- शाहीनबाग़ पिछले पांच दिनों से मीडिया की सुर्ख़ियों से गायब
- अब वहां भी ऐक्शन की सुगबुगाहट, सवाल तो उठेंगे
राजीव ओझा
ऐसा पहली बार नहीं हो रहा। जबतक स्थिति बेकाबू नहीं हो जाती, दर्जनों जान नहीं चली जाती और अरबों की संपत्ति नष्ट नहीं हो जाती तबतक हम एक्शन में नहीं आते। हम सत्यानाश का इन्तजार करते और जब बर्बादी हो जाती तो विलाप करने लगते हैं, सवाल उठाने लगते हैं। इस बार भी वही हो रहा है क्या हिन्दू क्या मुसलमान, सब दुखी हैं। सवाल उठा रहे हैं, किसी एक पर नहीं सब पर। इसमें सरकारी मशीनरी, नेता और मीडिया भी शामिल है। “भक्त” या “गोदी” मीडिया भी और “धरमनिरपेक्ष या “एंटी भक्त” मीडिया भी।
उत्तर पूर्वी दिल्ली में बवाल के पहले शाहीन बाग़ और जफराबाद, दो बवाल के केंद्र थे। एक ने अपना काम कर दिया। अब जफराबाद में कोई धरना-प्रदर्शन नहीं हो रहा। शाहीनबाग़ पिछले पांच दिनों से मीडिया की सुर्ख़ियों से गायब है, हालंकि अभी भी वहा धरना चल रहा। सुनाई पड़ रहा कि वहां भी अब प्रशासन एक्शन की तयारी में है। ऐसे में सवाल तो उठेंगे ही।
कोई दूध का धुला नहीं, हमाम में सब नंगे हैं। हिन्दू मरे या मुसलमान, उनको कोई फर्क नहीं पड़ता। सबको सिर्फ अपनी दूकान चलाने से मतलब। दो महीने से भी ज्यादा समय हो गया, बवाल हो रहा है कभी लखनऊ में, कभी अलीगढ में और कभी उत्तर पूर्वी दिल्ली में। एक तरफ तो हमसब, कभी किसी मंच पर, कभी किसी चैनल के पैनल पर और कभी सोशल मीडिया पर गंगा-जमुनी तहजीब, भाईचारा और सांप्रदायिक सौहार्द का स्वांग रचते रहते हैं और दूसरी तरफ किसी जलसे में, किसी सभा में और सोशल मीडिया पर भी हेट स्पीच की पिचकारी से विष की फुहार या फुफकार मारते समाज को जलाने की कोशिश करते हैं। जब तबाही हो जाती है तब सवाल उठाते हैं।
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पिछले मंगलवार को दिल्ली के नार्थ ईस्ट वाले भाग में जो हुआ, अचानक नहीं हुआ, लेकिन हुआ तो हुआ। एक सामान्य बुद्धि वाला इंसान भी समझ रहा था कि जिस तरह से नफरत की गैस बन रही है, उससे धमाका जरूर होगा और उसमें सब झुलसेंगे। यही हुआ भी। हिन्दू झुलसा, मुसलमान झुलसा, पुलिस भी झुलसी और आपसी भरोसा भी झुलसा।
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रोज नए-नए खुलासे हो रहे हैं, नए नए वीडिओ आ रहे हैं, और नई नई थ्योरी आ रही हैं। ख़ास बात ये कि इसमें कोई भी थ्योरी या एंगल ऐसा नहीं है जिसका अनुमान न लगाया जा सकता हो। बिल्डिंग की छतों पर तेज़ाब, पेट्रोल बम और पत्थरों के जो जखीरे मिले हैं, उससे साफ़ है तैयारी पहले से चल रही थी। एक बिल्डिंग की छत पर जुगाड़ से बनाई गई गुलेल और एक ठेलिया पर फिट की गई मोबाइल गुलेल को देख कर साफ़ हो जाता है कि बलवाइयों को पता था कि किस तरह की स्थिति पैदा होने वाली है और उसमें किस तरह के हथियार कारगर होंगे।
एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार चाँदबाग़ के कुछ घरों में एक सप्ताह पहले ही ट्रेक्टर ट्राली में भर भर कर पत्थर लाये गए और छतों पर जमा किये गए। लेकिन खोजी पत्रकारिता में ऐसे खुलासे अकसर घटना के बाद ही होते हैं। पुलिस पर बन्दूक तानने वाला और भीड़ पर फायर करने वाल शाहरुख खान पूरे परिवार के साथ गायब है लेकिन उसके टिकटोक वीडिओ खोज खोज कर मीडिया वाले ला रहे हैं।
ऐसे में मीडिया पर सवाल उठेंगे ही। एक बड़ा सवाल, क्या हम सिविल वार की ओर बढ़ रहे हैं ? क्या एक और विभाजन की रूपरेखा तैयार की जा रही है ? लेकिन हुक्मरानों, खुफियातंत्र और पुलिस आलाकमान को भी इसकी भनक न लगे तो सवाल उन पर भी उठेंगे ही।
इन सवालों और उसके समर्थन में आ रहे सुबूतों पर समाज दो भागों में बांटता जा रहा है, जो शुभ संकेत नहीं है। क्या फेक है क्या सही, इसका पता चले इसके पहले ही हेट स्पीच की फुफकार आपना काम कर जाती है। इसके चलते समाज में लोगों का एक दूसरे पर से भरोसा उठता जा रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)
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