुश्किल है. पूछने पर मज़दूरों का दर्द छलक आया, “जो मज़दूरी आज से 25 साल पहले मिलती थी वही आज भी मिलती है. मंहगाई बढ़ गई है. घर में कमाने वाला एक है. कहाँ जाएं, कोई सुनने वाला नहीं..”

बुनकर अपना दर्द बताते हुए भावुक हो जाते हैं. उनके मुताबिक पिछले पांच सालों में हालत और खराब हुई है.. डिमांड कम हो गया.. मुनाफा घट गया.. नोटबन्दी और जीएसटी ने कमर तोड़ दी.. कितनी मशीनें बंद हो गईं, कितने लोग कारोबार छोड़ने पर मजबूर गए, कई काम की तलाश में दूसरे शहर चले गए..

जनवरी 2016 में 13 लाख रूपए खर्च करके केन्द्रीय कपड़ा मंत्रालय ने एक सर्वे करवाया.. सर्वे में सामने आया कि वाराणसी में हथकरघा उद्योग में लगे लोगों की माली हालत खराब है.. सरकारी योजनाओं का लाभ उन्हें नहीं मिल रहा है.. जनधन योजना हो या प्रधानमंत्री बीमा योजना, बुनकरों तक इन योजनाओं को पहुंचाने में सरकार नाकाम रही है.. बनारस में घूमते हुए महसूस हुआ कि असल स्थिति इस रिपोर्ट से भी कहीं ज़्यादा भयावह है.

पूरे देश में बुनकरों की हालत खस्ता है.. कारोबार दम तोड़ रहा है.. ये बदहाली दशकों की बदइंतज़ामी और उपेक्षा का नतीजा है.. हम निकले थे इस उम्मीद में प्रधानमंत्री के ससंदीय क्षेत्र में शायद कुछ सकारात्मक बदलाव देखने को मिले. लेकिन निराश होकर लौटना पड़ा.

हमारे प्रधानमंत्री छलिया हैं..अलग-अलग रूप धरते हैं. पिछले चुनाव में चायवाले थे, अब चौकीदार हैं. बनारस के बुनकरों को उम्मीद करनी चाहिए कि कहीं आने वाले वक्त में मोदी जी बुनकर बन गए तो कम से कम नाम ही हो जाएगा.. क्योंकि काम जो होना था वो तो ज़मीन पर दिखाई नहीं देता..

( लेखिका टीवी पत्रकार हैं , फिलहाल वाराणसी के दौरे पर हैं )

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